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Author Topic: आज का चिन्तन  (Read 168975 times)

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Offline Ramesh Ramnani

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आज का चिन्तन
« on: February 11, 2007, 12:08:45 AM »
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  • जय साँई राम।।।

    इस तपते भूखंड पर
    उड़ते गरम रेत के बीच
    जब मैं झुकूं नल पर
    तब ओ प्यास
    मुझे मत करना कमजोर
    पियूं तो एक चुल्लू कम
    कि याद रहे दूसरों की प्यास भी
    खाऊँ तो एक कौर कम
    कि याद रहे दूसरों की भूख भी
    बाबा से हर दम यह दुआ मांगता रहता हूँ कि जियूं इस तरह अपने इस जन्म को।

    एक ओर दूसरों की प्यास का खयाल रख एक चुल्लू पानी कम पीने,  दूसरों की भूख का खयाल रख एक कौर कम खाने की चेतना से भरे चरित्र की तलाश हमारे बाबा साँई इस दुनिया में कर रहे है। लेकिन दूसरी ओर ठीक तभी यहीं इसी दुनिया में हत्यारे, आततायी व दंगाई माँ से पुत्रों को, भाईयों से बहन को, पत्नियों से पति को, कण्ठों से गीत को, जल से मिठास को और पेड़ों से हरियाली को छीन लेने का षड़यंत्र कर पूरी धरती को अशांत करने में लगे हुए हैं। जो इस सदी की भयावह घटना के रूप में सामने आता है।

    बाबा साँई को तलाश है एक ऐसे इन्सान की और एक ऐसे भक्त की जो समझ सके मेरे बाबा साँई की पीड़ा को। आओ समय निकाले अपनी भागम भाग के जीवन से ओर करे धन्यवाद अपने साँई का हर उस अन्न के कौर का और हर एक चुल्लू पानी का जो हमे जीवन देता है। बाबा साँई हमसे इस भाव की ही तो अपेक्षा रखते है। आइये बाबा की इन अपेक्षाओं पर खरा उतरें।

    मेरा साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा मेरा साँई

    ॐ साँई राम

    http://www.shirdi-sai-baba.com/sai/हिन्दी-मै-लेख/इस-तपते-भूखंड-पर-t119.0.html
    « Last Edit: December 25, 2007, 10:06:33 PM by Jyoti Ravi Verma »
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #1 on: February 11, 2007, 03:18:29 AM »
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  • बहुत सुन्दर रमेश भाई

    Vey Beautiful.


    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #2 on: February 11, 2007, 11:33:56 PM »
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  • जय साँई राम।।।

    याद रहे बाबा साँई का कहना था कि, अच्छाई करने के लिये बहुत प्रयत्न करना पड़ता है, और बुराईयाँ अनायास ही इकट्ठी हो जाती है। बुरे संसकार तो जन्मजन्मांतरो से छाये हुए है। पर तुम्हे अच्छे संस्कारों को पुरूषार्थ करके जागृत करना पड़ता है। फलदार वृक्ष लगाने के लिये वर्षों काम करना पड़ता है, लेकिन बेशर्म के झाड़ तो अनायास ही खड़े हो जाते है। बिना किसी काम प्रयास के बेशर्म के पौधे उग जाते है। शायद इसलिए उनका नाम बेशरम पड़ गया है। बुराइयां हमारि चेतना की भूमि पर बेशर्म के पौधों की भांति उगती जा रही है। चित की भूमि  बशर्म के पौधों से भरी पड़ी है। मै चाहता हूँ उन पौधों को उखाड़कर फैंका जाए। बेशर्म के पौधे को कितनी ही बार काट दो वह पुनः अंकुरित हो जाता है। जब तक कि उसे जड़ से नहीं उखाड़ दिया जाए।

    इतना ही नही जड़ से उखाड़ने के बाद उसके खट्टा मीठा तक डाला जाए तांकि दुबारा वह उग न सके। बुराई एक बेशरम का पौधा है। एक बार लग जाए तो बिना पानी खाद के हरा भरा बना रहता है। उसे नष्ट करने के लिये काम करना पड़ता है। बुराई को हटाने के लिये बहुत  कड़ा पुरूषार्थ करना पड़ता है। अच्छाई के बीज डालकर उसे अंकुरित करने के लिये और उस अंकुर को वृक्ष बनाने के लिए भी बैसा ही काम करना पड़ता है, जैसे बुराई को हटाने के लिये।

    मेरा साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा मेरा साँई

    ॐ साँई राम।।।

    http://www.shirdi-sai-baba.com/sai/हिन्दी-मै-लेख/याद-रहे-बाबा-साँई-का-कहना-था-t120.0.html
    « Last Edit: December 25, 2007, 10:08:40 PM by Jyoti Ravi Verma »
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #3 on: February 12, 2007, 11:02:19 PM »
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  • जय साँई राम।।।

    उत्थान व पतन दोनों मनुष्य के हाथ में

    गीता के अनुसार जीव अपनी प्रकृति या स्वभाव, गुणों के कारण अच्छा या बुरा कुछ न कुछ कर्म करता ही रहता है। यह प्रक्रिया जागने से लेकर सोने तक जारी रहती है। यहां तक कि सोना भी एक क्रिया ही है, क्योंकि मनुष्य कहता है कि मैं सोया या मैं सोने जा रहा हूं। शास्त्रों एवं अनुभव के आधार पर यह कहा जाता है कि मनुष्य का स्वभाव और उसके वर्तमान क्रियाकलाप उसके द्वारा विभिन्न जन्मों में किए गए अच्छे या बुरे कर्मो से निर्धारित होते हैं।

    सभी जीव विभिन्न कर्मो में पूरी तरह व्यस्त हैं। कर्म करना उचित भी है। कर्म से ही उत्कर्ष है इसलिए संसार के सभी ग्रंथों में पुरुषार्थी की प्रशंसा और अकर्मण्य की निंदा की गई है। परंतु कर्म करने का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही होना चाहिए। किंतु मनुष्य आज मशीन की तरह केवल अर्थ के ही कर्मो में जुटा हुआ है। वह येन-केन प्रकारेण धन कमाने में व्यस्त है। अत: इन कर्मो से जन्य क्रोध, लोभ, तनाव, ईष्र्या, चिंता, पीड़ा एवं दाह से ग्रस्त है। वह उन्नति अवनति, हानि-लाभ, मान-अपमान सब को भूल चुका है। वह जागा हुआ तो है पर वह सोए हुए के समान लगता है।

    मानव जीवन इतना दुख, अपमान आदि सहन करने के लिए नहीं मिला है। यह तो उस परमात्मा से अपने को जोड़ देने, की सृष्टि का आनंद लेने के लिए है। परंतु यह संभव तभी होगा जब हम इस मोह निशा से जागकर, श्रद्धा-सबूरी,  भक्ति,  ध्यान के द्वारा बाबा साँई की श्रद्धा भक्ति ध्यान का मार्ग अपनाएं। उत्कर्ष और बर्बादी दोनों ही मनुष्य के अपने ही हाथ में हैं। संसार की हर वस्तु, हर जीव, हर घटना में सच्चिदानंद सदगुरू साँईनाथ महाराज का अनुभव करें। तभी हमें आनंद प्राप्त होगा।


    मेरा साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा मेरा साँई

    ॐ साँई राम।।।

    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #4 on: February 14, 2007, 12:24:03 AM »
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  • जय साँई राम।।।

    सक्रियता ही जीवन है

    बाबा साँई ने हमें शरीर दिया है और इंद्रियां भी। ये सब सक्रियता के लिए ही दी हैं। ध्यान रखने की बात है कि इनसे हम सत्कार्य करते हैं या असत्कार्य? सत्कार्य का फल सुख और असत्कार्य का फल दु:ख है। हम असत्कार्य करके सुख पाना चाहते हैं तो वह मृग-मरीचिका ही होगी। यदि हम संसार की गतिविधियों को देखें तो यही पाएंगे कि सब लोग सुख की ही कामना से नाना प्रकार के कार्यो में लगे रहते हैं। कठोर परिश्रम के पश्चात् थोड़ा सा सांसारिक सुख मिलता है, पर अंत में दु:ख ही हाथ लगता है। सुख तो उसी कर्म से मिल सकता है जो दूसरों को सुखी करने के लिए किया जाता है, परंतु नासमझी के कारण हम अपने स्वयं के सुख के लिए दूसरों के दु:ख की परवाह नहीं करते इसीलिए कालांतर में हमें वह सुख प्राप्त नहीं होता जो हम प्राप्त करना चाहते हैं। क्रिया दो प्रकार की होती है: एक आंतरिक और दूसरी बाह्य।

    आंतरिक क्रिया मन, बुद्धि एवं भावना से होती है। हम जितना ही अपने भीतर जाते हैं, अपनी अंदरूनी दुनिया में जाते हैं, उतना ही अधिक सुख और शांति मिलती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि हमारे हृदय में बाबा साँई विराजमान हैं। वे ही शाश्वत आनंद के परम एवं एकमात्र स्त्रोत हैं। हम अपने अंदर स्थित बाबा साँई से जितनी अधिक निकटता बना पाते हैं, हमारा आनंद भी उतना ही अधिक घनीभूत होता जाता है। एक बार उस आनंद का स्वाद मिल जाए तो फिर और सब बाहरी सुख एकदम फीके पड़ जाते हैं। उसी की चाह सबको है पर सब कोई उस स्त्रोत की ओर उन्मुख नहीं होता। हम चाहें तो अपनी बाहरी क्रियाओं को भी सुख का साधन बना सकते हैं। इसके लिए यह विशेष विचार जोड़ना आवश्यक है कि हम जो क्रियाएं कर रहे हैं वे बाबा की ही इच्छा की पूर्ति के लिए हैं। ऐसी भावना होगी तो हमसे सत्कार्य ही होंगे। जो क्रियाशील है वही जीवित है। जो निष्कि्रय है उसका जीवन भार-स्वरूप है। न उसकी अपने लिए ही कोई उपलब्धि है और न दूसरों के लिए ही। जीवन पाकर जिस समाज ने जीवन में निरंतर सहयोग प्रदान किया है उसके लिए उसका ऋण चुकाने के लिए प्रत्युत्तर में लाभकारी क्रियाशीलता का योगदान करना मानवता है। वस्तुत: मानवता की महानता सक्रियता से ही संभव है।


    मेरा साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा मेरा साँई

    ॐ साँई राम


     
     
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #5 on: February 14, 2007, 10:13:51 PM »
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  • जय साँई राम।।।

    भक्ति का मार्ग
     
    यह विदित है कि भक्ति वहीं है जहां अहंकार नहीं है। पतन का मार्ग अहंकार से होकर जाता है। भक्ति को समझने के लिए हमें स्वयं को अहंकार से मुक्त करना होगा। जब तक हम रुचियों के भिन्न अपेक्षाएं और अहंकार को समाप्त नहीं करते तब तक हम बाबा साँई से प्रेम नहीं कर सकते और न ही उसकी शरण पाने की उम्मीद करें। अहंकार से मुक्ति पाने के लिए मनीषियों की संगति करनी चाहिए, श्रेष्ठ गुरु की शरण में जाना चाहिए। जिन्होने भगवान के असीम प्रेम का रसपान किया है,  उन्होंने ही भक्ति की वास्तविक परिभाषा को समझा है। भक्ति क्रोध, वासना,  लालच आदि विसंगतियों से मुक्ति दिलाने का सहज मार्ग है। बाबा को प्रेम करने का अर्थ है उनके हर हिस्से को प्रेम करना, जिसमें सभी जीव शामिल हैं।

    मेरा साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा मेरा साँई

    ॐ साँई राम।।।
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #6 on: February 15, 2007, 11:02:53 PM »
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  • जय साँई राम।।।

    खुश रहने के आ़ठ तरीके
     
    खुश रहना कौन नहीं चाहता! जो नहीं चाहता वह सामान्य नहीं है। लेकिन खुशी की परिभाषा सबके लिए एकदम अलग है। खुशी वस्तुत: ऐसी चीज है जो आपकी सोच पर निर्भर करती है। हो सकता है कि जितनी खुशी आप नौ हजार रुपया प्रति माह कमाकर पाते थे, वह नब्बे हजार प्रति माह कमा कर नहीं पा सकें। यदि खुशियां खोई हुई सी लगने लगें तो ईमानदारी से आत्म विश्लेषण करके देखें। आप जान जाएंगे कि कहां क्या गलत है। साथ ही छोटी-मोटी खुशियां तुरंत हासिल करने के लिए ये तरीके भी अपनाएं-

