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Sai Literature => सांई बाबा के हिन्दी मै लेख => Topic started by: JR on October 21, 2007, 12:31:26 AM

Title: आनंदमठ भाग-4
Post by: JR on October 21, 2007, 12:31:26 AM
आनंदमठ भाग-4     
 
अभी तक आपने पढ़ा:- अकाल से त्रस्त पदचिन्ह गांव के महेंद्रसिंह अपनी पत्‍‌नी कल्याणी और पुत्री के साथ सब कुछ छोड कर शहर की ओर चल पडते हैं। रास्ते में कल्याणी को डकैत उठा कर जंगल में ले जाता है। फिर धन बंटवारे के दौरान डकैत के दलपति की हत्या हो जाती है। तभी एक डाकू कल्याणी के बच्चे को मार कर उसका मांस खाने की सलाह देता है। इस बीच कल्याणी मौका पाकर अपनी बच्ची को लेकर घने जंगल में बेतहाशा भागती है और अधिक थक जाने के कारण एक जगह बेहोश हो लुढक जाती है जहां से एक संन्यासी उसे उठाकर मठ में ले आता है। होश आने पर कल्याणी सारा हाल सुनाती है जिससे यह पता चलता है कि यह महेंद्र सिंह की पत्‍‌नी है। संन्यासी भवानंद को महेंद्र के विषय में पता करने को कहते हैं।    उधर महेंद्र सिंह को कंपनी के सिपाही डकैत समझ बंधक बना लेते हैं। भवानंद महेंद्र को पता करने के लिए निकलते हैं और वे भी कंपनी के सिपाहियों द्वारा बंदी बनाकर महेंद्र के साथ ही गाडी में रख दिए जाते हैं। रास्ते में कंपनी के सिपाहियों से जीवानंद की मुठभेड होती है और भवानंद एवं महेंद्र छुडा लिए जाते है तथा कंपनी का खजाना लुट लिया जाता है।    भवानंद महेंद्र को अपने विषय में बताता है और संतान बनने के लिए आग्रह करता है लेकिन साथ ही यह शर्त भी रखता है कि इसके लिए तुम्हें अपनी पत्‍‌नी व बच्ची को त्यागना होगा। महेंद्र को यह शर्त मंजूर नहीं होता है और वह संतान बनने से इंकार कर देता हैं।    अब आगे पढिए: सबेरा हो गया है। वह जनहीन कानन अब तक अंधकारमय और शब्दहीन था। अब आलोकमय प्रात: काल में आनंदमय कानन के आनंद-मठ सत्यानंद स्वामी मृगचर्म पर बैठे हुए संध्या कर रहे है। पास में भी जीवानंद बैठे हैं। ऐसे ही समय महेंद्र को साथ में लिए हुए स्वामी भवानंद वहां उपस्थित हुए। ब्रह्मचारी चुपचाप संध्या में तल्लीन रहे, किसी को कुछ बोलने का साहस न हुआ। इसके बाद संध्या समाप्त हो जाने पर भवानंद और जीवानंद दोनों ने उठकर उनके चरणों में प्रणाम किया, पदधूलि ग्रहण करने के बाद दोनों बैठ गए। सत्यानंद इसी समय भवानंद को इशारे से बाहर बुला ले गए। हम नहीं जानते कि उन लोगों में क्या बातें हुई। कुछ देर बाद उन दोनों के मंदिर में लौट आने पर मंद-मंद मुसकाते हुए ब्रह्मचारी ने महेंद्र से कहा-बेटा! मैं तुम्हारे दु:ख से बहुत दु:खी हूं। केवल उन्हीं दीनबंधु प्रभु की ही कृपा से कल रात तुम्हारी स्त्री और कन्या को किसी तरह बचा सका। यह उन्हीं ब्रह्मचारी ने कल्याणी की रक्षा का सारा वृत्तांत सुना दिया। इसके बाद उन्होंने कहा-चलो वे लोग जहां हैं वहीं तुम्हें ले चलें!    यह कहकर ब्रह्मचारी आगे-आगे और महेंद्र पीछे देवालय के अंदर घुसे। प्रवेश कर महेंद्र ने देखा- बडा ही लंबा चौडा और ऊंचा कमरा है। इस अरुणोदय काल में जबकि बाहर का जंगल सूर्य के प्रकाश में हीरों के समान चमक रहा है, उस समय भी इस कमरे में प्राय: अंधकार है। घर के अंदर क्या है- पहले तो महेंद्र यह देख न सके, किंतु कुछ देर बाद देखते-देखते उन्हें दिखाई दिया कि एक विराट चतुर्भुज मूर्ति है, शंख-चक्र-गदा-पद्यधारी, कौस्तुभमणि हृदय पर धारण किए, सामने घूमता सुदर्शनचक्र लिए स्थापित है। मधुकैटभ जैसी दो विशाल छिन्नमस्तक मूर्तियां खून से लथपथ सी चित्रित सामने पडी है। बाएं लक्ष्मी आलुलायित-कुंतला शतदल-मालामण्डिता, भयत्रस्त की तरह खडी हैं। दाहिने सरस्वती पुस्तक, वीणा और मूर्तिमयी राग-रागिनी आदि से घिरी हुई स्तवन कर रही है। विष्णु की गोद में एक मोहिनी मूर्ति-लक्ष्मी और सरस्वती से अधिक सुंदरी, उनसे भी अधिक ऐश्वर्यमयी- अंकित है। गंधर्व, किन्नर, यक्ष, राक्षसगण उनकी पूजा कर रहे हैं। ब्रह्मचारी ने अतीव गंभीर, अतीव मधुर स्वर में महेंद्र से पूछा-सब कुछ देख रहे हो?    महेंद्र ने उत्तर दिया-देख रहा हूं    ब्रह्मचारी-विष्णु की गोद में कौन हैं, देखते हो?    महेंद्र-देखा, कौन हैं वह?    ब्रह्मचारी -मां!    महेंद्र -यह मां कौन है?    ब्रह्मचारी ने उत्तर दिया -हम जिनकी संतान हैं।    महेंद्र -कौन है वह?    ब्रह्मचारी -समय पर पहचान जाओगे। बोलो, वंदे मातरम्! अब चलो, आगे चलो!    ब्रह्मचारी अब महेंद्र को एक दूसरे कमरे में ले गए। वहां जाकर महेंद्र ने देखा- एक अद्भुत शोभा-संपन्न, सर्वाभरणभूषित जगद्धात्री की मूर्ति विराजमान है। महेंद्र ने पूछा-यह कौन हैं?    ब्रह्मचारी-मां, जो वहां थी।    महेंद्र-यह कौन हैं?    ब्रह्मचारी -इन्होंने यह हाथी, सिंह आदि वन्य पशुओं को पैरों से रौंदकर उनके आवास-स्थान पर अपना पद्यासन स्थापित किया। ये सर्वालंकार-परिभूषिता हास्यमयी सुंदरी है- यही बालसूर्य के स्वर्णिम आलोक आदि ऐश्वर्यो की अधिष्ठात्री हैं- इन्हें प्रणाम करो!    महेंद्र ने भक्तिभाव से जगद्धात्री-रुपिणी मातृभूमि-भारतमाता को प्रणाम किया। तब ब्रह्मचारी ने उन्हें एक अंधेरी सुरंग दिखाकर कहा-इस राह से आओ! ब्रह्मचारी स्वयं आगे-आगे चले। महेंद्र भयभीत चित्त से पीछे-पीछे चल रहे थे। भूगर्भ की अंधेरी कोठरी में न जाने कहां से हलका उजाला आ रहा था। उस क्षीण आलोक में उन्हें एक काली मूर्ति दिखाई दी।    ब्रह्मचारी ने कहा-देखो अब मां का कैसा स्वरूप है!    महेंद्र ने कहा-काली?    ब्रह्मचारी-हां मां काली- अंधकार से घिरी हुई कालिमामयी समय हरनेवाली है इसीलिए नगन् हैं। आज देश चारों तरफ श्मशान हो रहा है, इसलिए मां कंकालमालिनी है- अपने शिव को अपने ही पैरों तले रौंद रही हैं। हाय मां! ब्रह्मचारी की आंखें से आंसू की धारा-बहने लगी।   

बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय