'आत्मज्ञान की आवश्यकता सर्वोपरि'
बाहरी दुनिया की जानकारी चाहे कितनी ही अधिक क्यों न प्राप्त कर ली जाए, पर अपने संबंध में आवश्यक ज्ञान प्राप्त किए बिना वह बहुत कुछ जानना भी अधूरा रहेगा। यह ठीक है कि हमारा सांसारिक वस्तुओं तथा परिस्थितियों से पाला पड़ता है और उनके सहारे प्रगति, अवगति काआधार बनता है, इसलिए दुनिया की जानकारी अधिकाधिक मात्रा में प्राप्त करना आवश्यक है। यह भी ठीक है कि संपर्क में आने वाले और विविध सूत्रों से अपने जीवनक्रम में जुड़े हुए व्यक्ति हमें असाधारण रूप से प्रभावित करते हैं। उनकी गतिविधियों का अपनी प्रसन्नता-अप्रसन्नता के साथ सघन संबंध रहता है। इसलिए उनके संबंध में ध्यान देना एवं व्यवस्था बनाना आवश्यक है। पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों का सही तरह निर्वाह किया जा सके, इसलिए लोक व्यवहार की जानकारी संग्रह की जानी चाहिए।
ये दोनों ही बातें आवश्यक हैं, अतएव उनसे संबंधित जानकारियाँ बढ़ाने और परिस्थितियों के साथ सफलतापूर्वक निपटने के साधन जुटाने में निरत रहना भी आवश्यक है। सांसारिक ज्ञान की उपयोगिता सर्वमान्य है। स्कूल, कॉलेजों से लेकर सभा-गोष्ठियों तक विविधविध क्रियाकलाप इस प्रयोजन के लिए चलते हैं। साहित्य-सृजन और प्रचार तंत्र इसी निमित्त खड़े किए जाते हैं। विचार-विनिमय, परामर्श और भावनात्मक आदान-प्रदान के लिए लेखन औरवाणी के उपयोग अनेक स्तर पर होते रहते हैं। ये जानकारियाँ जितनी अधिक होंगी, उतनी ही बुद्धि प्रखर होगी और प्रतिभा निखरेगी।
इतना सब होते हुए भी यदि अपने संबंध में अभीष्ट ज्ञान प्राप्त न किया जा सका तो समझना चाहिए कि संसार में सबंधित सुविस्तृत ज्ञान अपूर्ण और अपंग रह गया। अपने संबंध में जानकारी प्राप्त करने का तात्पर्य है- आत्मज्ञान। मोटी जानकारियाँ तो अपने संबंध में सभी को होती हैं। नाम, पता, वंश, स्वास्थ्य, शिक्षा, धन, परिवार, पद आदि के संबंध में पूछने पर कोई भी व्यक्ति आसानी से अपना परिचय दे सकता है, पर यह तो बहिरंग परिचय हुआ। भौतिक जानकारी रही। आत्मज्ञान का तात्पर्य इससे गहरा है।