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Sai Literature => सांई बाबा के हिन्दी मै लेख => Topic started by: spiritualworld on June 09, 2016, 03:29:35 AM

Title: माँ! मेरे गुरु ने तो मुझे केवल प्यार करना ही सिखाया है
Post by: spiritualworld on June 09, 2016, 03:29:35 AM
जिस समय साईं बाबा काका साहब को साठे के बारे में 'गुरुचरित्र' का पारायण करने के बारे में बता रहे थे| उस समय मस्जिद में बाबा के भक्त गोविन्द रघुनाथ दामोलकर (हेमाडपंत) तथा अष्ठा साहब बाबा की चरण सेवा कर रहे थे| यह सुनकर उनके मन में विचार आया कि 'मैं तो पिछले चालीस वर्षों से गुरुचरित्र का पारायण करता आया हूं, और सात वर्षों से बाबा की सेवा में हूं, परन्तु जो साठे को बाबा से सात दिन में मिल गया, वह मुझे क्यों नहीं मिला? मुझे बाबा का उपदेश कब होगा?'

हेमाडपंत के मन में उठ रहे विचारों के बारे में बाबा जान चुके थे| बाबा ने उनसे कहा - "तुम शामा के पास जाकर मेरे लिये पंद्रह रुपये दक्षिणा मांग के ले आओ| लेकिन वहां थोड़ी देर बैठकर वार्तालाप करना और बाद में आना|"

हेमाडपंत तुरंत उठे और शामा के पास गये| शामा उस समय स्नान क्रिया से निवृत होकर कपड़े पहन रहे थे| उन्होंने हेमाडपंत से कहा कि आप सीधे मस्जिद से आ रहे हैं? आप बैठकर थोड़ा-सा आराम कर लें, तब तक मैं पूजा कर लूं| ऐसा कहकर शामा अंदर कमरे में पूजा करने चले गए|

हेमाडपंत की नजर अचानक खिड़की में रखी 'एकनाथी भगवान' ग्रंथ पर पड़ी| सहजभाव से खोलकर देखा तो जो अध्ययन आज सुबह उन्होंने साईं बाबा के दर्शन करने के लिए जल्दी में अधूरा छोड़ा था, वही था| हेमाडपंत बाबा की लीला को देखकर हैरान रह गये| फिर उन्होंने सोचा कि सुबह पढ़ना अधूरा छोड़कर मैं गया था, यह गलती सुधारने के लिए ही बाबा ने मुझे यहां भेजा होगा| फिर वहां पर बैठे-बैठे उन्होंने वह अध्याय पूर्ण किया|

जब शामा बाहर आये तो हेमाडपंत ने बाबा का संदेश सुनाया| शामा ने कहा, मेरे पास पंद्रह रुपये नहीं हैं| रुपयों के बदले आप दक्षिणा के रूप में मेरे पंद्रह नमस्कार ले जाइए| हेमाडपंत ने स्वीकार कर लिया| उन्होंने हेमाडपंत को पान का बीड़ा दिया और बोले, आओ कुछ देर बैठकर बाबा की लीलाओं पर चर्चा कर लें|

फिर दोनों में वार्तालाप होने लगा| शामा बोले, बाबा की लीलाएं बहुत गूढ़ हैं, जिन्हें कोई समझ नहीं सकता| बाबा लीलाओं से निर्लेप हुए हास्य-विनोद करते रहते हैं| इस अज्ञानी बाबा की लीलाओं को क्या जानें? अब देखो तो बाबा ने आप जैसे विद्वान को मुझ अनपढ़ के पास दक्षिणा लेने भेज दिया| बाबा की क्रियाविधि को कोई नहीं समझ सकता| मैं तो बाबा के बारे में केवल इतना ही कह सकता हूं कि जैसी बाबा में भक्त की निष्ठा होती है, उसी अनुसार बाबा उसकी मदद करते हैं| कभी-कभी तो बाबा किसी-किसी भक्त की कड़ी परीक्षा लेने के बाद ही उसे उपदेश देते हैं| उपदेश शब्द सुनते ही हेमाडपंत को गुरुचरित्र पारायण वाली बात का स्मरण हो आया| वह सोचने लगे कि कहीं बाबा ने उनके मन की चंचलता को दूर करने के लिए लो उन्हें यहां नहीं भेजा है| फिर वे शामा से बाबा की लीलाओं को एकग्रता से सुनने लगे -

शामा सुनाने लगे - "एक समय संगमनेर से खाशावा देशमुख की माँ श्रीमती राधाबाई, साईं बाबा के दर्शन के लिए शिरडी आयी थीं| वह बहुत वृद्धा थीं| बाबा का दर्शन कर लेने पर वह सफर की सारी तकलीफें भूल गयीं| बाबा के प्रति उनकी बहुत निष्ठा थी| उनके मन में बाबा से उपदेश लेने की तीव्र इच्छा थी| उन्होंने अपने मन में यह निश्चय किया कि जब तक बाबा गुरोपदेश नहीं करते, तब तक वह शिरडी और छोड़ेंगी और आमरण-अनशन करने का निर्णय किया| वे अपनी जिद्द की पक्की थीं| उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया| तीन दिन बीत गये| भक्तगण चिंतित हो गये| पर वे माननेवाली नहीं थीं|

उनकी ऐसी स्थिति देखकर मैं भयभीत हो गया| मैंने मस्जिद में जाकर बाबा से प्रार्थना की - "हे देवा ! देशमुख की माँ आपकी भक्त हैं| आपका गुरु उपदेश पाने के लिए उन्होंने खाना-पीना तक छोड़ दिया है| यदि आपने उसे उपदेश नहीं दिया और दुर्भाग्य से उन्हें कुछ हो गया तो लोग आपकी ही दोषी ठहरायेंगे| आप पर बेवजह इल्जाम लगायेंगे| आप कृपा करके इस स्थिति को टाल दीजिये|"