    1. जीवन तभी बदल जाता है जब आप बदलते हैं। न हो तो करके देखें।
    2. मन व मस्तिष्क सबसे बड़ी संपत्ति है, इसे मान लेंगे तो खुश रहेंगे आप।
    3. किसी की भी आत्मछवि जो उसने खुद बनाई होती है उसके खुश रहने के लिए बहुत महत्वपूर्ण होती है। अपनी छवि ऐसी बनाएं जो आपको    हताश-निराश न करके खुशियां दे।
    4. सम्मान करना व क्षमा करना सीखें व खुश रहें।
    5. जैसा सोचेंगे वैसे ही बनेंगे आप। अगर गरीबी के बारे में सोचेंगे तो गरीब रहेंगे और अमीरी के बारे में सोचेंगे तो अमीर रहेंगे।
    6. असफलता आती और जाती है यह सोचें और खुश रहने की कोशिश करें।
    7. जितने भी आशीर्वाद आपको मिले हैं आज तक, उनकी गिनती करें, उन्हें याद करके खुश रहें।
    8. यदि आप पूरे जीवन की खुशी चाहते हैं चाहते हैं तो काम से प्यार करना सीखें।
     
    मेरा साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा मेरा साँई

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #7 on: February 16, 2007, 06:30:33 AM »
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    खुद को बदलो

    एक बार विनोबा भावे से मिलने एक महिला आई। वह काफी परेशान लग रही थी। उसने विनोबा जी को श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके कहा, 'मेरा जीवन तो नरक हो गया है। मैं बहुत दुखी हूं। जीवन में कोई उम्मीद नहीं नजर आती।' विनोबा जी ने उससे उसके दुख का कारण पूछा तो उसने बताया, 'मेरा पति रोज रात को शराब पीकर घर लौटता है। आते ही अनाप-शनाप बोलने लगता है। मैं उसे इस हालत में देखकर अपने पर काबू नहीं रख पाती। गुस्से में मैं भी उसे बहुत भला-बुरा कहती हूं।'

    विनोबा जी ने पहले कुछ सोचा फिर पूछा, 'तुम्हारे भला-बुरा कहने से क्या उसमें कुछ सुधार आया?' उस महिला ने कहा, 'नहीं, मामला और गड़बड़ हो गया है। मैं जब उसे डांटती हूं तो वह और भड़क जाता है और मुझे पीटने लग जाता है। घर में अजीब माहौल बन गया है। बच्चों पर न जाने इसका क्या असर पड़ता होगा। न जाने मेरे पड़ोसी क्या सोचते होंगे। मैं तो उसे समझा-समझाकर थक गई। एक बात और, मैंने उसकी शराब छुड़ाने के लिए व्रत रखना शुरू कर दिया है। मैं रोज उपवास करती हूं। सोचती हूं, शायद इसका कोई सकारात्मक परिणाम निकले।' इस पर विनोबा जी ने पूछा, 'उपवास करने से तुम्हारे क्रोध में कोई फर्क आया या पति को शराब पीकर आया देख तुम्हें अब भी उसी तरह गुस्सा आता है?' महिला ने कहा, 'उसके शराब पीने पर या उसे उस हालत में देख कर मुझे अब भी गुस्सा आता है। मेरे व्रत रखने से अब तक तो कोई खास फर्क नहीं पड़ा। '

    तब विनोबा जी ने कहा, 'अगर हालात बदलने हों तो पहले तुम्हें अपने आप को बदलना होगा। गुस्सा करके तुमने देख लिया। उससे कुछ हासिल न हो सका। अब व्रत कर रही हो, लेकिन उसका भी असर नहीं हो रहा है। इसका कारण है कि तुमने अपने को अंदर से नहीं बदला। तुम्हें अपने मन को बदलाव के लिए तैयार करना होगा और यह दृढ़ इच्छाशक्ति से ही संभव है। व्रत रख लेने भर से बदलाव नहीं आते। दूसरों में बदलाव लाने के लिए पहले तुम्हें खुद को बदलना होगा।'


    मेरा साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा मेरा साँई

    ॐ साँई राम।।।
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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #8 on: February 16, 2007, 09:20:36 PM »
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    कोशिशों के बगैर
     
    जीवन में कुछ चीजें हम प्रयास करके प्राप्त करते हैं और कुछ चीजें बगैर कोशिश के ही मिल जाती हैं। अक्सर ऐसा होता है कि हम जो खोजने निकलते हैं,  उसके बदले कोई दूसरी वस्तु मिल जाती है जो हमारे बहुत काम की होती है। लेकिन इसका कोई नियम नहीं होता। यह कोई जरूरी नहीं कि हमारी हर कोशिश के बदले कुछ न कुछ अतिरिक्त हासिल हो ही जाए। अतिरिक्त की कौन कहे,  कई बार कठिन प्रयासों के बावजूद कुछ भी हाथ नहीं लगता। फिर भी हम ऐसे संयोग की उम्मीद जरूर रखते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि हम भाग्य भरोसे जीना चाहते हैं या कर्म से जी चुराते हैं,  लेकिन अपने आप कुछ मिल जाए,  यह आकांक्षा जरूर मन में रहती है। यही इच्छा हमें आशावादी बनाए रखती है और काफी हद तक आस्थावान भी। यानी हमारे भीतर यह भाव होता है कि हम जो कर रहे हैं उतना ही नहीं,  उसके अलावा भी कुछ मिल जाए। यह आशा हमारी कोशिशों की गति को और तेज करती है।

