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Author Topic: आज का चिन्तन  (Read 168974 times)

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Offline Ramesh Ramnani

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Re: आज का चिन्तन
« Reply #105 on: November 12, 2007, 07:55:56 AM »
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  • जय सांई राम।।।

    रात सदैव रात ही होती है, उसका शुभ और अशुभ होना इस पर निर्भर करता है कि हम दिन भर में कैसे काम करते हैं....

    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    ॐ सांई राम।।।
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #106 on: December 01, 2007, 11:51:49 PM »
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  • जय सांई राम।।।

    इस संसार में कुछ प्राणियों के किसी विशेष अंग में विष होता है - जैसे सर्प के दांतों में, मक्खी के मस्तिष्क में, और बिच्छू की पूँछ में - पर इन सबसे अलग दुर्जन और कपटी मनुष्य के हर अंग में विष होता है!  उसके मन में विद्वेष, वाणी में कटुता और कर्म में नीचता का व्यवहार जहर...बुझे तीर की तरह दूसरे को त्रास देते हैं!

    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    ॐ सांई राम।।।
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #107 on: December 03, 2007, 02:10:45 AM »
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  • ॐ सांई राम~~~

    प्रार्थना बुद्धि का नहीं हृदय का विषय है~~~

    ध्यान की गहन भाव दशा में उतर कर जब मनुष्य प्रभु की भक्ति में डूब जाता है तो उसे प्रार्थना नहीं करनी पडती। क्योंकि उसका अस्तित्व ही प्रार्थना का रूप हो जाता है। यानी प्रार्थना बुद्धि का नहीं हृदय का विषय है।

    जब मनुष्य ध्यान में होता है तो उस समय उसके प्राण में स्वत:ही प्रार्थना गूंजती है। उसके रोम-रोम से प्रार्थना मधुर संगीत के रूप में खुद उठने लगती है, जिससे उसका अस्तित्व ही प्रार्थना का रूप हो जाता है और भक्त के मन में भगवान की भक्ति का भाव ही होता है। उसके मन में प्रभु से मिलन के अलावा कोई और भाव नहीं होता है।ध्यान में उतरकर भक्त पर जब प्रभु की दृष्टि पड जाती है तो उसका जीवन धन्य और सफल हो जाता है।

    ध्यान मौन प्रार्थना है | प्रार्थना मन-बुद्धि का विषय नहीं है, वह तो हृदय का विषय है। सच्ची प्रार्थना तो हृदय में उतरी हुई एक मधुर भाव दशा है, जहां कोई भाषा व्याकरण और शब्दों का जाल नहीं चलता। परमात्मा हृदय में विराजमान हैं और वह केवल हृदय की भाषा ही जानते हैं। ध्यान के समय भक्त प्रभु से चाहे कितना दूर हो, वह सदा उनके उन्मुख रहता है। प्रभु की ओर अनुगृहीत भाव से उन्मुख रहना ही भाव पूर्ण प्रार्थना है और भाव पूर्ण प्रार्थना ही प्रभु को स्वीकार्य है। जो प्रार्थना भाव के माधुर्य से हो, वही परमात्मा के द्वार पर दस्तक दे सकती है।

    ध्यान विचार दशा से भाव दशा में उतरना है, भाव विचार नहीं है। विचार तो मन के तल से उठते हैं, हृदय से नहीं। विचारों का आदान-प्रदान हो सकता है, परन्तु भाव स्वयं के अनुभव व अनुभूति का विषय है क्योंकि भाव भीतरी एहसास है।
     
    जय सांई राम~~~
    "लोका समस्ता सुखिनो भवन्तुः
    ॐ शन्तिः शन्तिः शन्तिः"

    " Loka Samasta Sukino Bhavantu
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    May all the worlds be happy. May all the beings be happy.
    May none suffer from grief or sorrow. May peace be to all~~~

