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Author Topic: आज का चिन्तन  (Read 169018 times)

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Offline Ramesh Ramnani

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Re: आज का चिन्तन
« Reply #15 on: February 22, 2007, 08:05:05 PM »
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  • जय सांई राम।।।

    बोलो कैसे जीना है??

    रोते रोते
    या गुनगुनाकर
    आप बताओ?

    आँखों ही आँखों में आपकी
    कोई बाट
    जोहता है ना?
    गरमा गरम खाना
    कोई सलीके से
    परोसता है ना?

    जली कटी कहना है?
    या दुआ देकर हँसना है?
    आप बताओ?

    बोलो कैसे जीना है
    रोते रोते
    या गुनगुनाकर
    आप बताओ?

    भीषण अंधेरी
    रात में जब
    कुछ दिखाई नही देता है
    आपके लिये
    दीप लेकर
    कोई जरूर खड़ा होता है।

    अंधेरे में चिढ़ना है?
    या प्रकाश में उड़ना है?
    आप बताओ?

    बोलो कैसे जीना है
    रोते रोते
    या गुनगुनाकर
    आप बताओ?

    पाँव में काँटा
    चुभता है
    हां ये सच होता है
    सुगंधित फूल
    का खिलना
    क्या सच नही होता है?

    काँटों की तरह चुभना
    या फूलों की तरह महकना?
    आप बताओ?

    बोलो कैसे जीना है
    रोते रोते
    या गुनगुनाकर
    आप बताओ?

    प्याला आधा
    खाली है
    ये भी कह सकते हो
    प्याला आधा
    भरा हुआ है
    ये भी तो कह सकते हो।

    खाली है कहना है?
    या भरा हुआ कहना है?
    आप बताओ?

    बोलो कैसे जीना है
    रोते रोते
    या गुनगुनाकर
    आप बताओ?


    मेरा साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा मेरा साँई

    ॐ सांई राम।।।


    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #16 on: February 22, 2007, 09:55:46 PM »
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  • जय सांई राम।।।

    सुखी जीवन की राह

    सुखी जीवन के लिए अपनों के लिए त्याग की भावना का विकास जरूरी है। इससे मैं की बजाय हम की भावना का विकास होता है और जब परिवार का हर सदस्य त्याग का प्रयास करेगा तो सभी की जिम्मेदारियों का निर्वाह आसानी से होगा। परिवार के सदस्यों को ही पर ज्यादा जोर देने के स्थान पर भी से काम चलाना चाहिए। गृहस्थ जीवन में सद्आचरण परम आवश्यक है। परिवार का मुखिया जैसा आचरण करेगा उसका प्रभाव पूरे परिवार पर पड़ेगा। सामाजिक जिम्मेदारियों के निर्वाह के लिए आवश्यक है कि दूसरों की सेवा के मंत्र का प्रयोग प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में करे। जब सब दूसरों की सेवा करेंगे तो यही चक्र समाज में फैलता जाएगा और फलस्वरूप सामाजिक तौर पर विकास अपने आप होगा। जगत के साथ रहते हुए भी भजनानंद में रहा जा सकता है और भजन में रहते हुए भी जगत में रहा जा सकता है।


    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई।

    ॐ सांई राम।।।
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #17 on: February 23, 2007, 10:43:30 PM »
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  • जय सांई राम।।।


    प्यार ये नहीं कि जिसे आप प्यार करते हैं वो भी आपसे प्यार करता है.. कि आप दोनों साथ हैं.. खुश हैं.. कि किसी ने आपको अपना माना है.. कि किसी ने आपको अपना सब कुछ दे दिया है.. कि आप पर विश्वास करता है.. क्योंकि वो आपसे प्यार करता है.. कि कोई सिर्फ़ तुम्हें चाहता है.. तुम हंसते हो तो कोई साथ हंसता है.. वो जब ख्वाब देखता है तो तुम्हारे देखता है.. उसने वादा किया है तुम्हारा साथ निभाने का उम्र भर..कि कोई बस तुम्हारा है..कि किसी ने बस तुम्हें चाहा है.. उसे बस तुम्हारा खयाल है..। प्यार किसी को अपना बना लेने का गुरूर तो नहीं.. प्यार सिर्फ़ किसी के मिल जाने की खुशी तो नहीं... प्यार ये ही तो नहीं कि कोई सिर्फ़ तुम्हे चाहे और तुम उसे.. प्यार किसी एक का नहीं होता.. स्वार्थी नहीं होता.. प्यार वो है जो दूसरों के लिये जीना सिखाता है और ये सच है कि प्यार अगर सच्चा हो तो इंसान को बहुत अच्छा बना देता है.. प्यार अप्ने लिये नहीं होता.. प्यार अपनों के लिये होता है.. प्यार पा लेने का ही नहीं खो जाने का भी नाम है।


    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई।

    ॐ सांई राम।।।
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #18 on: February 24, 2007, 09:55:50 PM »
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  • जय सांई राम।।।