शामा की बात सुनकर पहले तो बाबा मुस्कराए| उन्हें उस बूढ़ी माँ पर दया आ गयी| बाबा ने उन्हें अपने पास बुलाकर कहा - "माँ ! तुम जानबूझकर क्यों अपनी जान से खेल रही हो| शरीर को कष्ट देकर क्यों मृत्यु का आलिंगन करना चाहती हो| मांग के जो कुछ मिलता है, उसी से गुजारा करनेवाला फकीर हूं| तुम मेरी माँ हो और मैं तुम्हारा बेटा| तुम मुझ पर रहम करो| जो कुछ मैं तुमसे कहता हूं, उस पर ध्यान दोगी तो तुम भी सुखी हो जाओगी| मैं तुमसे अपनी कथा कहता हूं| उसे सुनोगी तो तुम्हें भी अपार शांति मिलेगी, सुनो -

मेरे श्री गुरु बहुत बड़े सिद्धपुरुष थे| मैं कई वर्षों तक उनकी सेवा करके थक गया, तब भी उन्होंने मेरे कान में कोई मंत्र नहीं फूंका| मैं भी अपनी बात का पक्का था, चाहे कुछ भी हो जाए, यदि मंत्र सीखूंगा तो इन्हीं से, यह मेरी जिद्द थी| पर उनकी तो रीति ही निराली थी| पहले उन्होंने मेरे सर के बाल कटवाये और फिर मुझसे दो पैसे मांगे| मैं समझ गया और मेंने उन्हें दो पैसे दे दिए| वास्तव में वे दो पैसे श्रद्धा और सबूरी (दृढ़ निष्ठा और धैर्य) थे| मैंने उसी पल उन्हें वे दोनों चीजें अर्पण कर दीं| वे बड़े प्रसन्न हुए| उन्होंने मुझ पर कृपा कर दी| फिर मैंने बारह वर्ष तक गुरु की चरणवंदना की| उन्होंने ही मेरा भरण-पोषण किया| उनका मुझ पर बड़ा प्रेम था| उन जैसा कोई विरला गुरु ही मिलेगा| मैंने अपने गुरु के साथ बहुत कष्ट उठाये| उनके साथ बहुत घूमा| उन्होंने भी मेरे लिये बहुत कष्ट उठाये| मेरी इच्छी से परवरिश की| हम आपस में बहुत प्यार करते थे|गुरु के बिना मुझे एक पल भी कहीं चैन नहीं मिलता था| मैं भूख-प्यास भूलकर हर पल गुरु का ही ध्यान करता था, वही मेरे लिए सब कुछ थे| मुझे सदैव गुरुसेवा की ही चिंता लगी रहती थी| मेरा मन उनके श्रीचरणों में ही लगा रहता था| मेरे मन का गुरुचरणों में लगना एक पैसे की दक्षिणा हुई| दूसरा पैसा धैर्य था| दीर्घकाल तक मैं धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करता हुआ गुरु की सेवा करता रहा, कि यही धैर्य एक दिन तुम्हें भी भवसागर से तार देगा| धैर्य धारण करने से मनुष्य के पाप और मोह  नष्ट होकर संकट दूर हो जाते हैं और भय नष्ट हो जाता है| धैर्य धारण करने से तुम्हें भी लक्ष्य की प्राप्ति होगी| धैर्य उत्तम गुणों की खान, उत्तम विचारों की जननी है| निष्ठा और धैर्य दोनों सगी बहनें हैं|

मेरे गुरु ने मुझसे कभी कुछ  नहीं मांगा और बार-बार मेरी रक्षा की| हर मुश्किल से मुझे निकाला और कभी मुझे अकेला नहीं छोड़ा| वैसे तो मैं सदैव गुरुचरणों में ही रहता था| यदि कभी कहीं चला भी जाता जब भी उनकी कृपादृष्टि मुझ पर लगातार रहती थी| जिस प्रकार एक कछुवी माँ अपने बच्चे का पालन-पोषण प्रेम-दृष्टि से करती है, वैसे ही मेरे गुरु का प्यार था| माँ ! मेरे गुरु ने मुझे कोई मंत्र नहीं सिखाया| फिर मैं तुम्हारे कान में कोई मंत्र कैसे फूंक दूं? इसलिए व्यर्थ में उपदेश पाने का प्रयास न करो| अपनी जिद्द छोड़ दो और अपनी जान से मत खेलो| तुम मुझे ही अपने कर्मों और विचारों का लक्ष्य बना लो| सिर्फ मेरा ही ध्यान करो तो तुम्हारा पारमार्थ सफल होगा| तुम मेरी और अनन्य भाव से देखो तो मैं भी तुम्हारी ओर अनन्य भाव से देखूंगा| इस मस्जिद में बैठकर मैं कभी असत्य नहीं बोलूंगा, कि शास्त्र या साधना की जरूरत नहीं है| केवल गुरु में विश्वास करना ही पर्याप्त है| केवल यही विश्वास रखो कि गुरु ही कर्त्ता है, वही मनुष्य धन्य है जो गुरु की महानता को जानता है| जो गुरु को ही सब कुछ समझता है, वही धन्य है| क्योंकि फिर जानने के लिए कुछ भी बाकी नहीं रहता|"

बाबा के इन वचनों को सुनकर राधाबाई के मन को बड़ी शांति मिली| आँखें भर आयीं| फिर बाबा के चरण स्पर्श करके उसने अपना अनशन त्याग दिया|