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #108 on: December 04, 2007, 12:18:57 AM »
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  • जय सांई राम़।।।

    अस्तित्त्व की खोज

    जल की एक बूँद किसी प्रकार समुद्र के अथाह जल के पास पहुँची ओर उसमें घुलने लगी तो बूँद ने संमुद्र से कहा – “मुझे अपने अस्तित्त्व को समाप्त करना मेरे लिये सम्भव नही होगा।  मै अपनी सत्ता खोना नही चाहती।”

    संमुद्र ने बूँद को समझाया - “तुम्हारी जैसी असंख्य बूँदों का समन्वय मात्र ही से मैं हूँ। तुम अपने भाई बहनों के साथ ही तो घुल मिल रही हो। उसमें तुम्हारी सत्ता कम कहाँ हुई,  वह तो और व्यापक हो गई है।”

    बूँद को संमु्द्र की बात पर संतोष नही हुआ और वह अपनी पृथक सत्ता की बात करती रही,  और वार्त्ता के दौरान ही वह सूर्य की प्रचंड गर्मी के कारण वह वाष्प बन गई और कुछ देर बाद पुन: बारिस की बूँद के रूप में संमुद्र के दरवाजें पर पहुँची।  उसे अपनी ओर आता देख समुद्र ने कहॉं कि- “बच्ची अपनी पृथक सत्ता बनाऐ रहकर भी तुम अपने स्वतंत्र अस्तित्व की रक्षा कहाँ कर सकीं?  अपने उद्गम को समझो,  तुम समष्टि से उत्पन्न हुई थीं और उसी की गोद में ही तुम्हें चैन मिलेगा।“
         
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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #109 on: December 05, 2007, 06:35:13 AM »
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  • ॐ सांई राम~~~

    यूँ तो हर पत्ता देता है ञान,
    अगर तू ध्यान दे,

    वरन चारों वेद तू पढ़ ले,
    नहीं तेरे किसी काम ~~~

    जय सांई राम~~~
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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #110 on: December 06, 2007, 04:45:21 AM »
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  • ॐ सांई राम~~~

    जुबां ही दिल जोङती है,
    जुबां ही दिल तोङती है,
    जुबां ही दिल दुखाती है,
    जुबां ही दिल सहलाती है,
    यही जुबां ही तलवार है,
    तो यही जुबां ही धार है,
    जुबां ही आँसू गिरवाए,
    ये चाहे तो मुस्कान बिखराए,
    जुबां की सारी कारिस्तानी,
    चाहे तो दोस्त बनवाए
    चाहे तो दुश्मनी करवाए,
    जुबां मिली है मीठा बोलिए
    न कि किसी हा दिल तोङिए!!!

    जय सांई राम~~~
           
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    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #111 on: December 09, 2007, 06:56:50 AM »
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  • जय सांई राम।।।

    १.इस संसार की तुलना एक कड़वे वृक्ष से की जाती है जिस पर पर अमृत के समान दो फल भी लगेते हैं-मधुर वचन और सद्पुरुषों की संगति. ये दोनों अत्यंत गुणकारी होते हैं. इन्हें खाकर आदमी अपने जीवन को सुखद बना सकता है. अत हर मनुष्य को मधुर वचन और सत्संग का फल ग्रहण करना चाहिए...

    2.जिसके कार्य में स्थिरता नहीं है, वह समाज में सुख नहीं पाता न ही उसे जंगल में सुख मिलता है. समाज के बीच वह परेशान रहता है और किसी का साथ पाने के लिए तरस जाता है....

    3.गंदे पड़ोस में रहना, नीच कुल की सेवा, खराब भोजन करना, और मूर्ख पुत्र बिना आग के ही जला देते हैं....

    4.कांसे का बर्तन राख से, तांबे का बर्तन इमले से, स्त्री रजस्वला कृत्य से और नदी पानी की तेज धारा से पवित्र होती है....

    5.मनुष्य में अंधापन कई प्रकार का होता है. एक तो जन्म के अंधे होते हैं और आंखों से बिलकुल नहीं देख पाते और कुछ आँख के रहते हुए भी हो जाते हैं जिनकी अक्ल को कुछ सूझता नहीं है....

    6.काम वासना के अंधे के कुछ नहीं सूझता और मदौन्मत को भी कुछ नहीं सूझता. लोभी भी अपने दोष के कारण वस्तु में दोष नहीं देख पाता. कामांध और मदांध इसी श्रेणी में आते हैं....

    7.कुछ लोगों की प्रवृतियों को ध्यान में रखते हुए उनको वश में किया जा सकता है, और उनको वश में किया जा सकता है, लोभी को धन से, अहंकारी को हाथ जोड़कर, मूर्ख को मनमानी करने देने से और सत्य बोलकर विद्वान को खुश किया जा सकता है....

    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

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    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #112 on: December 10, 2007, 08:44:48 AM »
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  • जय सांई राम़।।।

    तृष्णा ही है हमारे दुखों की गंगोत्री
     
    सभी व्यक्तियों के जीवन में वह समय भी आता है,  जब शरीर जर्जर और बूढ़ा हो जाता है। इन्द्रियों की शक्ति क्षीण हो जाती है। दैनिक जीवन के कामकाज के लिए भी उसे औरों पर निर्भर रहना पड़ता है। परंतु कमबख्त तृष्णा है कि इसका कुछ नहीं बिगड़ता। तृष्णा सदैव जवान रहती है - बुढ़ापे का उदास साया उसकी ओर आंख उठाकर भी नहीं देखता।

    मनुष्य की आकांक्षाएं व इच्छाएं ऐसी लंबी नदी सरीखी हैं,  जिसके ओर-छोर का कोई पता नहीं लग पाता। अपने मन मुताबिक वातावरण को ढालने,  घर-परिवार,  बाल-बच्चों के लिए चीजें एकत्र करने तथा संसार के सुखों का भोग करने की लालसा कभी मंद नहीं पड़ती। और इसी बीच कभी अंतिम बुलावा आ जाता है। किसी लोक कवि ने लिखा है-   

    मात कहे मेरा हुआ बडेरा
    काल कहे मैं आया री!

    अर्थात, माता अपने बच्चे को बड़ा होता हुआ देखकर खुश होती रहती है, उधर मृत्यु कहती है कि मैं निकट आ रही हूं।

    तृष्णा का स्वभाव है कि जैसे-जैसे मनुष्य की कामनाएं पूर्ण होती जाती हैं, वैसे-वैसे तृष्णा की लपटें और धधकती जाती हैं। उसे किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता। शुरू में बहुत से लोग कहते हैं कि मेरे पास इतना हो जाए तो बस। लेकिन उसकी पूर्ति होते ही तृष्णा की धार फिर आगे की ओर बह निकलती है। इसी प्रकार आगे और आगे बढ़ते-बढ़ते जीवन की इहलीला समाप्त हो जाती है,  किन्तु तृष्णा तुष्ट नहीं होती।

    सुकरात कहते थे - तृष्णा संतोष की बैरन है। वह जहां पांव जमाती है, संतोष को भगा देती है।

    तृष्णा जैसा साथी ढूंढने पर भी नहीं मिलेगा। संगी-साथी,  घर परिवार,  पद-प्रतिष्ठा,  लोकसंग्रह,  स्वास्थ्य,  धन आदि सभी परिस्थिति विशेष में छूट सकते हैं,  लेकिन तृष्णा ऐसी है कि वह छूटती नहीं।

    यह मन का पिंड ही नहीं छोड़ती। वह व्यक्ति के सिर पर ऐसे सवार हो जाती है कि सोते-जागते,  उठते-बैठते,  प्रत्येक काम करते उसको मथती रहती है। वह किसी ठौर पीछा नहीं छोड़ती - मोटर में,  गाड़ी में,  वायुयान में,  लिफ्ट में, दुकान में,  बाजार में,  वन में,  समारोह में हर जगह व्यक्ति के मन पर हावी रहती है।

    कभी किसी की संपूर्ण इच्छाएं पूरी नहीं हुईं। कितना ही धन मिल जाए,  कितना ही वैभव मिल जाए,  कितने ही भोग मिल जाएं,  यहां तक कि अनंत ब्रह्मांड भी मिल जाए,  तो भी इच्छाएं खत्म नहीं होंगी,  कुछ न कुछ लगी ही रहेगी।

    पर आवश्यकताएं पूरी नहीं होती हैं। किसी वस्तु विशेष की इच्छा या आसक्ति शेष नहीं रह जाए, तो वहां आवश्यकता खत्म हो जाती है, पूरी हो जाती है।

    रामचरित मानस में राम ने तृष्णा के संबंध में कहा है - संसार में जितने दुख हैं,  उन सब में तृष्णा ही सबसे अधिक दुखदायिनी है। जो कभी घर से बाहर नहीं निकलता,  उसे भी तृष्णा बड़े संकट में डाल देती है। आश्चर्य की बात है कि जो व्यक्ति घर-परिवार के झंझटों से मुक्त होने के लिए सब कुछ छोड़-छाड़कर जंगल या पर्वत पर या और कहीं चला जाता है, वहां भी तृष्णा जोंक की भांति उसके साथ चिपकी रहती है।

    भोग और तृष्णा मनुष्य के सब दुखों की जड़ है। शरीर के लिए आवश्यक वस्तुओं के भोग को तृष्णा नहीं कहते, जब वस्तुओं की लालसा बढ़ जाती है, वही तृष्णा है। यही मनुष्य में विषय-वासना उत्पन्न करती है, जो सभी अनर्थ की जड़ है। मन में जब तृष्णा का अंकुर फूटता है तब बहुत कुछ अच्छा लगता है,  परंतु अंत में वही तृष्णा उसे खा जाती है।

    मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि आजीवन कारावास के कैदियों के हृदय में भी तृष्णा तानाबाना बुनती रहती है। तृष्णा उन्हें भी नहीं छोड़ती। एकांतवासी भी तृष्णा के मोहपाश से बच नहीं सके हैं। तृष्णा इस आनंदपूर्ण एवं शांत जीवन को संशय,  क्रोध,  हताशा,  व्याकुलता और आपाधापी से भर देती है। 

    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    ॐ सांई राम।।।


    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #113 on: December 16, 2007, 08:00:53 AM »
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  • जय सांई राम।।।

    मन शुद्ध हो तो प्रतिमा में भी भगवान्

    शास्त्रों की संख्या अनन्त, ज्योतिष,आयुर्वेद तथा धनुर्वेद की विद्याओं की भी गणना भी नहीं की जा सकती है, इसके विपरीत मनुष्य का जीवन अल्प है और उस अल्पकाल के जीवन में रोग,शोक, कष्ट आदि अनेक प्रकार की बाधाएं उपस्थित होती रहती हैं। इस स्थिति में मनुष्य को शास्त्रों का सार ग्रहण करना चाहिए।

    विश्व में अनेक प्रकार के ग्रंथ हैं और सबको पढ़ना और उनका ज्ञान धारण करना संभव नहीं है इसलिए सार अपनी दिमाग में रखना चाहिए. अनेक पुस्तकों में कहानियां और उदाहरण दिए जाते हैं पर उनके सन्देश का सार बहुत संक्षिप्त होता है और उसे ही ध्यान में रखान चाहिऐ

    मन की शुद्ध भावना से यदि लकड़ी, पत्थर या किसी धातु से बनी मूर्ति की पूजा की जायेगी तो सब में व्याप्त परमात्मा वहां भी भक्त पर प्रसन्न होंगें। अगर भावना है तो जड़ वस्तु में भी भगवान का निवास होता है।

    सच्ची भावना से कोई भी कल्याणकारी काम किया जाये तो परमात्मा की कृपा से उसमें अवश्य सफलता मिलेगी। मनुष्य की भावना ही प्रतिमा को भगवान बनाती है। भावना का अभाव प्रतिमा को भी जड़ बना देता है।

    यह सच है की प्रतिमा में भगवान् का अस्तित्व नही दिखता पर इस उसमें उसके होने की अनुभूति हमारे मन होती है. आदमी का मन ही उसका मूल है इसलिए उसे मनुष्य कहा जाता है. जब किसी प्रतिमा के सामने बहुत श्रद्धा से प्रणाम करते हैं तो कुछ देर इस दुनिया से विरक्त हो जाते हैं और हमारा ध्यान थोडी देर के लिए पवित्र भाव को प्राप्त होता है. यह बहुत महत्वपूर्ण होता है. हाँ, इसके लिए हमें मन में शुद्ध भावना को स्थापित करना पडेगा तभी हम प्रसन्नता प्राप्त कर सकते हैं.

    इस क्षण-भंगुर संसार में धन-वैभव का आना-जाना सदैव लगा रहेगा। लक्ष्मी चंचल स्वभाव की है। घर-परिवार भी नश्वर है। बाल्यकाल, युवावस्था और बुढ़ापा भी आते हैं और चले जाते हैं। कोई भी मनुष्य उन्हें सदा ही उन्हें अपने बन्धन में नहीं बाँध सकता। इस अस्थिर संसार में केवल धर्म ही अपना है। धर्म का नियम ही शाश्वत है और उसकी रक्षा करना ही सच्चा कर्तव्य है।

    जिस प्रकार सोने की चार विधियों-घिसना, काटना, तपाना तथा पीटने-से जांच की जाती है, उसी प्रकार मनुष्य की श्रेष्ठता की जांच भी चार विधियों-त्यागवृति, शील, गुण तथा सतकर्मो से की जाती है।

    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #114 on: December 20, 2007, 11:26:38 PM »
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  • जय सांई राम।।।

    अज्ञान का महत्व
     
    ज्ञान अथाह है । इसकी कोई सीमा नहीं, इसका कोई दायरा नहीं। लेकिन हमारे सामाजिक जीवन में सिर्फ ज्ञान की निर्णायक भूमिका नहीं है, अज्ञान का भी एक खास रोल है। अगर ज्ञान सीमित होता और उसकी अनंत शाखाएं न होतीं तो शायद अज्ञान की भूमिका भी इतनी महत्वपूर्ण नहीं होती मगर सच यह है कि ज्यों-ज्यों ज्ञान विकसित हुआ है, अज्ञान ने जीवन के कार्यव्यापार पर उतना ही ज्यादा गहरा असर डालना शुरू किया है। एक डॉक्टर कपड़ा बुनना नहीं जानता। कपड़े के बारे में उसका यह अज्ञान टेक्सटाइल इंजीनियरिंग को महत्वपूर्ण बनाता है। और इसी तरह चिकित्सा संबंधी अज्ञान चिकित्सा पेशे को एक आधार देता है। अगर हर आदमी जीवन की छोटी-छोटी चीजों की जानकारी हासिल करने लगे तो शायद कई कारोबार ठप पड़ जाएंगे। कई बार हम सोचते हैं कि काश, हम अपने घर में बिजली की गड़बड़ी खुद ठीक कर लेते या गाड़ी खराब होने पर हमें मेकेनिक के पास नहीं जाना पड़ता, लेकिन हम भूल जाते हैं कि हमारा यही अज्ञान एक बड़े वर्ग को रोजी-रोटी उपलब्ध करा रहा है और एक तकनीक को आगे बढ़ना का मौका दे रहा है।

    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #115 on: December 25, 2007, 04:44:19 AM »
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  • जय सांई राम।।।

    खुद को छिपाते हुए

    हर आदमी की इच्छा होती है कि वह खुद को अभिव्यक्त करे। अपने मन की बात वह दूसरों को बताना चाहता है और दूसरों की बात सुनना भी चाहता है। लेकिन ऐसे लोग बहुतेरे हैं जो बोलते ज्यादा हैं और सुनते कम हैं। कई ऐसे भी हैं जो सिर्फ अपने बारे में बात करना पसंद करते हैं। ऐसा लगता है कि वे खुद को स्थापित कर रहे हैं या अपने को श्रेष्ठ साबित कर रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि जितना वे अपने को प्रकाशित कर रहे होते हैं, उससे कहीं ज्यादा अपने को छिपा रहे होते हैं। एक बड़बोला व्यक्ति अपने किसी एक गुण के बारे में बार-बार बताकर दरअसल अपने कई दुर्गुणों को छिपा रहा होता है। ऐसे लोग इस बात को लेकर सचेत रहते हैं कि कहीं उनकी कमियां उजागर न हो जाएं। वे डरे रहते हैं कि कोई उन्हें कमतर न आंक ले। बस वे अपने इर्द-गिर्द शब्दों का एक जाल बुन लेते हैं। वे शब्दाडंबर में सामने वाले को इस तरह बांध लेते हैं कि वह उनके दुर्गुणों को नहीं देख पाता। 

    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #116 on: December 27, 2007, 02:50:40 AM »
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  • जय सांई राम।।।

    क्यों नाराज़ होते हो
    ज़रा ये सोचो तो....
    क्या तुम गंवाते हो
    जब नाखुश होते हो...


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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #117 on: January 02, 2008, 12:07:27 AM »
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  • जय सांई राम।।।

    सुख की आपकी क्या परिभाषा हैं। क्या करने से आप सुखी हो जाते हैं और अगर नहीं हो पा रहे हैं तो क्या हो जाने से आप सुखी हो जाएंगे?

    मैं सुख के लिए तीन चीजें मैं जरूरी मानता हूं। एक, सही जीवनसाथी का मिलना। ऐसा साथी जो आपको समझ सके, जिसमें आप अपना विस्तार देख सकें, जिसके साथ लड़-झगड़कर आप बाहरी-भीतरी हकीकत को और बेहतर तरीके से समझ सकें। दो, कुछ दोस्त जिनकी संगत में आप बेफिक्र होकर खुल सकें, जिन पर आपको विश्वास हो कि वे आपसे छल नहीं करेंगे,  आपका मजाक नहीं बनाएंगे। तीसरी चीज है, लगातार आपकी रचनात्मकता का निखार और निकास। रचनात्मकता का निखार ज्ञान बढ़ने के साथ होता है। इसलिए सुख के लिए जिंदगी में लगातार अपनी ही सीमाओं को तोड़ना, नई-नई चीजें सीखते जाना अनिवार्य है।

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #118 on: January 04, 2008, 08:05:36 AM »
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  • जय सांई राम।।।

    मिट्टी के दीयों पर विश्वास छोड़ो और चिन्मय ज्योति खोजो

    एक मिट्टी का दिया जल रहा था, वह भी बुझ गया है। हवा का एक झोंका आया और उसे ले गया। मिट्टी के दीये का विश्वास भी क्या? और उन ज्योतियों का साथ भी कितना, जिन्हें हवाएं बुझा सकती हैं?

