जय सांई राम।।।
मन को मुक्त करने वाले कर्म करें
कभी सोचा ईश्वर जीव से क्या चाहते हैं? वे जीव से चाहते हैं कि बस तू मेरा हो जा। भक्त, दुश्मन, प्रेमी, सखा, भाई, शिष्य- जो रिश्ता तू रखना चाहे, रख, लेकिन तू मेरा हो जा। कहने का तात्पर्य यह है कि आपका हर कर्म भगवान से जुड़ा हुआ होना चाहिए। संसार में जो भी करो, भगवान से ही युक्त होकर करो।
हमारा कर्म ऐसा यज्ञ कब बनेगा? इसके लिए तीन बातें ध्यान में रखनी पड़ेंगी। इन तीनों को यदि आचरण में लाते हैं, तो हमारा प्रत्येक कर्म यज्ञ बन जाएगा। पहली बात है तदर्थ कर्म। तदर्थ कर्म का अर्थ है भगवान के निमित्त कर्म। इसका मतलब यह हुआ कि जो भी कर्म तुम करने जा रहे हो, उससे पहले जरा सोचो कि क्या मेरा यह कर्म भगवान को प्रसन्न करने वाला है? इस कर्म से भगवान प्रसन्न होंगे- ऐसी श्रद्धा जब मन में जगे, तब ही वह कर्म करो, वरना मत करो।
जब तुम पूजा में बैठते हो या यज्ञ में बैठते हो तब तुम्हारे हाथ में पंडित जी जल, अक्षत, फूल रखते हैं, फिर संकल्प कराया जाता है। आरंभ में ही पंडित जी तीन बार भगवान के नाम का उच्चारण करते हैं। तीन बार भगवान के नाम का उच्चारण क्यों करते हैं? वह इसलिए कि पूजा अथवा यज्ञ करने जा रहे हो, उससे पहले ईश्वर को याद करके उनके लिए कर्म करो। जो भी कर्म अपने हाथ से हम करना प्रारंभ करेंगे, उसमें 'ईश्वर के लिए मेरा यह संकल्प है' ऐसी इच्छा मन में जगनी चाहिए।
तुम यह क्यों भूलते हो कि यह सृष्टि भी भगवान का एक यज्ञ है। उसका आरंभ भगवान के संकल्प से हुआ है। कौन सा संकल्प? मैं एक हूं, मैं अनेक हो जाऊँ। संकल्प जितना श्रेष्ठ होगा, कर्म उतना ही श्रेष्ठ होगा। यदि संकल्प मलिन है, तो कर्म भी मलिन होगा और वह मलिन कर्म पतन की ओर ले जाएगा। यह संकल्प कहां से उठता है? और यह करने वाला कौन है? कहते हैं संकल्प मन से उठता है। फिर सवाल उठता है कि संकल्प कैसा है? उत्तम है? श्रेष्ठ है? या बुरा संकल्प है? इसका आधार तुम्हारा मन है।
इसलिए मन शुद्ध होना चाहिए। अब मजे की बात तो यह है कि सत्कर्म करते करते ही मन शुद्ध होता है। यदि मन में मलिनता है, तो संकल्प भी मलिन होगा। मन में मलिन संकल्प जागेगा तो इस संकल्प को पूर्ण करने के लिए दिमाग लगाना पड़ेगा और वह दिमाग गलत रास्ते पर जाता है। उसके अनुसार तुम कर्म करते हो, तो तुम्हारा कर्म भी मलिन हो जाएगा। फिर वह कर्म, यज्ञ नहीं होगा। वह तुम्हें पतन की ओर ले जाएगा, तुम्हें दुखी करेगा। इसलिए कर्म करने में ज्यादा महत्वपूर्ण हिस्सा मन का है। इसलिए शास्त्रों में भी कहा गया है कि बंधन और मुक्ति का मुख्य कारण मन है।
तुम्हारा मन ही तुम्हें मुक्त करता है। मन ही तुम्हें बंधन में बांधता है। इसलिए शास्त्र के बताए मार्ग पर चलना ही शास्त्रोक्त कर्म है। तुम पूजा करो, नित्य पाठ करो, माला जपो, स्वाध्याय करो- ये शास्त्र विहित कर्म हैं। मनुष्य के लिए शास्त्र विहित पांच प्रकार के यज्ञ हैं, जिन्हें पंचयज्ञ कहते हैं। इनके अतिरिक्त जो कर्म हैं, वही तुम्हें बांधेंगे। पंचयज्ञ में प्रथम है ब्रह्मयज्ञ, दूसरा है देवयज्ञ, तीसरा है मनुष्य यज्ञ, चौथा है पितृयज्ञ और पांचवां है भूतयज्ञ। नित्य ये पांचों यज्ञ करना प्रत्येक गृहस्थ का कर्तव्य है।
अब कर्म के भी तीन प्रकार हैं। एक है नित्यकर्म, दूसरा है नैमित्तिक कर्म, तीसरा है निषेध कर्म। जो कर्तव्य कर्म है, वह करना चाहिए। जो निषेध कर्म है, वह नहीं करना चाहिए। इन कर्मों से बचना चाहिए। निषेध कर्म करोगे, तो दोष लगेगा। नहीं करोगे तो दोष से बच जाओगे। तो फिर कर्तव्य कर्म क्या है? जिसको न करने से दोष लगता है, करोगे तो बहुत बड़ा पुण्य होने वाला हो- यह बात नहीं है, लेकिन नहीं करोगे तो पाप जरूर लगेगा। इसको नहीं करने से पाप लगता है और करने से पुण्य नहीं होता है, ऐसा क्यों? क्योंकि यह तो तुम्हारा कर्तव्य ही है। जैसे मां-बाप की सेवा करना कर्तव्य है। तुम नहीं करोगे तो तुम्हें पाप लगेगा, करते हो तो तुम्हारा फर्ज ही है।
ॐ सांई राम।।।“