    सच्चिदानंद सदगुरू सांईनाथ

    चित् का अर्थ है-चेतना, विचारणा। मानवी अंत:करण में उसे मन, बुद्घि, चित्त अहंकार के रूप में देखा जाता है। प्राणियों की चेतना बृहत्तर चेतना का एक अंग-अवयव मात्र है। इस ब्रह्माण्ड में अनंत चेतना का भंडार भरा पड़ा है। उसी के द्वारा पदार्थों को व्यवस्था का एवं प्राणियों को चेतना का अनुदान मिलता है। परम चेतना को ही परब्रह्म कहते हैं। अपनी योजना के अनुरूप वह सभी को दौड़ने एवं सोचने की क्षमता प्रदान करती है। इसलिए उसे चित् अर्थात चेतन कहते हैं। इस संसार का सबसे बड़ा आकर्षण आनंद है। आनंद जिसमें जिसे प्रतीत होता है वह उसी ओर दौड़ता है। इंद्रियां अपने-अपने लालच दिखाकर मनुष्य को सोचने और करने की पे्ररणा देती हैं। सुविधा-साधन शरीर को सुख प्रदान करते हैं। मानसिक ललक-लिप्सा, तृष्णा और अहंता की पूर्ति के लिए ललचाती रहती हैं। अंत:करण की उत्कृष्टता वाला पक्ष आत्मा कहलाता है। उसे स्वर्ग, मुक्ति, ईश्वर प्राप्ति समाधि जैसे आनंदों की अपेक्षा रहती है। आनंद प्रकारोंतर से प्रेम का दूसरा नाम है। जिस भी वस्तु, व्यक्ति एवं प्रकृति से पे्रम हो जाता है, वही प्रिय लगने लगती हैं। प्रेम घटते ही उपेक्षा चल पड़ती है और यदि उसका प्रतिपक्ष-द्वेष उभर पड़े तो फिर वस्तु या व्यक्ति के रूपवान, गुणवान होने पर भी वे गलत लगने लगते हैं। उनसे दूर हटने या हटा देने की इच्छा होती है।


    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    ॐ सांई राम।।।
     
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #19 on: February 26, 2007, 02:09:41 AM »
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  • जय सांई राम।।।

    कर्म और चिंतन 

    जैसे माता अपने बच्चे के लिए तरसती हैं, वैसे ही बाबा सांई  भी अपने भक्तों के लिए तरसते हैं। बच्चा कैसा भी हो, माता उससे प्रेम करती है। बच्चा भी यही समझता है कि मुझे मेरी मां का प्रेम मिलेगा। बाबा में तो माता से भी अनंत गुना वात्सल्य है। जो एक मात्र बाबा सांई को ही अपना मानते हैं, उनको बाबा का प्रेम मिलता है, यह भक्तों का अनुभव है। यही प्रेम-मार्ग और विचार-मार्ग का अंतर है। प्रेम मन-इन्द्रियों का व्यापार नहीं है, वह तो बाबा के साथ संबंध जोड़ने से प्राप्त होता है। बाबा सांई को प्राप्त करने में कर्म की अपेक्षा नहीं है। इसके लिए तो एकमात्र लालसा चाहिए, व्याकुलता चाहिए। साधक जितना अधिक बाबा के लिए व्याकुल होगा, उतनी ही शीघ्रता से उसे बाबा सांई मिलेंगे।


    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    ॐ सांई राम।।।
     
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #20 on: February 26, 2007, 08:28:53 PM »
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    सुख एक सपना है, दुख एक मेहमान
     
    परिवर्तन संसार का नियम है। कोई भी परिस्थिति सदा कायम नहीं रहती। मन को जो अनुकूल लगे उस परिस्थिति को हम सुख कहते हैं। और जिस परिस्थिति को मन प्रतिकूल समझता है, उसमें हम दुख का अनुभव करते हैं। यहाँ न सुख शाश्वत है, न दुख शाश्वत है। संसार से मिलने वाला दुख भी जाएगा और सुख भी जाएगा। इसीलिए संतों ने कहा है, सुख स्वप्न है और दुख मेहमान है। सुख स्वप्न है। अभिमान न करो, टूटेगा। सपना कब तक चलेगा? और दुख मेहमान है। रोओ नहीं। वह जाएगा, कितने दिन रहेगा? और मेहमान का तो ऐसा है जितना ज्यादा भाव दो, जितना ज्यादा प्रेम दो उतना ज्यादा टिकेगा। उसको प्रेम देना बंद कर दो। चला जाएगा।

    दुख में जब तुम रोते हो तो तुम उसको भाव दे रहे हो, उसका सम्मान कर रहे हो, ऐसे में तो वह ज्यादा टिकेगा। सुख इसलिए सुख है, क्योंकि जीवन में दु:ख है। दु:ख न होता तो सुख सुख न होता। इसलिए जीवन का दु:ख भी शाश्वत नहीं है। मिटने वाला है।

    एक राजा के घर एक संत आए। संतों के लिए राजा के मन में बड़ा प्रेम और श्रद्धा थी। संत कुछ दिन रुके। सत्संग हुआ। राजा को बड़ा आनंद आया। कुछ दिन बाद संत जाने के लिए तैयार हुए तो राजा ने कहा कि महाराज! बड़ा आनंद आया सत्संग में। साधु बोले, साधु तो चलता भला- महल हो या झोपड़ी, क्या फर्क पड़ता है? अब हम चले।

    जा रहे हैं तो कम से कम कोई मंत्र तो देकर जाइए। संत बड़े सरल और सीधे स्वाभाव के थे। बोले हाँ, हाँ जरूर ले लो, क्यों नहीं। हम हैं ही मंत्र देने के लिए। और उसी को देते हैं जिसको लेने की इच्छा हो। राजा बैठ गए हाथ जोड़कर और बोले, दीजिए!

    तो संत बोले, 'ये दिन भी चले जाएंगे।' इसको याद करते रहना, रटते रहना। इसी की माला जपना और अपने राजमहल की दीवारों पर भी लिखवा देना सब पर, ताकि बार-बार तुम्हारी दृष्टि जाए उस पर। राजा की बड़ी श्रद्धा थी उनके प्रति। बोले, ठीक है महाराज! राजा को पहले तो विचार हुआ कि ये कैसा मंत्र है? लेकिन लिखवा लिया सब जगह दीवारों पर। जब देखो राजा रटन करते रहते थे, ये दिन भी चले जाएंगे। तो हुआ ये कि सत्ता, संपत्ति और सुख में राजा बार-बार जब इस मंत्र का रटन करते थे तो धीरे-धीरे सावधान भी रहने लगे कि ये दिन भी चले जाएंगे तो अभिमान नहीं करना चाहिए। अपने समय का, अपनी संपत्ति का यथासंभव सदुपयोग करने लगे कि राज्य में कोई भूख या दु:ख से पीडि़त न रहे। राज्य समृद्ध होने लगा। राज्य को इतना सुखी देख करके शत्रु के मन में आया कि छीन लो। शत्रु बड़ा बलवान था, बड़ी सेना थी उसके पास तो उसने आक्रमण कर दिया और राज्य को जीत लिया।

    तो राजा को अपना राज्य छोड़कर भागना पड़ा और वो जंगल में चले गए। सब कुछ चला गया। न महल था, न संपत्ति। थोडे़ सेवक साथ में थे। राजा और रानी थे। लेकिन तब भी गुरु का मंत्र याद रहा कि ये दिन भी चले जाएंगे। तो वहाँ जंगल में भी उसने बड़ी सी शिला पर लिखवा दिया कि ये दिन भी चले जाएंगे। दुख में भी उस मंत्र को बार-बार रटने से राजा को बड़ा आश्वासन मिला। और राजा ने हिम्मत नहीं गँवाई, क्योंकि ये दिन भी चले जाएंगे। नहीं तो आदमी डिप्रेशन में आत्महत्या कर लेता है। ये परिस्थिति थोड़े ही कायम रहने वाली है? ये दिन भी चले जाएंगे। तो फिर राजा ने अपनी सेना को एकत्र किया। फिर से उसने अपने राज्य को वापस जीत लिया।

    तो यहाँ कोई भी परिस्थिति कायम नहीं है। संसार में परिवर्तन होता रहता है। परिवर्तन इस संसार का नियम है। इसलिए सुख में अभिमान और दुख में विलाप नहीं करना चाहिए।


    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    ॐ सांई राम।।।

     
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #21 on: February 27, 2007, 10:11:44 PM »
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  • मानव स्वरूप    

    मनुष्य के स्थूल शरीर का स्वरूप क्या है? जो भी है इसी के माध्यम से प्रभु के दिव्य अलौकिक अनादि स्वरूप का ज्ञान मिलता है। यह परमात्मा का सूक्ष्म बिंदु स्वरूप आत्मिक संस्कारपरक बीज रूप चैतन्य है। विशेष मनुष्य में विशेष शक्ति एक वरदानी रचना है। इसमें मन, बुद्धि और संस्कार का विशेष योगदान है। ब्रह्मांड में असंख्य लोक हैं और प्रत्येक लोक में बहुत से जीव निवास करते हैं। यह सभी प्रभु की शक्ति से उत्पन्न जीव हैं। प्रभु ने मनुष्य मात्र में ही शक्ति, यश, धन, ज्ञान, सौंदर्य, त्याग और ऐश्वर्य प्रदान किया है। वह अपने मन, बुद्धि द्वारा इसका उपयोग कैसे करता है यह उसके विवेकी स्वरूप पर निर्भर है। मन ने जिस विषय में सोचा, जिसके बारे में विचार किया, वह तब तक फलीभूत नहीं होता जब तक हमारे मन की स्मृति उससे तेज न हो। यह प्रारब्ध पर निर्भर है। यह अनादि आत्मिक स्वरूप की स्मृति है। महर्षि पराशर ने कहा है, अहम्, त्वं च तथात्ये अर्थात् मैं, तुम और अन्य सारे जीव सभी दिव्य हैं भले ही हमारे शरीर भौतिक हैं।

