जय सांई राम।।।
विशुद्ध मन ही वासुदेव है......सत्संग : श्री रमेश भाई ओझा
ध्यान से सुनो और इसे जीवन में याद रखना, सत्संग पुरुषार्थ का फल नहीं, बल्कि वह भगवत कृपा से मिलता है। यत्न से नहीं, अनुग्रह से प्राप्त होता है। इंसान प्लान तो बहुत कुछ करता है, लेकिन होता है वही जो ईश्वर की इच्छा होती है। आप ही वृंदावन क्यों आए, आने का कार्यक्रम तो अन्य लोगों ने भी बनाया था।
तुलसीदास जी कहते हैं कि 'बिनु सत्-संग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।' हृदय की भूमि उपजाऊ है, ऊसर भूमि नहीं और ऐसी उपजाऊ भूमि पर भगवान की वृष्टि की कृपा के कारण सत्संग मिलता है। सत्संग ईश्वर प्राप्ति की प्राथमिक पाठशाला है। भगवान की कृपा के कारण ही तो सत्संग में आए हैं आप सब लोग।
एक युवक ने सवाल किया भाई जी! चरित्र निर्माण कैसे करें? भाई जी बोले, पहले क्रिया के बारे में सुनो- यह जीवन भगवान का अंश है। भगवान सत्, चित्त और आनंद स्वरूप हैं। सत् के अंश में क्रिया होती है, चित्त के अंश में ज्ञान होता है और आनंद के अंश में भावना होती है। दूसरे शब्दों में सत् के अंश में कर्म, चित्त के अंश में विवेक और आनंद के अंश में भक्ति होती है। क्रिया कैसे होगी? जैसे विचार होंगे। विचार कैसे होंगे? जैसी भावना होगी।
श्रद्धालु ध्यान से सुन रहे हैं। इसी बीच सत्संग के पंडाल में गुरु गुरुशरणानंद जी, चिदानन्द सरस्वती जी और ब्रह्माचारी जी पधारते हैं। प्रवचन सुन रहे श्रद्धालु संतों को प्रणाम करते हैं। संत एक दूसरे को जयश्रीकृष्ण कर अपने-अपने स्थान पर बैठ जाते हैं। दो मिनट का संकीर्तन होता है 'बांके बिहारी, हम हैं शरण तुम्हारी।'
बात आगे बढ़ती है... और अंतत: भाव से ही विचारों की शुद्धि होती है। विचारों की शुद्धि से क्रिया भी शुद्ध होती है। इस प्रकार क्रिया, विचार और भावना की शुद्धि से चरित्र शुद्ध होता है। जीवन में जितनी आवश्यकता बुद्धि की है, उससे भी ज्यादा जरूरी शुद्धि है। इसके लिए संतों से सत्संग, कथा श्रवण, सद्शास्त्रों का पठन, चिंतन आदि जरूरी है। व्यक्ति जो देखता है, सुनता है, उससे उसकी भावना, विचार, क्रिया आदि सब प्रभावित होते हैं। सत्संग, साधु-संगति से स्वार्थ भाव छोड़ व्यक्ति परमार्थ परायण बनता है।
भाई जी वहां बैठे संतों की ओर देखते हैं... वो भी समर्थन में गर्दन हिलाते हैं। भाई जी वहां बैठे संतों से बातचीत करने के लिए उठकर अलग जाना चाहते हैं। इसी बीच एक श्रद्धालु पूछ बैठता है, भगवान को प्राप्त करने का मार्ग तो सुझाएं!
भगवान अप्राप्त है ही कहां। वो तो हर समय और हर जगह है। जीव, जड़, चेतन, यह सकल जगत परमात्मा का स्वरूप नहीं तो और क्या है? प्राप्ति के लिए केवल करना यह है कि उसे देखने की क्षमता विकसित करनी है। मन को परमात्मा में लगाना है, लेकिन मन तो बहुत चंचल है। वायु का निग्रह जिस प्रकार कठिन है, मन को वश में करना उसी प्रकार बहुत कठिन है। उस पर जितना काबू पाने की कोशिश करो, वह और भागता है। अत: कुछ और चिंतन करना पड़ेगा।
मेरा अनुभव कहता है कि मन वहीं लगता है जहां उसे रस मिलता है। जिससे रस मिलता है, तृप्ति का अनुभव होता है, उसमें मन सदा लुभाया रहता है, जिस प्रकार कमल में भ्रमर। भगवान में जब प्रेम हो जाएगा तब मन भगवान में ही लगा रहेगा। जब तक मन का राग संसार में है, तब तक मन का मैल मिटेगा नहीं। जब तक मन का मैल नहीं मिटेगा, मन की चंचलता नहीं मिटेगी।
विशुद्ध मन ही वासुदेव है। मन से रजोगुण और तमोगुण मिट जाए और मन सत्व से पूर्ण हो जाए तो मन की स्थिरता स्वाभाविक हो जाती है। रजोगुण से चंचलता और तमोगुण से जड़ता आती है, जो कि भजन में बाधक है। भोर में ब्रह्मा-मुहूर्त में मन पर सत्वगुण का प्रभाव रहता है, इसलिए उस समय को संतों ने भजन के लिए श्रेष्ठ माना है।
ॐ सांई राम।।।