जय सांई राम
लोक सुधरने पर ही परलोक की बात अच्छी लगती है
जिसका सांसारिक जीवन सुखी और शांतिपूर्ण नहीं है, उसका परलोक कभी आनंद और शांति से भरा नहीं हो सकता। इंसान की सांसारिक जिंदगी कैसे खुशनुमा बने, इसके लिए अथर्ववेद में बहुत बढ़िया बात कही गई है। उसके एक मंत्र में कहा गया है कि मेहनत करने के बाद जो चीज हिस्से में आए उसे ही अमृत समझना चाहिए। मतलब चतुराई या बेईमानी से दूसरे के हिस्से को कभी न हासिल करो। सांसारिक जीवन को सुखी बनाने का पहला फॉर्मूला और सीढ़ी यही है। जो इस फॉर्मूले (सूत्र) पर अमल करता है, वही जिंदगी में सुख की सीढ़ी चढ़ता है।
हमारी जिंदगी की खुशियाँ हर तरह से महफूज रहें, इसकी इच्छा तो हम सब हमेशा करते हैं, लेकिन उन सावधानियों पर अमल करना नहीं चाहते जिनसे परेशानियाँ उन सुखों पर झपट्टा न मारें। हम दूसरे का हिस्सा जबरन लेकर, किसी का शोषण कर या बगैर मेहनत किए सुखी होना चाहते हैं। यह कैसी विडंबना है। ऐसा सुख किस काम का, जिससे दूसरे की परेशानी बढ़े।
दूसरी बात जो लोक सुधारने की है, वह है सबके हित के लिए अपने छोटे हित को छोड़ देना। महाराज भर्तृहरि ने ऐसे विचार व कार्य को ही धर्म माना है। इस पर जो अमल करता है, वही सही मायने में पंडित, देव, संत या ऋषि है। ऐसे लोग और उनका कर्म ही इस धरती को स्वर्ग बनाता है। तीसरी बात जो हमारे दोनों लोक सुधारने के लिए महत्वपूर्ण है, वह है हमारा आहार-विहार और आचार। इन तीनों को बढि़या होना चाहिए। पहला सुख निरोगी काया और दूसरा सुख घर में हो माया। सेहत अच्छी तभी हो सकती है जब हमारी वृत्ति (व्यवहार व आदत) अच्छी होगी। शास्त्र में कहा गया है कि हमारे कार्य शुभ होंगे तो सेहत भी बढ़िया होगी। इसीलिए वेदों में धर्म के साथ धन कमाने की सलाह दी गई है। धर्म का मतलब सृष्टि के नियमों का पालन। धर्म मतलब ऐसा कर्म जो सब के लिए शुभकारी हो। इंसान यदि धर्म से चले, कुदरत के हिसाब से चले तो दुनिया में हिंसा, अन्याय, असत्य (झूठ) नफरत और दुख (अशांति) हो नहीं सकते। इसलिए इस लोक में सुख-शांति का पहला सूत्र है मर्यादा की रक्षा, कर्तव्य का पालन, सीमा की प्रतिष्ठा, चरित्र का निर्माण। यही फॉर्मूला परलोक सुधारने के लिए भी है।
लोक सुधार के लिए महत्वपूर्ण है सत्यव्रत का पालन। अपनी क्षमता, योग्यता, ऊर्जा और विश्वास पर लगातार चलते रहना। हर उस कर्म को करना और ज्ञान को बढ़ाना जिससे अपना भी भला हो और समाज का भी भला होता चले। सैकड़ों साल पहले इन बातों पर ऋषि-मुनियों ने विशेष जोर दिया था। उन सबने लोकहित को ही सबसे बड़ा धर्म-कर्म माना था।
लोकहित और लोक सुधार में ही अपना भी हित और सुधार है। सब की उन्नति में ही अपनी उन्नति समझनी चाहिए। सब की उन्नति में अपनी-अपनी उन्नति का विचार इंसान की हर पहल के लिए फायदेमंद है। आधुनिक विज्ञान भी यह मानने लगा है कि परोपकार करते वक्त मन और हृदय में जो शांति और सहजता का भाव बनता है, उससे सेहत अच्छी बनती है, उम्र बढ़ती है। और अनेक मानसिक ग्रंथियां उससे खत्म हो जाती हैं।
सांसारिक जीवन सुखी और संतोषजनक होने पर ही इंसान को ईश्वर, मुक्ति, स्वर्ग और परमधाम की बातें करनी चाहिए। यदि इंसान भूखा, नंगा, अभावग्रस्त, परेशान, फटेहाल, बीमार, दुखी, अशांत और भयभीत होगा तो वह किसी भी तरीके से अपना परलोक नहीं सुधार सकता। सांसारिक अभाव होते हुए पारलौकिक भाव मिल ही नहीं सकता। इसलिए वैदिक जीवन शैली में ब्रह्मचर्य और गृहस्थ (सांसारिक जीवन) के बाद ही वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम बनाए गए हैं। यानी गृहस्थी सुधारने-संवारने के बाद ही परलोक सुधारने की इच्छा या उपाय करनी चाहिए। जो लोग बिना सांसारिक जीवन सुधारे डायरेक्ट परलोक सुधारने जाते हैं, वे जल्दी ही अपने रास्ते से भटक जाते हैं।
ॐ सांई राम।।।