    मनुष्य जन्म समय के से ही मृत्यु की ओर अग्रसर होता रहता है, पर अंतिम अवस्था मृत्यु कहलाती है, जब मनुष्य का शरीर आत्माविहीन हो जाता है। मुख्यत: सभी जीवों में छह परिवर्तन होते हैं- वे जन्म लेते हैं, बढ़ते हैं कुछ समय तक सांसारिक भोग करते हैं, संतान उत्पन्न करते हैं क्षीण होते हैं और अंत में मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इन छह परिवर्तनों में पहला गर्भ से मुक्ति है, यही स्थूल शरीर का शुभारंभ है और यही मनुष्य का प्रथम स्वरूप है। प्रत्येक क्रिया का कोई न कोई कारण होता है। इस मानवता का कारण प्रभु द्वारा सृष्टि रचना और प्रसार है। मनुष्य ही मनुष्य का बीज है। इसी प्रकार हर एक तत्व का अपना-अपना बीज है जिसके द्वारा प्रकृति सृष्टि रचना का कार्य संपन्न करती है। शून्य और शून्य मिलकर शून्य ही होता है, शून्य से शून्य घटा दें या जोड़ दें तो परिणाम शून्य ही रहता है। परब्रह्म का भी यही स्वरूप है। परब्रह्म के भिन्न-भिन्न अंश के रूप में जीवों को एक विशिष्ट उद्देश्य को पूरा करना होता है। मनुष्य का अपना विशिष्ट स्थायी स्वरूप नहीं होता, यह स्थिति बदलती रहती है। जो उसके हर अवस्था में कर्मो पर आधारित होती
     

    मेरा साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा मेरा साँई

    जय सांई राम।।।
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #22 on: February 28, 2007, 11:20:34 PM »
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  • जय सांई राम।।।

    इंद्रधनुषी जीवन 

    यह दुनिया रंग-बिरंगी है। जीवन में रंगों की अपनी विशेषता है। क्या आपने कभी कल्पना की है कि यदि यह संसार रंग विहीन होता तो इसका स्वरूप कैसा होता? रंग-बिरंगे फूल, पशु-पक्षी, कुछ भी न होते। सर्वत्र एक रंग होता, एकरसता होती,सब कुछ नीरस होता। सृष्टि में रंग हैं तो रस है। रस है तो जीवन है। प्रकृति के नियंता को इसका पूर्वाभास था। उसने जीवन की रचना की तो उसमें रंग भी भरे। ईश्वर की पाठशाला में चित्रकला का जितना महत्व है उन चित्रों में रंग भरने का उससे भी अधिक महत्व है। सृष्टि के रचयिता ने नीला आकाश बनाया तो मेघों को शुभ्रता दी। प्रकाश और अंधकार को पृथक रंग प्रदान किए हैं।

    एक माह में ही कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष के रंगों को जीवन की धूप-छाया और हर्ष-विषाद के प्रतीक रूप में अनुभव किया जा सकता है। यदि श्वेत रंग सादगी का प्रतीक है तो नीला रंग विराटता और गहराई का आभास देता है। पीली सरसों देखकर वसंती मौसम सहज ही जीवंत हो उठता है। जीवन इंद्रधनुषी है। यह रंगों से सजा हुआ एक पुष्प गुच्छ है। यह मुरझाता है, फिर भी हवाओं में अपनी रंग स्मृति और गंधमयता विसíजत कर जाता है। जीवन के अनेक रंग हैं। इसको रंगमंच कहा गया है। इसमें प्रत्येक प्राणी पात्र है, जिसका नाट्यनिर्देशक कोई और नही अपने बाबा सांई है। इस रंगमंच की परिणति है, जहां सब कुछ समाप्त हो जाया करता है। जीवन का रंगमंच रह जाता है। कथा स्मृतियां रह जाती हैं। पात्र बदल जाते हैं। हमारी संस्कृति में रंगों को प्रतीक रूप में मान्यता प्रदान की गई है। फूलों की बहुरंगी पंखुडि़यां हों, या तितली के पंख। ये नयनाभिराम ही नहीं होते, इनमें एक चित्ताकर्षक शक्ति होती है। रंगों की यह शक्ति उस चुंबकत्व को जागृत करती है जिससे जीवन-जगत में प्रेम की प्रवृत्ति का संचार होता है। प्रेम यदि जीवन की अनिवार्यता है तो रंग उसकी आधारभित्ति हैं। आज के भौतिकवादी समय में तनाव और कुंठा के मूल कारण हमारे अंतरंग का धूमिल होना है। इसे खोजना होगा। यदि हमारे भीतर का रस सूखने लगा है तो फिर इसकी एकमात्र वजह भीतर के रंग की अनुपस्थिति ही है। यह ध्यान रहे कि अंत:करण के रंगों को चटख किए जाने के लिए ही मनुष्य उत्सवोन्मुखी होता है।

    इसलिये आइये सब मिलकर अपने बाबा से दुआ मांगें कि वो हमारे जीवन को भी इंद्रधनुषी जीवन में परिवर्तित करने की इच्छा जाग्रित करें और हमारे भीतर सूखे रंगों को फिर से हरा करने मे हमारी मदद करें।

    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    ॐ सांई राम।।।
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #23 on: March 01, 2007, 11:52:43 PM »
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  • जय सांई राम।।।

    प्रभु के ध्यान से कल्याण संभव

    गुरु कृपा से ही प्रभु का मिलन और दर्शन होता है। जीव को थोड़ा सा सम्मान मिल जाए तो वह अभिमानी बन जाता है यही विनाश की निशानी है। यदि हमारा मन निर्मल व द्वेष रहित होगा और गुरु का मार्ग दर्शन मिलेगा तो प्रभु के दर्शन कर मोक्ष पाना मानव के लिए कठिन नहीं होगा अर्थात हमें प्रभु प्राप्ति के अपने उद्देश्य को पाने के लिए सदा प्रयासरत रहना चाहिए।

    श्री सांई राम को पाने के लिए उनके आदर्शो को जीवन में उतारना होगा उनका अनुकरण करना होगा। संसार से मन को हटाकर बाबा के चरणों में लगाने से ही जीव का कल्याण संभव है। प्रभु की खोज दुनिया और सुख-सुविधाओं में जीवन व्यतीत कर रहा है। जबकि प्रभु तो कण-कण में व्याप्त है। प्रभु जीव के भीतर बसे हुए हैं इसलिए प्राणी को चाहिए कि वह हर प्राणी के अंदर बसे प्रभु को सच्ची आंखों से देखें। अनेक मानव सत्संग आदि को ढोंग करार देते हैं जबकि दोष सत्संग में नहीं होता बल्कि या तो वे मानव भ्रांति का शिकार होते है या उनके मन में दोष यानी मेल होता है। इसलिए उन्हें सत्संग अच्छा नहीं लगता है। गुरु देव तो गुरु मुख व मन मुख दोनों को समान समझकर उपदेश करते हैं। उनकी रहमत तीव्र बुद्धि व मंद बुद्धि दोनों पर समान रूप से बरसती है। इसी कारण गुरु सगुण रूप में जीव के कल्याण में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। मनुष्य को हमेशा अच्छे विचार अपनाने चाहिए और प्राणी मात्र का कल्याण सोचना चाहिए। संसार के सभी प्राणी परमपिता परमेश्वर की कृति होते हैं और उन्हें पीड़ित करना प्रभु को दुखी करने के समान हैं। सत्संग करने से मानव को ज्ञान प्राप्त होता है।

    मगर किसी मनुष्य के पास केवल ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं होता है क्योंकि यदि मानव में केवल ज्ञान हो मगर उन्हें व्यक्त करने के लिए शब्द न हो तो वह ज्ञान व्यर्थ है क्योंकि बिना शब्दों के उस ज्ञान को दूसरों पर प्रदर्शित करने में मनुष्य नाकाम रहता है। जिससे वह ज्ञान आत्म-केंद्रित होकर रह जाता है और अन्यों के काम नहीं आ पाता है। जबकि यदि मानव अकेले सरस्वती की स्तुति करता है तो उसे शुद्ध भाषा बोलनी तो अवश्य आ सकती है मगर उससे वह ज्ञानी नहीं हो जाता। यानी मानव का भाषा पर कितना ही प्रभुत्व क्यों ना हो मगर ज्ञान के बिना शब्दों का शुद्ध उच्चारण किसी काम का नहीं होता है। इसलिए हमें ज्ञान व शब्द अर्थात वाणी दोनों को ही पाने का प्रयास करना चाहिए।


    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    ॐ सांई राम।।।
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    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #24 on: March 03, 2007, 12:06:43 AM »
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    आत्मा की जगह

    एक बार एक शिष्य ने अपने गुरु से पूछा, 'आत्मा कहां है?' गुरु ने कुछ उत्तर न देकर शिष्य से नमक की डली लाने को कहा और उसे बाल्टी में डलवा दिया। अगले दिन उन्होंने अपने शिष्य को बुलाकर कहा, 'उस बाल्टी से नमक ले आओ।' शिष्य ने जाकर देखा और लौटकर गुरु से कहा, 'उसमें नमक तो है ही नहीं।' गुरु बोले, 'बेटा! तुम जल को चखो।' शिष्य ने उसे चखा तो नमकीन पाया। गुरु ने कहा, 'इस बर्तन के पानी के ऊपरी हिस्से को गिरा दो और बीच के पानी को चखो। शिष्य ने ऐसा ही किया और पाया कि वह पानी भी नमकीन है। अब गुरु ने बीच के पानी को फिंकवाकर नीचे के पानी का स्वाद पूछा। शिष्य ने चखकर बताया कि यह भी नमकीन है।

    गुरु ने समझाया, 'जिस प्रकार अदृश्य होकर यह नमक इस जल में मौजूद है उसी तरह आत्मा भी शरीर में है। जल की अवस्था से नमक की उपस्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ता। पानी के सूख जाने पर भी नमक का अस्तित्व रहता है, इसी प्रकार शरीर के नष्ट हो जाने पर भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है।'


    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #25 on: March 04, 2007, 07:54:38 AM »
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    साधना से बढ़ता है बाबा सांईश्वर के प्रति प्रेम


    प्रेम आत्मा का दर्पण है। प्रेम की ताकत के आगे बाबा भी बेबस हो जाते हैं अर्थात प्रेम में वह शक्ति है कि मानव बाबा को पा सकता है। बाबा से प्रेम करने वाला भक्त मृत्यु से नहीं डरता क्योंकि वह अपना तन-मन उनको को समर्पित कर चुका होता है। ज्ञानी साधकों का भगवान के प्रति प्रेम गहरा और घना होता है और जैसे-जैसे वे साधना करते जाते हैं वैसे-वैसे समय के साथ उनका प्रेम बढ़ता ही जाता है।

    प्रेम का भाव छिपाने से भी छिपता नहीं है। प्रेम जिस हृदय में प्रकट होकर उमड़ता है उस को छिपाना उस हृदय के वश में भी नहीं होता है और वह इसे छिपा भी नहीं पाता है। यदि वह मुंह से प्रेम-प्रीत की कोई बात न बोल पाए तो उसके नेत्रों से प्रेम के पवित्र आंसुओं की धारा निकल पड़ती है अर्थात् हृदय के प्रेम की बात नेत्रों से स्वत: ही प्रकट हो जाती है। प्रेमी जिज्ञासु को चाहिए कि वह प्रेम और सेवा-भक्ति में सदा सुदृढ़ रहे। ऐसा करने पर उसे अवश्य ही मोक्ष का फल मिलेगा। संत जनों के व गुरुओं के सदुपदेश से जब उसे आत्म बोध हो जाएगा तो उसका इस संसार में आवागमन मिट जाएगा। बाबा मानव के बाहरी साज श्रृंगार से प्रभावित नहीं होते हैं बल्कि उसके लिए तो अलौकिक श्रृंगार की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार सुहागन अपने पति को मोहित करने अर्थात पाने के लिए श्रृंगार करती है उसी प्रकार बाबा से प्रेम करने वाले भक्त को प्रेम रूपी पायल पहन कर नेत्रों में अंजन लगाकर सिर में शील का सिंदूर भरना होगा अर्थात बाबा को पाने के लिए इन सब गुणों को धारण करना जरूरी है।

    यह संसार बाबा की भक्ति और प्रेम का दरबार है। यहां सत कर्म करके हमें बाबा की कृपा अर्थात मोक्ष पाने का प्रयास करना चाहिए मगर इसके लिए मानव में त्याग भाव का होना जरूरी है। बाबा की कृपा व उनका प्रेम केवल उन्हीं को मिल सकता है जिन्हें संत जनों का साथ व गुरुओं से ज्ञान मिला हो।


    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई।

    ॐ सांई राम।।।
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #26 on: March 05, 2007, 02:33:51 AM »
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    सत्संग से प्रभु प्राप्ति सुगम-

    जिस प्रकार गन्ने को धरती से उगाकर उससे रस निकालकर मीठा तैयार किया जाता है और सूर्य के उदय होने से अंधकार मिट जाता है उसी प्रकार सत्संग में आने से मनुष्य को प्रभु मिलन का रास्ता दिख जाता है और उसके जीवन का अंधकार मिट जाता है। सत्संग में आने से मानव का मन साफ हो जाता है और मानव पुण्य करने को प्रेरित होता है जिससे उसे प्रभु प्राप्ति का मार्ग सुगमता से प्राप्त होता है।

    मानव द्वारा किए गए पुण्य कर्म ही उसे जीवन की दुश्वारियों से बचाते हैं और जीवन के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलने में सहायक होते हैं। जीवन में असावधानी की हालत में व विपरीत परिस्थितियों में यही पुण्य कर्म मनुष्य की सहायता करते हैं। अगर मनुष्य का जीवन में कोई सच्चा साथी है तो वह है मनुष्य का अर्जित ज्ञान और उसके द्वारा किए गए पुण्य कर्म। मगर इसके लिए मनुष्य को अपनी बुद्धि व विवेक के द्वारा ही उचित अनुचित का फैसला करना होता है। कोई भी मानव अपनी बुद्धि व विवेक अनुसार ही जीवन में अच्छे-बुरे व सार्थक-निरर्थक कार्यो में अंतर को समझता है। सत्संग वह मार्ग है जिस पर चलकर मानव अपना जीवन सफल बना सकता है। जिस प्रकार का शास्त्रों के श्रवण से ही सुशोभित होता है न कि कानों में कुण्डल पहनने से। इसी प्रकार हाथ की शोभा सत्पात्र को दान देने से होती है न कि हाथों में कंगन पहनने से। करुणा, प्रायण, दयाशील मनुष्यों का शरीर परोपकार से ही सुशोभित होता है न कि चंदन लगाने से।

    शरीर का श्रृंगार कुण्डल आदि लगाकर या चंदन आदि के लेप करना ही पर्याप्त नहीं है क्योंकि यह सब तो नष्ट हो सकता है परन्तु मनुष्य का शास्त्र ज्ञान सदा उसके साथ रहता है। मनुष्यों द्वारा किए गए दान व परोपकार उसके सदा काम आते हैं और परमार्थ मार्ग पर चलने वाला मनुष्य ही मानव जाति का सच्चा शुभ चिंतक होता है। प्रेम से सुनना समझना व प्रेम पूर्वक उसका मनन कर उसका अनुसरण करना ही मनुष्य को फल की प्राप्ति कराता है। लेकिन मनुष्य की चित्त वृत्ति सांसारिक पदार्थो में अटकी होने के कारण वह असत्य को ही सत्य मानता है। इसी कारण वह दुखों को भोगता है। शरीर को चलाने वाली शक्ति आत्मा अविनाशी सत्य है और वही कल्याणकारी है। 
     


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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #27 on: March 05, 2007, 08:32:51 PM »
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    आनंद ही नित्य
     
    रात्रि पानी बरसा और मैं भीतर आ गया था। खिड़कियां बंद थीं और बड़ी घुटन महसूस होने लगी थी। फिर खिड़कियां खोलीं और हवा के नए-नहाए झोकों से ताजगी बही-और फिर मैं कब सो गया, कुछ पता नहीं।

    सुबह एक सज्जान आए थे। उन्हें देखकर रात की घुटन याद आ गयी थी। लगा जैसे उनके मन की सारी खिड़कियां, सारे द्वार बंद हैं। एक भी झरोखा उन्होंने अपने भीतर खुला नहीं छोड़ा है, जिससे बाहर की ताजी हवाएं, ताजी रोशनी भीतर पहुंच सके। और मुझे सब बंद दिखने लगा। मैं उनसे बातें कर रहा था और मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे कि मैं दीवारों से बातें कर रहा हूं। फिर मैंने सोचा, अधिक लोग ऐसे ही बंद हैं और जीवन की ताजगी और सौंदर्य तथा नवीनता से वंचित हैं।

    मनुष्य अपने ही हाथों अपने को एक कारागार बना लेता है। इस कैद में घुटन और कुंठा मालूम होती है, पर उसे मूल कारण का-ऊब और घबराहट के मूल स्त्रोत का-पता नहीं चलता है। समस्त जीवन ऐसे ही बीत जाता है।

    जो मुक्त गगन में उड़ने का आह्लंाद ले सकता था, वह एक तोते के पिंजरे में बंद सांसें तोड़ देता है।

    चित्त की दीवारें तोड़ देने पर खुला आकाश उपलब्ध हो जाता है। और खुला आकाश ही जीवन है। यह मुक्ति प्रत्येक पा सकता है। और यह मुक्ति प्रत्येक को पा लेनी है।

    यह मैं रोज कह रहा हूं, पर शायद मेरी बात सब तक पहुंचती नहीं है। उनकी दीवारें मजबूत हैं। पर दीवारें कितनी भी मजबूत क्यों न हों, वे मूलत: कमजोर और दुखद हैं। उनके विरोध में यही आशा की किरण है कि वे दुखद हैं। और जो दुखद है, वह ज्यादा देर तक टिक नहीं सकता है। केवल आनंद ही नित्य हो सकता है।


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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #28 on: March 08, 2007, 07:36:10 AM »
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    बाबा सांईश्वर एक कुशल व्यापारी हैं: 
     
    बाबा ने दुनिया की छोटी-मोटी सभी खुशियां तो तुम्हें दे दी हैं, लेकिन सच्चा आनंद अपने पास रख लिया है। और उस परम आनंद को पाने के लिए तुम्हें उनके पास सिर्फ उनके ही पास जाना होगा। बाबा सांईश्वर के साथ चालाकी करके,  उनसे धोखा करने की कोशिश मत करो। अधिकतर तुम्हारी प्रार्थनाएं और अनुष्ठान बाबा को छलने के प्रयास हैं। तुम कम से कम देकर बाबा से अधिक से अधिक पाना चाहते हो और बाबा यह जानते हैं। वे एक कुशल व्यापारी हैं। वे तुम्हारे साथ और भी चतुराई करेंगे। अगर तुम गलीचे के नीचे जाओगे तो वे फर्श के नीचे पहुंच जाएंगे।

    निष्कपट रहो, बाबा ज्यादा चालाकी मत करो। एक बार तुम्हें परम आनंद आए, फिर सब कुछ आनंदमय है।
    इस परमानन्द के बिना संसार की कोई भी खुशी स्थायी नहीं।

    असीम धैर्य व कुशल खरीदार बनों।

    मान लो तुम बाबा सांईश्वर के पास जाते हो, तुम्हें वरदान मिलता है और तुम चले आते हो। जब तुम्हारा उद्देश्य केवल कोई वरदान पाने का है, तब तुम जल्दी में रहते हो।

    एक अन्य व्यक्ति, जो जानता है कि बाबा सांईश्वर उसके हैं,  उसको किसी चीज की भी जल्दी नहीं। उसमें असीम धैर्य होता है।
    जल्दी से कुछ पाने की चाह तुम्हें डगमगा देती है, तुम्हें छोटा बनाती है। अनंत प्रतीक्षा में रहो, असीम धैर्य रखो। तब तुम्हें प्रतीत होगा कि बाबा सांईश्वर तुम्हारे ही हैं। सजगता द्वारा या साधना द्वारा, दोनों से ही तुम इसे अनुभव कर सकते हो।

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #29 on: March 08, 2007, 10:08:34 PM »
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    बादशाहों का बादशाह

    एक बार संगीत के जादूगर तानसेन से बादशाह अकबर ने पूछा, 'क्या तुम से भी अच्छा गाने वाला इस दुनिया में कोई है?' तानसेन ने कहा, 'हां जहांपनाह, मैं अपने गुरु स्वामी हरिदास के चरणों की धूल भी नहीं हूं।'

    ' कभी मुझे भी उनका संगीत सुनाओ।'

    इस पर तानसेन ने गंभीर होकर कहा, 'हुजूर! वह किसी के सामने गाते नहीं हैं।' 'क्यों?' अकबर ने आश्चर्य से पूछा। 'हुजूर वह अपनी मर्जी के मालिक हैं।' अकबर के मन में एक टीस सी उठी। उनका संगीत सुनने की उसकी इच्छा तीव्र हो गई। उसने कहा, 'तानसेन, कोई रास्ता निकालो। हमें उनका संगीत सुने बिना चैन नहीं मिलेगा।'

    आखिर तानसेन ने एक तरकीब सोची। वह अकबर को लेकर उनके आश्रम में जा पहुंचा। उसने बादशाह को पेड़ के पीछे छिपा दिया। हरिदास उस समय समाधिस्थ थे। तानसेन जाकर उनके चरणों में गिर पड़ा। 'कौन, तानसेन!' गुरु जी ने आंखें खोलकर कहा, 'कहो कैसे हो? स्वास्थ्य ठीक है? कैसे आना हुआ? '

    ' गुरु जी! कुछ भूल हो रही है।'

    ' अभी देखते हैं सुनाओ।' गुरु जी के ऐसा कहने पर तानसेन ने तानपूरा उठाया और स्वर निकाला। एक स्थान पर जानबूझकर उसने गलत स्वर विन्यास किया। गुरु जी ने वहीं रोक दिया। तानसेन ने कहा, 'गुरु जी यहीं भूल हो रही है।' गुरु जी ने तानपूरा उसके हाथ से लिया और फिर उसमें उंगलियां चलाने लगे। उन्होंने ऐसे स्वर निकाले कि उड़ते पंछी ठहर गए। कुछ क्षण गाकर गुरु जी ने पूछा, 'समझे तानसेन?'

    ' हां गुरु जी, अब मैं गाता हूं।' तानसेन ने तानपूरा लेकर वही राग सुना दिया। गुरु जी ने प्रसन्न होकर कहा, 'ठीक है। अब भूलना नहीं। इतने बड़े गायक को शोभा नहीं देतीं इस प्रकार की भूलें।' तानसेन उठा और उन्हें दंडवत प्रणाम कर आश्रम से बाहर निकल पड़ा।

    बाहर आकर उसने देखा कि बादशाह सलामत मूर्छित से बैठे हैं। 'आपने सुना जहांपनाह।' तानसेन ने पूछा। 'तुम ऐसा क्यों नहीं गा सकते?' अकबर ने पूछा। तानसेन ने कहा, 'हुजूर! मैं बादशाह सलामत के लिए गाता हूं, जबकि गुरु जी उसके लिए गाते हैं जो बादशाहों का बादशाह है।'

    अपना सांई भी उस अल्लाह के पास हम सब की फरियाद को पहुंचाता है। बाबा हम जैसे दीन दुखियों के गीतों की फरियाद वहां तक पहुंचाने के लिये ही इस पृथ्वी पर अवतिरित हुए थे।  दीन दुखियों के दर्द को समझने वाला उनके दर्द मे शामिल होने वाला ही बादशाहों का बादशाह फकीरों का फकीर कहलाता है। तभी तो हमारे बाबा फकीरी को अव्वल नम्बर की बादशाही मानते थे।

    अपना सांई सबसे प्यारा, सबसे न्यारा अपना सांई

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