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Sai Literature => सांई बाबा के हिन्दी मै लेख => Topic started by: tana on February 21, 2007, 01:52:05 AM

Title: Gayatri mantra....
Post by: tana on February 21, 2007, 01:52:05 AM
om sai ram...
 
AUM BHOOR BHUWAH SWAHA,
TAT SAVITUR VARENYAM
BHARGO DEVASAYA DHEEMAHI
DHIYO YO NAHA PRACHODAYAT  

Oh God! Thou art the Giver of Life, Remover of pain and sorrow, The Bestower of happiness, Oh! Creator of the Universe, May we receive thy supreme sin-destroying light, May Thou guide our intellect in the right direction.

 Word to Word Meaning of  Gayatri Mantra...   

Aum- Almighty God 
Bhoor -Embodiment of vital or spiritual energy 
Bhuwah -Destroyer of suffering 
Swah -Embodiment of Happiness 
Tat -That (Indicating God) 
Savitur -Bright, Luminous, like Sun 
Varenyam -Supreme, Best 
Bhargo- Destroyer of Sins 
Devasaya -Divine 
Dheemahi- May receive 
Dheeyo -Intellect 
Yo -Who 
Nah -Our 
Prachodayat -May inspire 

JAI SAI RAM...

 

Title: Re: Gayatri mantra....
Post by: Ramesh Ramnani on February 24, 2007, 10:30:32 PM
जय सांई राम।।।

आरती श्री गायत्री जी की

ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्। *******

आरती श्री गायत्री जी की जयति जय गायत्री माता, जयति जय गायत्री माता।
आदि शक्ति तुम अलख निरंजन जगपालक क‌र्त्री॥ जयति ..
दु:ख शोक, भय, क्लेश कलश दारिद्र दैन्य हत्री।
ब्रह्म रूपिणी, प्रणात पालिन जगत धातृ अम्बे।
भव भयहारी, जन-हितकारी, सुखदा जगदम्बे॥ जयति ..
भय हारिणी, भवतारिणी, अनघेअज आनन्द राशि।
अविकारी, अखहरी, अविचलित, अमले, अविनाशी॥ जयति ..
कामधेनु सतचित आनन्द जय गंगा गीता।
सविता की शाश्वती, शक्ति तुम सावित्री सीता॥ जयति ..
ऋग, यजु साम, अथर्व प्रणयनी, प्रणव महामहिमे।
कुण्डलिनी सहस्त्र सुषुमन शोभा गुण गरिमे॥ जयति ..
स्वाहा, स्वधा, शची ब्रह्माणी राधा रुद्राणी।
जय सतरूपा, वाणी, विद्या, कमला कल्याणी॥ जयति ..
जननी हम हैं दीन-हीन, दु:ख-दरिद्र के घेरे।
यदपि कुटिल, कपटी कपूत तउ बालक हैं तेरे॥ जयति ..
स्नेहसनी करुणामय माता चरण शरण दीजै।
विलख रहे हम शिशु सुत तेरे दया दृष्टि कीजै॥ जयति ..
काम, क्रोध, मद, लोभ, दम्भ, दुर्भाव द्वेष हरिये।
शुद्ध बुद्धि निष्पाप हृदय मन को पवित्र करिये॥ जयति ..
तुम समर्थ सब भांति तारिणी तुष्टि-पुष्टि द्दाता।
सत मार्ग पर हमें चलाओ, जो है सुखदाता॥
जयतिजय गायत्री माता॥   

अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई


ॐ सांई राम।।।
Title: Re: Gayatri mantra....गायत्री उपासना हम सभी के लिये अनिवार्य
Post by: JR on March 01, 2007, 12:42:38 AM
गायत्री उपासना हम सभी के लिये अनिवार्य

गायत्री को भारतीय संस्कृति की जननी कहा गया है ।  वेदों से लेकर धर्मशास्त्रों तक का समस्त दिवय ज्ञान गायत्री के बीजाक्षरों का ही विस्तार है ।  माँ गायत्री का आँचल पकड़ने वाला साधक कभी निराश नहीं हुआ ।  इस मंत्र के चौबीस अक्षर शक्तियों, सिद्घियों के प्रतीक है ।  गायत्री उपासना करने वाले साधक की सभी मनोकामनाएँ पूरी होती है, ऐसा ऋषिगणों का अभिमत है ।

गायत्री वेदमाता है एवं मानव मात्र का पाप का नाश करने की शक्ति उनमें है ।  इससे अधिक पवित्र करने वाला और कोई मंत्र स्वर्ग और पृथ्वी पर नहीं है ।  भौतिक लालसाओं से पीड़ित व्यक्ति के लिये भी और आत्मकल्याण की इच्छा रखने वाले मुमुक्षु के लिये भी एक मात्र आश्रय गायत्री ही है ।  गायत्री से आयु, प्राण, प्रजा, पशु कीर्ति, धन एवं ब्रहमवर्चस के सात प्रतिफल अथर्ववेद में बताए गये है, जो विधिपूर्वक उपासना करने वाले हर साधक को निश्चित ही प्राप्त होते है ।

भारतीय संस्कृति में आस्था रखने वाले हर प्राणी को नित्य नियमित गायत्री उपासना करनी चाहिये ।  विधिपूर्वक की गई उपासना साधक के चारों ओर एक रक्षा कवच का निर्माण करती है व विभिन्न विपत्तियों, आसन्न विभीषिकाओं से उसकी रक्षा करती है ।  प्रस्तुत समय इक्कीसवीं सदी का ब्रहम मुहूर्त है ।  आगतामी वर्षों में पूरे विश्व में तेजी से परिवर्तन होगा ।  इस विशिष्ट समय में की गयी गायत्री उपासना के प्रतिफल भी विशिष्ट होंगें ।  युगऋषि, वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ पं. श्री राम शर्मा आचार्य जी ने गायत्री के तत्वदर्शन को जन-जन तक पहुँचाया व उसे जन-सुलभ बनाया ।  प्रत्यक्ष कामधेनु की तरह इसका हर कोई पय पान कर सकता है ।  जाति, मत, लिंग भेद से परे गायत्री सार्वजनीन है, सबके लिये उसकी उपासना-साधना करने व लाभ उठाने का मार्ग खुला हुआ है ।

   
गायत्री उपासना का विधि-विधान  



गायत्री उपासना कभी भी, किसी भी स्थिति में की जा सकती है ।  हर स्थिति में यह लाभदायी है, परन्तु विधिपूर्वक भावना से जुड़े न्यूनतम कर्मकांडों के साथ की गई उपासना अति फलदायी मानी गई है ।  तीन माला नायत्री मंत्र का जप आवश्यक माना गया है ।  शौच-स्नान से निवृत होकर नियत स्थान, नियत समय पर सुखासन में बैठकर नित्य गायत्री उपासना की जानी चाहियें ।

उपासना का विधि विधान इस प्रकार है –

1. ब्रहम संध्या – जो शरीर व मन को पवित्र बनाने के लिये की जाती है ।  इसके अन्तर्गत पाँच कृत्य करने पड़ते है ।

अ. पवित्रीकरण – बाँए हाथ में जल लेकर उसे दाहिने हाथ से ढक लिया जाए ।  पवित्रीकरण का मंत्रोच्चारण किया जाए ।  तदुपरांत उस ज को सिर तथा शरीर पर छिड़क लिया जाये ।

   ऊँ अपवित्रः पवित्रोवा, सर्वावस्थां गतोडपि वा ।
   यः स्मरेत्पुणडरीकाक्षं, स बाहृाभ्यन्तरः शुचिः ।।
   ऊँ पुनातु पुण्डरीकाक्षः, पुनातु पुण्डरीकाक्षः, पुनातु ।

आचमन – वाणी, मन व अन्तःकरण की शुद्घि के लिये चम्मच से तीन बार जल का आचमन करें ।  हर मंत्र के साथ एक आचमन किया जाये ।

   ऊँ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा ।। 1 ।।
   ऊँ अमृतापिधानमसि स्वाहा ।। 2 ।।
   ऊँ सत्यं यशः श्रीर्मयि, श्रीः श्रयतां स्वाहा ।। 3 ।।

स. शिखा स्पर्श एवं विंदन – शिखा के स्थान को भीगी पाँचों अंगुलियों से स्पर्श करते हुए भावना करें कि गायत्री के इस प्रतीक के माध्यम से सदा सदविचार ही यहाँ स्थापित रहेंगे ।  निम्न मंत्र का उच्चारण करें ।

   ऊँ चिदरुपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते ।
   तिष्ठ देवि शिखामध्ये, तेजोवृद्घि कुरुष्व मे ।।

द. प्रणायाम – श्वास को धीमी गति से बाहर से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम के कृत्य में आता है ।  श्वांस खींचने के साथ भावना करें कि प्राणशक्ति की श्रेष्ठता श्वांस के द्घारा अंदर खींची जा रही है, छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे दुर्गुण, दुष्प्रवृत्तियाँ, बुरे विचार प्रश्वांस के साथ बाहर निकल रहे है ।  प्राणायाम, मंत्र के उच्चारण के बाद किया जाये ।

ऊँ भूः ऊँ भुवः ऊँ स्वः ऊँ महः ऊँ जनः ऊँ तपः ऊँ सत्यम् ।  ऊँ भूर्भवः स्वः त्तसवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् । ऊँ आपोज्योतीरसोडमृतं, ब्रहम भूर्भऊवः स्वः ऊँ ।

य. न्यास – इसका प्रयोजन है – शरीर के सभी महत्तवपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश तथा अंतः की चेतना को जगाना ताकि देवपूजन जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके ।  बाँयें हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की पाँचों अंगुलियों को उसमें भिगोकर बताए गये स्थान को मंत्रोच्चार के साथ स्पर्श करें ।

ऊँ वाड.मे आस्येडस्तु ।  (मुख को)
ऊँ नसोर्मेप्राणोडस्तु ।  (नासिका के दोनो छिद्रों को)
ऊँ अक्ष्णोर्मेचक्षुरस्तु ।  (दोनों नेत्रों को)
ऊँ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु ।  (दोनों कानों को)
ऊँ बाहृोर्मे बलमस्तु ।  (दोनों भुजाओं को)
ऊँ ऊर्वोर्मे ओजोडस्तु । (दोनों जंघाओं को)
ऊँ अरिष्टानि मेड़्रानि, तनूस्तन्वा में सह सन्तु (समस्त शरीर को)

आत्मशोधन की ब्रहम संध्या के उपरोक्त पाँचों कृत्यों का भाव यह है कि साधक में पवित्रता एवं प्रखरता की अभिवृद्घि होतथा मलिनाता-अवांछनीयता की निवृत्ति हो ।  पवित्र प्रखर व्यक्ति ही भगतवान के दरबार में प्रवेश के अधिकारी होते है ।

2. देवपूजन – क. – गायत्री उपासना का आधार केन्द्र महाप्रज्ञा-ऋतंभरा गायत्री है ।  उनका प्रतीक चित्र सुसज्जित पूजा की वेदी पर स्थापित कर उनका निम्न मंत्र के माध्यम से आवाहन करें ।  भावना करें कि साधक की भावना के अनुरुप माँ गायत्री की शक्ति वहाँ अवतरित हो, स्थापिर हो रही है ।

                  ऊँ आयातु वरदे देवि ।  त्र्यक्षरे ब्रहमवादिनि ।
                  गायत्रिच्छन्दसां मातः, ब्रहृयोने नमोडस्तु ते ।। 3 ।।
                  श्री गायत्र्यै नमः ।  आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ।
                             ततो नमस्कारं करोमि ।

ख.   गुरु परमात्मा की दिव्य चेतना का अंश है, जो साधक का मार्गदर्शन करता है ।  सदगुरु के रुप में पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी का अभिनन्दन करते हुए उपासना की सफलता हेतु प्रार्थना के साथ गुरु आवाहन् निम्न मंत्रोच्चर के साथ करें ।

   ऊँ गुरुब्रर्हमा गुरुविष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः ।
   गुरुरेव परब्रहृ, तस्मै श्री गुरवे नमः ।। 1 ।।
   अखन्डमणडलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम् ।
   तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः ।। 2 ।।
   मातृवत् लालयित्री च, पितृवत् मार्गदर्शिका ।
   नमोडस्तु गुरु सत्तायै, श्रद्घा-प्रज्ञायुता च या ।। 3 ।।
   ऊँ श्री गुपवे नमः ।  आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, धयायामि ।

ग.  माँ गायत्री व गुरुसत्ता के आवाहन व नमन के पश्चात् देवपूजन में घनिष्ठता स्थापना हेतु पंचोपचार पूजन किया जाता है ।  इन्हें विधिवत् संपन्न करें ।  जल, अक्षत, पुष्प, धूप-दीप तथा नैवेघ प्रतीक के रुप में आराध्य के समक्ष प्रस्तुत किये जाते है ।  एक-एक करके छोटी तश्तरी में इन पांचों को समर्पित करते चलें ।  जल का अर्थ है – नम्रता, सहृदयता ।  अंक्षत का अर्थ है – समयदान, अंशदान ।  पुष्प का अर्थ है – प्रसन्नता, आंतरिक उल्लास ।  धूप-दीप का अर्थ है – सुगंध व प्रकाश का वितरण, पुण्य परमार्थ तथा नैवेघ का अर्थ है – स्वभाव व व्यवहार में मधुरता, शालीनता का समावेश ।

ये पांचों उपचार व्यक्तित्व को सत्प्रवृत्तियों से संपन्न करने के लिये किये जाते है ।  कर्मकांड के पीछे भावना महत्वपूर्ण है ।

3. जप – गायत्री मंत्र का जप न्यूनतम तीन माला अर्थात् घड़ी से प्रायः पन्द्रह मिनट नियमित रुप से किया जाये, अधिक बन पड़े तो अधिक उत्तम ।  होंठ हिलते रहे, किंतु आवाज इतनी मंद हो कि पास बैठे व्यक्ति भी सुन न सकें ।  जप प्रकि्या कषाय-कल्मषों-कसंस्कारों को धोने के लिये की जाती है ।


   ऊँ भूर्भवः स्वः त्तसवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।

इस प्रकार मंत्र का उच्चारण करते हुए भावना की जाए कि हम निरंतर पवित्र हो रहे है ।  दुर्वुद्घि की जगह सदबुद्घि की स्थापना हो रही है ।

4. ध्यान -  जप तो अंग अवयव करते है, मन को ध्यान में नियोजित करना होता है ।  साकार ध्यान में गायत्री माता के आँचल की छाया में बैठने तथा उनका दुलार भरा प्यार अनवरत रुप से प्राप्त होने की भावना की जाती है ।  निराकार ध्यान में गायत्री के देवता सविता की प्रभातकालीन स्वर्णिम किरणों के शरीर पर बरसने व शरीर में श्रद्घा-प्रज्ञा निष्ठा रुपी अनुदान उतरने की मान्यता परपक्व की जाती है ।  जप और ध्यान के समन्वय से ही चित्त एकाग्र होता है और आत्मसत्ता पर उस कृत्य का महत्वपूर्ण प्रभाव भी पड़ता है ।

5. सूर्याध्र्यदान – जप समाप्ति कके पश्चात् पूजा वेदी पर रखे छोटे कलश का जल सूर्य की दिशा में अर्घ्य रुप में निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ चढ़ाया जाता है ।

   ऊँ सूर्यदेव ।  सहस्त्रांशो, तेजोराशे जगत्पते ।
   अनुकम्पय मां भक्तया, गृहाणार्घ्य दिवाकर ।।
   ऊँ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः ।।

भावना यह करें कि जल आत्मसत्ता का प्रतीक है एवं सूर्य विराट ब्रहृ का तथा हमारी सत्ता-संपदा समष्टि के लिये समर्पित विर्सजित हो रही है ।

नमस्कार एवं विसर्जन – इतना सब करने के बाद पूजा स्थल पर विदाई के लिये करबद्घ नतमस्तक हो नमस्कार किया जाए व सब वस्तुओं को समेटकर यथास्थान रख लिया जाये ।  जप के लिये माला तुलसी या चंदन की ही लेनी चाहिये ।  सूर्योदय के दो घंटे पूर्व से सूर्यास्त के एक घंटे बाद तक कभी भी गायत्री उपासना की जा सकती है ।  मौन मानसिक जप चौबीस घंटे कभी किया जा सकता है ।  माला जपते समय तर्जनी उंगली का उपयोग न करें तथा सुमेरु का उल्लंघन न करें ।

 
शांति पाठ


ऊँ घौः शान्तिरन्तरिक्ष ऊँ शान्तिः, पृथिवि शान्तिरापः, शान्तिरोषधयः शान्तिः ।  वनस्पतयः शान्तिर्विश्र्वेदेवाः, शान्तिब्रर्हशान्तिः, सर्व ऊँ शान्तिः, शान्तिरेवः, सा मा शान्तिरेधि ।।  ऊँ शान्तिः, शान्तिः, शान्ति ।  सर्वारिष्ट-सुशान्तिभर्वतु ।।