    इन सबके बावजूद जिसने भी बाबा साँई का श्रद्दा और सबूरी का सन्देश हमेशा याद रखा समझ लेना उसके लिये कोई भी काम मुश्किल नही रह जाता। यह मेरा मानना है और बखूबी आजमाया हुआ भी।


    मेरा साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा मेरा साँई

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    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #9 on: February 17, 2007, 09:55:37 PM »
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    जीवन का रहस्य

    जीवन को अनेक अर्थो में निरूपित किया जाता है और विभिन्न प्रसंगों में यह रेखांकित होता रहा है, लेकिन जीवन का वास्तविक भेद क्या है, इस पर मतभेद है। जो प्राणी अपने जीवन को जैसा समझ पाता है वैसा ही उसको जीता है। प्राय: सभी लोग जीवन को अपनी-अपनी समझ के अनुसार समेटते या विस्तार करते हैं। जीवन को क्या करना चाहिए, यह भी समस्या है,  लेकिन इस समस्या को हर कोई बनाए रखना चाहता है,  इसे सुलझाने वाला कोई बिरला ही पहले पहल जीवन का रहस्य जान पाता है।  जीवन का मार्ग ज्ञात न हो, तो उसका रहस्य मालूम नहीं हो सकता, यदि विचार करके देखा जाए तो जीवन का प्रवाह स्वयं से अन्य की ओर होता है। जीव से आत्मा की ओर सर्वथा नैसर्गिक मार्ग है। जीवन तो दूसरों के लिए ही है, अपने लिए नहीं-यह सामाजिक व्याख्या है, लेकिन यह जीवन का रहस्य कदापि नहीं खोलती। जीवन का रहस्य अपने आप में है, अपनी समझ में है। बस जीवन का भोग मात्र अपने लिए भर न हो, दूसरों के लिए भी हो। इसमें भी भेद है। अपनों के लिए न जी कर परायों के लिए जिया जाए। जीवन का मुक्त मार्ग यहीं से खुलता है, इसके रहस्य को पाना आसान नहीं।

    जीवन को जीवनदाता बाबा साँई की धरोहर मानकर इसके रहस्य से जो व्यक्ति जितना परिचित हुआ उसे उतना ही फल मिला। ज्ञानियों ने जीवन के भेद को संसार के समक्ष प्रकट किया। जीवन के अंतर्निहित भेदों को जानने की उत्सुकता होनी चाहिए, रहस्यों के भीतर झांकने का साहस चाहिए। जब जिज्ञासा और साहस नहीं रहता तो जीवन नीरस प्रतीत होता है। निराशा से घिरा मनुष्य जीवन के रहस्यों को खोज नहीं पाता,  लेकिन इनसे मुँह मोड़कर आत्मघात करना उचित नहीं। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य ही है जीवन के रहस्य से पर्दा उठाना, फिर भी वह अंतिम लक्ष्य नहीं है। मैं क्या हूँ, यह रहस्य समझना प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है। स्वयं का अस्तित्व जीवन के कारण तत्व से आरंभ होना चाहिए,  लेकिन यह खोज सांसारिक है। इसके पीछे आत्मा को धारण करने का रहस्य प्राकृतिक विज्ञान से परे है। पराशक्ति का प्रभाव जीवन में स्पंदित है जो अज्ञात नहीं कहा जा सकता। मुझे क्या करना है, यह अगला कदम है।

    भक्ति का रास्ता प्रेम की गली से ही गुजरता है। बाबा साँई ने उस प्रेम की गली तक पहुंचने के लिये श्रद्दा और सबूरी के दो पंख हर मानव के लिये उपलब्ध कराऐ हैं, जिसके सहारे हर भक्त बाबा साँई की शिरडी नामक प्रेम की नगरी तक पँहुच सकता है।


