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Sai Literature => सांई बाबा के हिन्दी मै लेख => Topic started by: JR on October 21, 2007, 12:30:25 AM

Title: आनंदमठ भाग-2
Post by: JR on October 21, 2007, 12:30:25 AM
आनंदमठ भाग-2     
 
अभी तक आपने पढ़ा:- अकाल से त्रस्त पदचिन्ह गांव के महेंद्रसिंह अपनी पत्‍‌नी कल्याणी और पुत्री के साथ सब कुछ छोड कर शहर की ओर चल पडते हैं। रास्ते में भूख प्यास से व्याकुल हो एक गांव में पहुंचते हैं लेकिन वहां भी कुछ खाने पीने को नहीं मिलता है। कल्याणी को वहीं एक मकान में छोड महेंद्रसिंह बच्ची के लिए दुध का इंतजाम करने बाहर निकलते हैं। इस बीच डकैतों का एक गिरोह वहां आता है और कल्याणी एवं उसकी बच्ची को उठा कर गांव से दूर जंगल में ले जाता है। महेंद्रसिंह जब लौटता है तो अपनी पत्‍‌नी और बच्चे को न पाकर उसे जोर-जोर से आवाज लगता है लेकिन उसे कोई जवाब नहीं मिलता। इधर डाकूओं का गिरोह धन के बंटवारे के बाद खाना को लेकर आपस में लडने लगते हैं और अपने दलपति की हत्या कर देते हैं तथा उसी को भून कर खाने की योजना बनाने लगते हैं। तभी एक डाकू कल्याणी के बच्चे को मार कर उसका मांस खाने की सलाह देता है और सभी उस तरफ देखने लगते हैं जहां कल्याणी को रखे थे। लेकिन वहां किसी को नहीं पाकर सभी परेशान हो उठते हैं। अब आगे पढिए:- जंगल के भीतर घनघोर अंधकार है। कल्याणी को उधर राह मिलना मुश्किल हो गया। वृक्ष-लताओं के झुरमुट के कारण एक तो राह कठिन, दूसरे रात का घना अंधेरा। कांटों से विंधती हुई कल्याणी उन आदमखोरों से बचने के लिए भागी जा रही थी। बेचारी कोमल लडकी को भी कांटे लग रहे थे। अबोध बालिका गोद में चीखकर रोने लगी; उसका रोना सुनकर दस्युदल और चीत्कार करने लगा। फिर भी, कल्याणी पागलों की तरह जंगल में तीर की तरह घुसती भागी जा रही थी। थोडी ही देर में चंद्रोदय हुआ। अब तक कल्याणी के मन में भरोसा था कि अंधेरे में नर-पिशाच उसे देख न सकेंगे, कुछ देर परेशान होकर पीछा छोडकर लौट जाएंगे, लेकिन अब चांद का प्रकाश फैलने से वह अधीर हो उठी। चन्द्रमा ने आकाश में ऊंचे उठकर वन पर अपना रुपहला आवरण पैला दिया, जंगल का भीतरी हिस्सा अंधेरे में चांदनी से चमक उठा- अंधकार में भी एक तरह की उ”वलता फैल गई- चांदनी वन के भीतर छिद्रों से घुसकर आंखमिचौनी करने लगी। चंद्रमा जैसे-जैसे ऊपर उठने लगा, वैसे-वैसे प्रकाश फैलने लगा जंग को अंधकार अपने में समेटने लगा। कल्याणी पुत्री को गोद में लिए हुए और गहन वन में जाकर छिपने लगी। उजाला पाकर दस्युदल और अधिक शोर मचाते हुए दौड-धूप कर खोज करने लगे। कन्या भी शोर सुनकर और जोर से चिल्लाने लगी। अब कल्याणी भी थककर चूर हो गई थी; वह भागना छोडकर वटवृक्ष के नीचे साफ जगह देखकर कोमल पत्तियों पर बैठ गई और भगवान को बुलाने लगी-कहां हो तुम? जिनकी मैं नित्य पूजा करती थी, नित्य नमस्कार करती थी, जिनके एकमात्र भरोसे पर इस जंगल में घुसने का साहस कर सकी.... ..कहां हो, हे मधुसूदन! इस समय भय और भक्ति की प्रगाढता से, भूख-प्यास से थकावट से कल्याणी धीरे अचेत होने लगी; लेकिन आंतरिक चैतन्य से उसने सुना, अंतरिक्ष में स्वर्गीय गीत हो रहा है-    हरे मुरारे! मधुकैटभारे! गोपाल, गोविंद मुकुंद प्यारे! हरे मुरारे मधुकैटभारे!....    कल्याणी बचपन से पुराणों का वर्णन सुनती आती थी कि देवर्षि नारद हाथों में वीणा लिए हुए आकाश पथ से भुवन-भ्रमण किया करते हैं- उसके हृदय में वही कल्पना जागरित होने लगी। मन-ही-मन वह देखने लगी- शुभ्र शरीर, शुभ्रवेश, शुभ्रकेश, शुभ्रवसन महामति महामुनि वीणा लिए हुए, चांदनी से चमकते आकाश की राह पर गाते आ रहे हैं।    हरे मुरारे! मधुकैटभारे!....    क्रमश: गीत निकट आता हुआ, और भी स्पष्ट सुनाई पडने लगा-    हरे मुरारे! मधुकैटभारे!....    क्रमश: और भी निकट, और भी स्पष्ट-    हरे मुरारे! मधुकैटभारे!....    अंत में कल्याणी के मस्तक पर, वनस्थली में प्रतिध्वनित होता हुआ गीत होने लगा-    हरे मुरारे! मधुकैटभारे!....    कल्याणी ने अपनी आंखें खोलीं। धुंधले अंधेरे की चांदी में उसने देखा- सामने वही शुभ्र शरीर, शुभ्रवेश, शुभ्रकेश, शुभ्रवसन ऋषिमूर्ति खडी है। विकृत मस्तिष्क और अर्धचेतन अवस्था में कल्याणी ने मन में सोचा-- प्रणाम करूं, लेकिन सिर झुकाने से पहले ही वह फिर अचेत हो गयी और गिर पडी।   

बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय