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Author Topic: Kavir Dohawali  (Read 7261 times)

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Kavir Dohawali
« on: October 19, 2007, 09:39:01 AM »
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  • दुख में सुमरिन सब करे, सुख मे करे न कोय ।
    जो सुख मे सुमरिन करे, दुख कहे को होय ॥ 1 ॥



    तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय ।
    कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥ 2 ॥



    माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
    कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥ 3 ॥



    गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
    बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥ 4 ॥



    बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार ।
    मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥ 5 ॥



    कबीरा माला मनहि की, और संसारी भीख ।
    माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥ 6 ॥



    सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद ।
    कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥ 7 ॥



    साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
    मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥ 8 ॥



    लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
    पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥ 9 ॥



    जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
    मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 10 ॥
    सबका मालिक एक - Sabka Malik Ek

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    Re: Kavir Dohawali
    « Reply #1 on: October 19, 2007, 09:39:20 AM »
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  • जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
    जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥ 11 ॥



    धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
    माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 12 ॥



    कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
    हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥ 13 ॥



    पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
    एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥ 14 ॥



    कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
    जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥ 15 ॥



    शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।
    तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ 16 ॥



    माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
    आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ 17 ॥



    माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
    एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥ 18 ॥



    रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
    हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥



    नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग ।
    और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥

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    Re: Kavir Dohawali
    « Reply #2 on: October 19, 2007, 09:39:40 AM »
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  • जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल ।
    तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥



    दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार ।
    तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 22 ॥

    आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
    एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥



    काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
    पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥



    माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
    माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥



    जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
    कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥



    माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
    भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥



    आया था किस काम को, तु सोया चादर तान ।
    सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥



    क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह ।
    साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥



    गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच ।
    हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30 ॥

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    Re: Kavir Dohawali
    « Reply #3 on: October 19, 2007, 09:39:56 AM »
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  • दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय ।
    बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥ 31 ॥



    दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर ।
    अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥ 32 ॥



    दस द्वारे का पिंजरा, तामे पंछी का कौन ।
    रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन ॥ 33 ॥



    ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय ।
    औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥ 34 ॥



    हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट ।
    बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥



    कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार ।
    साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥



    जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
    यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥



    मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय ।
    मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 38 ॥



    सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप ।
    यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥ 39 ॥



    अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ ।
    मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥

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    Re: Kavir Dohawali
    « Reply #4 on: October 19, 2007, 09:40:23 AM »
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  • बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ ।
    नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 41 ॥



    अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट ।
    चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥



    कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय ।
    ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥ 43 ॥



    पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप ।
    पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥

    बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार ।
    एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥



    हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध ।
    हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ॥ 46 ॥



    राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस ।
    रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश ॥ 47 ॥



    जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच ।
    वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥ 48 ॥



    तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार ।
    सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥ 49 ॥



    सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन ।
    प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥
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    Re: Kavir Dohawali
    « Reply #5 on: October 19, 2007, 09:40:45 AM »
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  • समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय ।
    मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥

    हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय ।
    जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥



    कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय ।
    एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥



    वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल ।
    बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥



    कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय ।
    चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥



    कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।
    भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥



    जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय ।
    सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥



    साधु ऐसा चहिए ,जैसा सूप सुभाय ।
    सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥



    लगी लग्न छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय ।
    मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥ 59 ॥



    भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय ।
    कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥
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    Re: Kavir Dohawali
    « Reply #6 on: October 19, 2007, 09:41:05 AM »
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  • घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
    बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 61 ॥



    अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।
    जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥



    मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार ।
    तुम दाता दु:ख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥ 63 ॥



    प्रेम न बड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
    राजा-प्रजा जोहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥



    प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।
    लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥



    सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग ।
    कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 66 ॥



    सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल ।
    बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥



    छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।
    हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥



    ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
    तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥



    जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि ।
    परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥
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    Re: Kavir Dohawali
    « Reply #7 on: October 19, 2007, 09:41:27 AM »
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  • जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश ।
    मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥ 71 ॥



    नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय ।
    कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥



    आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद ।
    नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥ 73 ॥



    जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।
    नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥ 74 ॥



    जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम ।
    माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥ 75 ॥



    दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी ।
    कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥ 76 ॥



    बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात ।
    अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥ 77 ॥



    जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
    कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥ 78 ॥



    फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त ।
    जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥ 79 ॥



    दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद ।
    ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द ॥ 80 ॥

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    Re: Kavir Dohawali
    « Reply #8 on: October 19, 2007, 09:42:20 AM »
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  • दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय ।
    सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ॥ 81 ॥



    जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय ।
    प्रेम गली अति साँकरी, ता मे दो न समाय ॥ 82 ॥



    छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय ।
    अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥ 83 ॥



    जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम ।
    दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥ 84 ॥



    कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय ।
    टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥



    ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय ।
    नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय ॥ 86 ॥



    सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय ।
    जौसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय ॥ 87 ॥



    संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक ।
    कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक ॥ 88 ॥

    मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष ।
    यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष ॥ 89 ॥



    जब ही नाम ह्रदय धरयो, भयो पाप का नाश ।
    मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास ॥ 90 ॥



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    Re: Kavir Dohawali
    « Reply #9 on: October 19, 2007, 09:43:05 AM »
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  • काया काठी काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।
    काया वैध ईश बस, मर्म न काहू पाय ॥ 91 ॥



    सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह ।
    शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह ॥ 92 ॥



    बाहर क्या दिखलाए, अनन्तर जपिए राम ।
    कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 93 ॥



    फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम ।
    कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम ॥ 94 ॥



    तेरा साँई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास ।
    कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढ़ूँढ़त घास ॥ 95 ॥



    कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव ।
    कहत कबीरा या जगत में नाहि और उपाव ॥ 96 ॥



    कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा ।
    कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा ॥ 97 ॥



    तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय ।
    कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुं गगन समाय ॥ 98 ॥



    जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय ।
    मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय ॥ 99 ॥

    कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय ।
    सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय ॥ 100 ॥
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    Offline v2birit

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    • जय जय रघुवीर समर्थ
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    Re: Kabir Dohawali
    « Reply #10 on: October 19, 2007, 10:20:32 AM »
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  • Sai baba himself was Kabir in his previous incarnation. He himself told this to one of his devotee.

    Om Sai Ram

     


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