    अंधेरे के सागर में डूब गये हैं। एक युवक बैठे हैं। अंधेरे से उन्हें बहुत भय लग रहा है। वे कह रहे हैं कि अंधेरे में उनके प्राण कांप जाते हैं और सांसे लेना भी मुश्किल हो जाता है।

    जगत में अंधेरा ही अंधेरा है। और ऐसी कोई भी ज्योति जगत के पास नहीं है कि अंधेरे को नष्ट कर दे। जो भी ज्योतियां हैं, वे देर-अबेर स्वयं ही अंधेरे में डूब जाती हैं। वे आती हैं और चली जाती हैं, पर अंधेरा वहीं का वहीं बना रहता है। जगत का अंधकार तो शाश्वत है और उसकी ज्योतियों पर जो विश्वास करते हैं, वे नासमझ हैं; क्योंकि वे ज्योतियां वास्तविक नहीं हैं, और सब अंतत: अंधेरे से पराजित हो जाती हैं।

    पर एक और लोक भी है। जगत से भिन्न एक और जगत भी है। जगत अंधकार है, तो वह लोक प्रकाश ही प्रकाश है। जगत में प्रकाश क्षणिक और सामयिक है और अंधकार शाश्वत है, तो उस लोक में अंधकार क्षणिक और सामयिक है और आलोक शाश्वत है।

    एक और भी आश्चर्य है कि अंधकार का लोक हमसे दूर और प्रकाश का लोक बहुत निकट है।

    अंधकार बाहर और प्रकाश भीतर है।

    और स्मरण रहे कि जब तक अंतस के आलोक में जागरण नहीं होता है, तब तक कोई ज्योति अभय नहीं दे सकती है। मिट्टी के मृण्मय दीयों पर विश्वास छोड़ो और चिन्मय ज्योति को खोजो। उससे ही अभय, आनंद और वह आलोक मिलता है, जिसे कि कोई छीन नहीं सकता है। वही अपना है, जो कि छीना न जा सके और वही अपना है, जो कि बाहर नहीं है।

    आंख के बाहर अंधकार है, पर आंख के भीतर तो देखो कि वहां क्या है?

    यदि वहा भी अंधकार होता, तो अंधकार का बोध नहीं हो सकता था। जो अंधकार को जानता है, वहां अंधकार नहीं हो सकता।

    जो आलोक की आकांक्षा करता है, वह कैसे अंधकार हो सकता है? वह आलोक है, इसलिए उसे आलोक आकांक्षा है। वह आलोक है, इसलिए उसे आलोक की अभिप्सा है। आलोक ही केवल आलोक के लिए प्यासा हो सकता है। जहां से प्यास आती है, वहीं खोजो- उसी बिंदु को लक्ष्य बनाओ तो पाओगे कि जिसकी प्यास है, वह वहीं छिपा हुआ है।

    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    ॐ सांई राम।।।
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

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    • ~सांई~~ੴ~~सांई~
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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #119 on: January 06, 2008, 01:57:48 AM »
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  • ॐ सांई राम~~~

    काल की कृपा  पर चलने वाले,
    कुछ भी साथ न जाता है!
    रूप रंग ये मस्त यौवन,
    सब धरा यही रह जाता है!
    ये धन ये वैभव ये महल प्यारे,
    जिन्हे देख देख इतराता है!
    जब काल लेने आए तुझको,
    सब यूँ ही पङा रह जाता है!
    जिसके लिए तूं खपे जीवन भर,
    मेरा धन मेरा घर!
    पल ही भी नहीं खबर रे प्यारे,
    फिर किसका धन किसका घर!
    अभी वकत है संभल जा प्यारे,
    कर ले अपने वारे न्यारे!
    उस परम प्रभु से लगन लगा रे,
    यूँ ही जीवन न गंवा रे!
    गया वक्त फिर हाथ न आना,
    फिर कल मल मल पछताना रे!

    जय सांई राम~~~
    "लोका समस्ता सुखिनो भवन्तुः
    ॐ शन्तिः शन्तिः शन्तिः"

    " Loka Samasta Sukino Bhavantu
    Aum ShantiH ShantiH ShantiH"~~~

    May all the worlds be happy. May all the beings be happy.
    May none suffer from grief or sorrow. May peace be to all~~~

     


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