DwarkaMai - Sai Baba Forum

Sai Literature => सांई बाबा के हिन्दी मै लेख => Topic started by: JR on October 21, 2007, 12:33:34 AM

Title: आनंदमठ भाग-5
Post by: JR on October 21, 2007, 12:33:34 AM
आनंदमठ भाग-5     
 
अभी तक आपने पढ़ा:- अकाल से त्रस्त पदचिन्ह गांव के महेंद्रसिंह अपनी पत्‍‌नी कल्याणी और पुत्री के साथ सब कुछ छोड कर शहर की ओर चल पडते हैं। रास्ते में कल्याणी को डकैत उठा कर ले जाता है। कल्याणी मौका पाकर अपनी बच्ची को लेकर घने जंगल में बेतहाशा भागती है और अधिक थक जाने के कारण एक जगह बेहोश हो लुढक जाती है जहां से एक संन्यासी उसे उठाकर मठ में ले आता है।    उधर महेंद्र सिंह को कंपनी के सिपाही डकैत समझ बंधक बना लेते हैं। भवानंद महेंद्र को पता करने के लिए निकलते हैं और वे भी कंपनी के सिपाहियों द्वारा बंदी बनाकर महेंद्र के साथ ही गाडी में रख दिए जाते हैं। रास्ते में कंपनी के सिपाहियों से जीवानंद की मुठभेड होती है और भवानंद एवं महेंद्र छुडा लिए जाते है।    भवानंद महेंद्र को अपने विषय में बताता है और संतान बनने के लिए आग्रह करता है लेकिन साथ ही यह शर्त भी रखता है कि इसके लिए तुम्हें अपनी पत्‍‌नी व बच्ची को त्यागना होगा। महेंद्र को यह शर्त मंजूर नहीं होता है और वह संतान बनने से इंकार कर देता हैं।    ब्रह्मचारी महेंद्र को मठ में ले जाते हैं जहां उसकी मुलाकात कल्याणी से होती है। महेंद्र कल्याणी से मिलकर काफी खुश होते हैं और विचार कर वापस घर की ओर लौट पडते हैं। रास्ते में नदी किनारे वह विश्राम करने के लिए रुकते हैं जहां जहर की डिबिया बच्ची के हाथ लग जाती है। जब तक कल्याणी की नजर उस पर जाती तब तक बच्ची एक गोली मुंह में रख लेती है हालांकि महेंद्र गोली को मुंह से निकाल लेता है। इस बीच बच्ची की हालत खराब होते देख कल्याणी जहर की गोली को निगल लेती है। महेंद्र को कुछ नहीं सूझता है। तभी सत्यानन्द उपस्थित होते हैं और महेंद्र को बांहों में सम्भाल कर बैठ जाते हैं। अब आगे पढिए:- इधर राजधानी की शाही राहों पर बडी हलचल उपस्थित हो गई। शोर मचने लगा कि नवाब के यहां से जो खजाना कलकत्ते आ रहा था, संन्यासियों ने मानकर सब छीन लिया। राजाज्ञा से सिपाही और बल्लमटेर संन्यासियों को पकडने के लिए छूटे। उस समय दुर्भिज्ञ-पीडित प्रदेश में वास्तविक संन्यासी रह ही न गए थे। कारण, वे लोग भिक्षाजीवी ठहरे, जनता स्वयं खाने को नहीं पाती तो उन्हें वह कैसे दे सकती है? अतएव जो असली संन्यासी भिक्षुक थे, वे लोग पेट की ज्वाला से व्याकुल होकर काशी-प्रयाग चले गए थे। आज ये हलचल देखकर कितनों ने ही अपना संन्यासी वेष त्याग दिया। राज्य के भूखे सैनिक, संन्यासियों को न पाकर घर-घरमें तलाशी लेकर खाने और पेट भरने लगे। केवल सत्यानन्द ने किसी तरह भी अपने गैरिक वस्त्रों का परित्याग न किया।    उसी कल्लोलवाहिनी नदी-तट पर, शाही राह के बगल में पही पेड के नीचे कल्याणी पडी हुई है। महेंद्र और सत्यानंद परस्पर अलिंगनबद्ध होकर आंसू बहाते हुए भगवन्नाम-उच्चारण में लगे हुए हैं। उसी समय एक जमादार सिपाहियों का दल लिए हुए वहां पहुंच गया। संन्यासी के गले पर एक बारगी हाथ ले जाकर जमादार बोला-यह साला संन्यासी है!    इसी तरह एक दूसरे ने महेंद्र को पकडा। कारण, जो संन्यासी का साथी है वह अवश्य संन्यासी होगा। तीसरा एक सैनिक घास पर पडे हुए कल्याणी के शरीर की तरफ लपका- उसने देखा की औरत मरी हुई है, संन्यासी न होने पर भी हो सकती है। उसने उसे छोड दिया। बालिका को भी यही सोच कर उसने छोड दिया। इसके बाद उन सबने और कुछ न कहा, तुरंत बांध लिया और ले चले दोनों जन को। कल्याणी की मृत देह और कन्या बिना रक्षक के पेड के नीचे पडी रही। पहले तो शोक से अभिभूत और ईश्वर के प्रेम में उन्मत्त हुए महेंद्र प्राय: विचेतन अवस्था में थे- क्या हो रहा था, क्या हुआ- इसे वह कुछ समझ न सके। बंधन में भी उन्होंने कोई आपत्ति न की। लेकिन दो-चार कदम अग्रसर होते ही वे समझ गए कि ये सब मुझे बांध लिए जा रहे है- कल्याणी का शरीर पडा हुआ है, उसका अंतिम संस्कार नहीं हुआ- कन्या भी पडी हुई है। इस अवस्था में उन्हें हिंस्त्र पशु खा जा सकते हैं। मन में यह भाव आते ही महेंद्र के शरीर में बल आ गया और उन्होंने कलाइयों को मरोडकर बंधन को तोड डाला। फिर पास में चलते जमादार को इस जोर की लात लगायी कि वह लुडकता हुआ दस हाथ दूर चला गया। तब उन्होंने पास के एक सिपाही को उठाकर फेंका। लेकिन इसी समय पीछे के तीन सिपाहियों ने उन्हें पकडकर फिर विवश कर दिया। इस पर दु:ख से कातर होकर महेंद्र ने संन्यासी से कहा-आप जरा भी मेरी सहायता करते, तो मैं इन पांचों दुष्टों को यमद्वार भेज देता।    सत्यानंद ने कहा-मेरे इस बूढे शरीर में बल ही कहां है? मैं तो जिन्हें बुला रहा हूं, उनके सिवा मेरा कोई सहारा नहीं है। जो होना है- वह होकर रहेगा, तुम विरोध न करो। हम इन पांचों को पराजित कर न सकेंगे। देखें, ये हमें कहां ले जाते हैं..... भगवान् हर जगह रक्षा करेंगे!    इसके बाद इन लोगों ने मुक्ति की फिर कोई चेष्टा न की, चुपचाप सिपाहियों के पीछे-पीछे चलने लगे। कुछ दूर जाने पर सत्यानंद ने सिपाहियों से पूछा-बाबा! मैं तो हरिनाम कह रहा था, क्या भगवान का नाम लेने में भी कोई बाधा है? जमादार समझ गया कि सत्यानंद भले आदमी हैं। उसने कहा-तुम भगवान का नाम लो, तुम्हें रोकूंगा नहीं। तुम वृद्ध ब्रह्मचारी हो, शायद तुम्हारे छुटकारे का हुक्म हो जाएगा। मगर यह बदमाश फांसी पर चढेगा!    इसके बाद ब्रह्मचारी मृदु स्वर से गाने लगे-    धीर समीरे तटिनी तीरे बसति बने बनबारी।    मा कुरु धनुर्धर गमन विलम्बनमतिविधुरा सुकुमारी॥.....    इत्यादि।    नगर में पहुंचने पर वे लोग कोतवाल के समीप उपस्थित किए गए। कोतवाल ने नवाब के पास इत्तिला भेजकर संप्रति उन्हें फाटक के पास की हवालात में रखा। वह कारागार अति भयानक था, जो उसमें जाता था, प्राय: बाहर नहीं निकलता था, क्योंकि कोई विचार करने वाला ही न था। वह अंग्रेजों के जेलखाना नहीं था और न उस समय अंग्रेजों के हाथ में न्याय था। आज कानूनों का युग है- उस समय अनियम के दिन थे। कानून के युग से जरा तुलना तो करो!

बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय