जय सांई राम।।।
न मैं टकसाल का हूं और न आसमान का
मौलाना रूमी की मसनवी से
' ऐ मुसलमानो! मैं क्या करूं? मैं तो अपने आप को ही नहीं पहचान पा रहा हूं। मैं न ईसाई हूं, न यहूदी, न गबर हूं और न मुसलमान। मैं न पूरब का हूं, न पश्चिम का, न जमीन का और न ही सागर का। मैं प्रकृति की टकसाल का भी नहीं हूं और न अपने आप में सबको लपेट लेने वाले आसमान का। न मैं पृथ्वी का हूं, न जल का, न पवन का, न पावक का। मैं न तेजोलोक का हूं और न मिट्टी का, न अस्तित्व का और न सत्ता का।
मैं न भारतवर्ष का हूं न चीन का, न बल्गेरिया का और न सक्सीन देश का। न मैं इसकैन साम्राज्य का हूं और न खुरासान देश का। मैं न इस जगत का हूं और न उस जगत का। मैं न स्वर्ग का हूं, न नर्क का। न यहाँ मेरा शरीर ही है न आत्मा ही, क्योंकि मैं प्रियतम की आत्मा का हूं। मैंने गुणों को दूर हटा दिया है, क्योंकि मैं जानता हूं कि दोनों जगत एक ही हैं। मैं उसी एक को खोजता हूं, उसी एक को जानता हूं, उसी को देखता हूं, उसी को पुकारता हूं। वह आदि है, वह अन्त है। वह वहम है, वह अन्तर है।'
एक दूसरी कविता में रूमी अपना परिचय देते हुए बतलाते हैं:
' ऐ मुसलमानो! इस दुनिया में अगर कोई प्रेमी है तो वह मैं हूं। अगर कोई ईमान लाने वाला है अथवा काफिर है, अथवा ईसाई संत है तो वह मैं हूं। शराब की तलछट, साकी, गायक, वीणा, संगीत, माशूक, शमा, शराब और मदिरा की मस्ती, सब कुछ मैं ही हूं। संसार के बहत्तर धर्म और संप्रदाय, वास्तव में सभी एक ही हैं। मैं उस परम पिता परमात्मा की कसम खा कर कहता हूं कि प्रत्येक धर्म और प्रत्येक सम्प्रदाय मैं हूं।
पृथ्वी, हवा, जल और अग्नि- तुम जानते हो ये क्या हैं? पृथ्वी, हवा, जल और अग्नि ही नहीं, बल्कि शरीर और आत्मा भी मैं हूँ। सत्य-असत्य, भला-बुरा, आराम और तकलीफ, शुरू से आखिर तक मैं ही हूं। मैं ही ज्ञान, विद्या, फकीरी, पुण्य और ईमान हूं। तुम निश्चय जान लो कि लपटों सहित नरकाग्नि और हाँ, स्वर्ग का नन्दनकानन तथा जन्नत की हूरें मैं ही हूं। इस पृथ्वी और आसमान में जितना कुछ भी है- देवदूत, परी, जिन्न, पिशाच और मनुष्य मैं ही हूं।'
प्रियतम का पाना कब और कैसे सम्भव हो सकता है, इसका एक अति सुन्दर वर्णन जलालुद्दीन रूमी ने अपनी मसनवी में दिया है:
' प्रियतम के दरवाजे को किसी ने बाहर से खटखटाया। भीतर से आवाज आई, कौन है? उसने जवाब दिया, मैं हूं! भीतर से आवाज आई, इस घर में तेरे और मेरे, दो के लिए स्थान नहीं है। प्रेमी चला गया। उसने एकान्त सेवन किया, उपवास किया, प्रार्थना में डूब गया। वर्ष भर के बाद वह फिर लौटा। उसने पुन: दरवाजा खटखटाया। आवाज आई, कौन है? प्रेमी ने उत्तर दिया, तू है।
और तब दरवाजा खुल गया। जब तक आदमी इस 'मैं' और 'तू' के बन्धन से अपने को मुक्त नहीं करता, तब तक प्रियतम को पाना संभव नहीं है। प्रेम की गली बहुत संकरी है। इसमें से एक साथ दो लोग जा नहीं सकते। जब तक अहं बना हुआ है, तब तक उसका पाना कठिन है, नामुमकिन है। जब वह मिल जाता है, तब फिर अहं नहीं रह जाता।'
रूमी फारस (ईरान) के सबसे महान अध्यात्मवादी कवि थे। उनकी मनसवी को फारसी भाषा की कुरान कहते हैं। मौलाना जलाल-उल-दीन रूमी ऊर्फ मुहम्मद अल-बल्खी अर-रूमी का जन्म 30 सितम्बर सन् 1207 ई. को बल्ख (अब अफगानिस्तानी इलाका) में हुआ था। वह एकेश्वरवादी थे और 'ब्रह्मा सत्य जगत मिथ्या' के सिद्धांत में विश्वास करते थे। वह कवि से बड़े साधक थे और उनकी मसनवियों में इस्लाम की रहस्यवादी विचारधारा के भिन्न-भिन्न पहलुओं पर गहन विचार गया गया है।
ॐ सांई राम।।।