    मेरा साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा मेरा साँई

    ॐ साँई राम।।।
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #10 on: February 18, 2007, 11:56:53 PM »
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    "तुम्हें प्यार मिला ये बङी बात है.. पर तुमने प्यार किया ये ज्यादा खूबसूरत एह्सास है""

    अगर कर सकते हो तो मह्सूस करो इस एह्सास को.. और दे सकते हो तो इतना प्यार दो कि कभी कोई कमी ना पङे.. कभी लेने की उम्मीद मत रखो.. प्यार उम्मीद पर नहीं किस्मत से मिलता है.. ये वो लकीर है जो हर हथेली पर नहीं होती...अगर कर सकते हो तो दुआ करो.. कि तुम्हें ना मिला ना सही.. पर उन्हें मिले जिन्हें तुम चाहते हो.. इसे देने कि खुशी मह्सूस करो.. जो खो जाने में लुत्फ़ है वो मिलने में नहीं.."

    प्यार ये भी तो है कि आप किसी से प्यार करते हैं भले ही वो आपसे प्यार नहीं करता.. कि आप किसी के साथ हैं हमेशा.. कि कोई खुश है तो तुम खुश हो..कि तुमने किसी को सब कुछ दे दिया है बिना किसी उम्मीद के.. कि आप किसी पर विश्वास करते हो क्यूंकि आप प्यार करते हैं...तुम किसी को चाहते हो और तुम्हें उसका ख्याल है.. कि कोइ हंसता है तो तुम हंसते हो.. कि तुम किसी के ख्वाब देखते हो.. कि तुमने वादा किया है किसी का साथ निभाने क उम्र भर... कि तुमने बस उसे चाहा है। प्यार किसी का हो जाने का संतोष भी है.. तो किसी के बिछङ जाने का गम भी है.. और खुशी भी कि कुछ देर हि सही पर आप साथ थे.. प्यार ये भी कि तुम किसी के हो चुके हो.. प्यार तो बस प्यार है.. प्यार एह्सास है रिश्ता नहीं।

    "ये वो दौलत है जो कभी घटती नहीं... तुम्हें कितना मिला ये तुम्हारी किस्मत.. तुमने कितना दिया ये तुम्हारी नीयत... प्यार तुम या मैं नहीं.. प्यार हम है.. प्यार सब है... प्यार रिश्ता नहीं.. प्यार बंधन नहीं.. प्यार तो तुममें , हममें , सबमें है.... प्यार दिलों में है.. इसे बंधनों में मत बांधो.... फ़ैलने दो आज़ादी से... महकने दो इसकी खुश्बू को..... प्यार तुम्हारा नहीं ना सहीं किसी का तो है, कहीं तो है...." प्यार किसी ओर का नही ये तो मेरे बाबा साँई का है। बहा दो सबको इस प्यार में लूट लो यह प्यार, मेरे बाबा इन्तज़ार कर रहे हैं। आओ साथ चलें हाथों मे हाथ डाल।


    मेरा साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा मेरा साँई

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #11 on: February 19, 2007, 11:02:50 PM »
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    मनुष्य को संतोष से जो सुख मिलता है वह सबसे उत्तम है और उसी सुख को मोक्ष सुख कहते हैं। इसीलिए जीवन में संतोष को परम सुख का साधन कहा जाता है।

    मनुष्य के जीवन में संतोष परम सुख का साधन है प्रत्येक आत्म शुद्धि के इच्छार्थी को संतोषी होना चाहिए क्योंकि संसार में जो काम सुख-कामना की पूर्ति का सुख है और जो भी दिव्य स्वर्गीय सुख है वे सुख तृष्णा के नाश से प्राप्त होने वाले सुख की 16वीं कला के समान नहीं हो सकते। धन ऐश्वर्य आदि भोग सामग्री की स्वलप्ता में ईश्वर संसार प्रारब्ध पर किसी प्रकार से इसी गिला व रोष प्रकट न करना और अधिकता में हर्ष न करना संतोष सुख कहलाता है।

    वाचालता का त्याग, निंदा व कटु वचन सुनने पर, हानि होने पर, क्रोध आदि से आवेश में न आकर, दुर्वचनों का त्याग, स्वल्प भाषण, विवाद त्याग और यथा शक्ति मौनधरणा संतोष कहलाता है। शरीर से निंदित व बुरे कर्म न कराना ही श्रेष्ठ है। संतोष रूपी अमृत से जो मनुष्य तृप्त हो जाता है, उसे महापुरुषों के समान सुख मिलता है। धन ऐश्वर्य के लोभ करने वाले व इधर-उधर भागने वाले मनुष्य को कभी भी संतोष नहीं मिलता। ऐसे व्यक्ति के मन में सदैव बेचैनी रहती है तथा वह लोभ,मोह आदि व्यसनों में पड़कर दुखी रहता है। साथ ही जो मानव बुरे कर्म व निंदनीय कार्य करता है वह भी भय के कारण दुख का भागी बनता है। जबकि मन में संतोष होने पर मनुष्य व्यर्थ की लालसा में नहीं पड़ता है। जिससे वह व्यर्थ की चिंताओं से मुक्त हो जाता है। संतोष धन को इसीलिए सबसे बड़ा धन कहा गया है।   


    मेरा साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा मेरा साँई

    ॐ साँई राम।।।

                                       
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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #12 on: February 20, 2007, 04:32:26 AM »
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    सर्वतोमुखी विकास  

    जब हमारी दृष्टि किसी सुखी पर पड़े तो हम उसे देखकर प्रसन्न हो जाएं। ऐसे ही जब हमारी दृष्टि किसी दु:खी पर पड़े तो हम उसे देखकर करुणित हो जाएं। तब उन सुखी व दु:खी व्यक्तियों में एकता आ जायेगी। प्रीति का अभाव ही परस्पर संघर्ष का कारण है। कर्तव्य-परायणता से ही संघर्ष का अंत होता है। जब सेवा और प्रीति तो रहे, पर उसमें अहम् भाव की गंध न रहे तब अनंत के मंगलमय विधान से तद्रूपता होती है। जो अपना सब कुछ प्रसन्नतापूर्वक नहीं दे सकता, वह किसी का प्रेमी नहीं हो सकता, क्योंकि प्रेम बातों से ही नहीं होता। यदि हम मिले हुए का दुरुपयोग न करें, तो किसी से शासित नहीं रह सकते। हम इस बात का इंतजार न करें कि कोई उद्धारक आयेगा और पुíनर्माण करेगा, हम जिसमें अपूर्व हैं उससे अधिक अपूर्व कोई और नहीं आएगा। सुंदर समाज का निर्माण तो केवल मानवता से ही संभव है। अपनी विचार-प्रणाली का आदर करें, तभी समाज में सर्वतोमुखी विकास संभव है। हमें अपनी प्रणाली से अपने को सुंदर बनाना है। समाज को सुंदरता अभीष्ट है, प्रणाली नहीं।


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    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #13 on: February 20, 2007, 10:32:38 PM »
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    सत्संग से बाबा सांई की प्राप्ति सुगम  

    जिस प्रकार गन्ने को धरती से उगाकर उससे रस निकालकर मीठा तैयार किया जाता है और सूर्य के उदय होने से अंधकार मिट जाता है उसी प्रकार सत्संग में आने से मनुष्य को प्रभु मिलन का रास्ता दिख जाता है और उसके जीवन का अंधकार मिट जाता है। इस तरह बार बार सत्संग में जाने से मानव का मन साफ होना शुरू हो जाता है और मानव पुण्य करने को पे्ररित होता है जिससे उसे प्रभु प्राप्ति का मार्ग सुगमता से प्राप्त होता है।

    मानव द्वारा किए गए पुण्य कर्म ही उसे जीवन की दुश्वारियों से बचाते हैं और जीवन के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलने में सहायक होते हैं। जीवन में असावधानी की हालत में व विपरीत परिस्थितियों में यही पुण्य कर्म मनुष्य की सहायता करते हैं। अगर मनुष्य का जीवन में कोई सच्चा साथी है तो वह है मनुष्य का अर्जित ज्ञान और उसके द्वारा किए गए पुण्य कर्म। मगर इसके लिए मनुष्य को अपनी बुद्धि व विवेक के द्वारा ही उचित अनुचित का फैसला करना होता है। कोई भी मानव अपनी बुद्धि व विवेक अनुसार ही जीवन में अच्छे-बुरे व सार्थक-निरर्थक कार्यो में अंतर को समझता है। सत्संग वह मार्ग है जिस पर चलकर मानव अपना जीवन सफल बना सकता है। कान शास्त्रों के श्रवण से सुशोभित होता है न कि कानों में कुण्डल पहनने से। इसी प्रकार हाथ की शोभा सत्पात्र को दान देने से होती है न कि हाथों में कंगन पहनने से। करुणा, प्रायण, दयाशील मनुष्यों का शरीर परोपकार से ही सुशोभित होता है न कि चंदन लगाने से।

    शरीर का श्रृंगार कुण्डल आदि लगाकर या चंदन आदि के लेप करना ही पर्याप्त नहीं है क्योंकि यह सब तो नष्ट हो सकता है परन्तु मनुष्य का शास्त्र ज्ञान सदा उसके साथ रहता है। मनुष्यों द्वारा किए गए दान व परोपकार उसके सदा काम आते हैं और परमार्थ मार्ग पर चलने वाला मनुष्य ही मानव जाति का सच्चा शुभ चिंतक होता है। प्रेम से सुनना समझना व प्रेम पूर्वक उसका मनन कर उसका अनुसरण करना ही मनुष्य को फल की प्राप्ति कराता है। लेकिन मनुष्य की चित्त वृत्ति सांसारिक पदार्थो में अटकी होने के कारण वह असत्य को ही सत्य मानता है। इसी कारण वह दुखों को भोगता है। शरीर को चलाने वाली शक्ति आत्मा अविनाशी सत्य है और वही कल्याणकारी है। 

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    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #14 on: February 21, 2007, 11:45:38 PM »
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    सत्य का धारण     

    ब्रह्म अनंत-अगोचर है। जीव प्राय: परमात्मा को ग्रहण नहीं कर पाता, लेकिन जीवन में जीवन-दाता को पाना होता है। सच्चाई यह है कि मनुष्य अपने जीवन-वन में भटकता रहता है, उसे भगवान को पाने की सुध नहीं रहती। मानव ने जीवन को रहस्यमय बना दिया है। उसकी छटपटाहट, उसकी व्यग्रता, उसका झुकाव सदैव संसार की वस्तुओं में है। जीवन का एक-एक पल शरीर के लिए जी रहा है। ईश्वर की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता, स्वार्थो की ओर ध्यान अवश्य जाता है। मनुष्य प्रभु से सांसारिक चीजें मांगता है। उसका ध्यान प्रभु में न होकर संसार में लगा है। जीवन में वह क्या करता है, क्या चाहता है-उसे स्वयं स्पष्ट नहीं। जीवन के उद्देश्य से लेकर लक्ष्य तक कुछ भी ज्ञात नहीं। बस रहस्य का पिटारा है जीवन। मनुष्य ने यही हाल बनाया है अपने जीवन का। रहस्यमय जीवन का अभ्यस्त मानव कर्म को सद्कर्म मानता है।

    वस्तुत: सद्कर्म ही धर्म है। कर्म-अकर्म का बंधन जीवन प्रवाह है। इस प्रवाह की दशा और दिशा दोनों निश्चित नहीं है। प्रकृति एक समान व्यवहार करती है, किंतु मनुष्य की प्रकृति ऐसा नहीं करती। मनुष्य बाधक है प्रकृति के संचालन में। हर मनुष्य धर्म, कर्म, प्रेम, एकता और शांति के लिए समान प्रकृति से विमुख क्यों है? क्यों जीवन को रहस्य के अंधकार में जी रहा है? इस रहस्य को हटा कर मानवता के लिए तत्पर होना चाहिए। अंधकार को मिटाकर परमात्मा को ग्राह्य बनाया जाए। असंभव से संभव की ओर चलें, संभव से अंसभव की ओर नहीं। बियावान जंगल की तरह जीवन के भेदों को रहस्यमयी अंधकार में छोड़ना सर्वथा अनुचित होगा। न ही जीवन के रहस्य से डरना या आशंकित रहना उचित है। इसका भेदपूर्ण रहस्य अत्यंत सरल है। मानव को इस रहस्य से पर्दा उठाने में कोई कठिनाई नहीं है। भय व संशय त्यागकर सत्य अपनाना और असत्य त्यागना चाहिए। यह कार्य साधारण है। सत्य से परे सभी कार्य सामान्य नहीं रह जाते। सत्य धारण करने का अर्थ है धर्म को धारण करना। सत्य के साथ जीवन अंधकारमय नहीं हो सकता इसलिए रहस्यमय भी नहीं रहता। असत्य सदैव रहस्य को गहराता है। सत्य रहस्यमय जीवन के स्थान पर उसे खुली किताब की तरह बनाने में सक्षम है। यह परमात्मा को ग्रहण करने का मार्ग भी है।
     

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