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Author Topic: आज का चिन्तन  (Read 169044 times)

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Offline Ramesh Ramnani

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Re: आज का चिन्तन
« Reply #45 on: April 04, 2007, 05:42:28 AM »
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  • जय सांई राम।।।

    मानवीय जीवन में ज्ञान का दीपक जलाते हैं सदगुरू

    जिस प्रकार से अंधकार को मिटाने के लिए उसके पीछे लाठी लेकर नहीं भागना पड़ता बल्कि उसे दूर करने के लिए दीपक दीया या बिजली का बल्ब जलाया जाता है, रोशनी करना जरूरी है वैसे ही सदगुरू अपनी शरण में आने वाले के मन में व्याप्त अज्ञानता रूपी अंधकार को दूर करने के लिए ज्ञान का दीपक जला देते हैं।

    जैसे प्रकाश के जलते ही अंधकार स्वत: नष्ट होने लगता है वैसे ही सदगुरु की संगत से अंधकार खत्म होने लगता है और मनुष्य की दृष्टि ही बदल जाती है। गुरु के आशीर्वाद से नाशवान पदार्थो के प्रति अरुचि होने लगती हैं और सद पथ पर चलने की प्रेरणा मिलती है जिससे परमात्मा का साक्षात्कार सुलभ हो जाता है इसलिए मनुष्य के लिए जीवन में सच्चे गुरु का चुनाव आवश्यक है। गुरु की संगत से प्रकाश का मार्ग प्रशस्त होता है और प्रभु की प्राप्ति का रास्ता सुगम हो जाता हैं। बाबा को पाने के लिए पहले मनुष्य को अपना मन निर्मल करते हुए अहम व लोभ का त्याग करना होगा। जो मनुष्य जीवन भर मोह जाल में फंस कर प्रभु का नाम लेना भी भूल जाते है उन्हें कभी सच्ची मानसिक शांति नहीं मिलती और जीवन में हर खुशी अधूरी ही रह जाती हैं। सच्चा गुरु वही है जो अपने शिष्य को सही मार्ग दिखलाए और उसे प्रभु प्राप्ति व मानसिक शांति पाने का रास्ता बताते हुए उसका उद्धार करे।

    जो मनुष्य अहंकार का त्याग नहीं करता व मैं की भावना में ही उलझा रहता है वह कभी बाबा का प्रिय पात्र नहीं बन सकता। हर प्राणी को समान समझते हुए उससे ऐसा व्यवहार करना चाहिए जैसा आप उससे अपेक्षा रखते हैं।

    हर मनुष्य में परोपकार की भावना होनी चाहिए। साथ ही नेकी कर दरिया में डाल वाली मानसिकता भी होनी चाहिए। मनुष्य को कभी भी किसी पर उपकार करके उसका एहसान नहीं जताना चाहिए। किसी पर एहसान करके जताने से अच्छा है कि एहसान किया ही न जाए।     
                         
    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    ॐ सांई राम।।।

    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #46 on: April 04, 2007, 09:34:17 AM »
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  • जय सांई राम।।।

    दोस्ती है अहम अकेले व्यक्ति के लिए  

    जीवन में कई मोड़ ऐसे आते हैं जब हमें जरूरत महसूस होती है ऐसे दोस्त की जिससे हम अपने दिल की हर बात बिना सोचे-समझे बेझिझक कह सकें, जब भी कोई हम कोई अच्छी किताब पढ़ें या कोई अच्छी फिल्म देखें तो उसके बारे में सबसे पहले अपने दोस्त को बताएं, दोस्त भी ऐसा हो कि बिना कहे ही आपके दिल की बात समझ जाए और आपके बोलने से पहले ही वह आपका वाक्य पूरा कर दे।

    रिश्तेदारों से ज्यादा भरोसेमंद दोस्त

    ऐसे लोग जो किसी कारण से अपना जीवन अकेले व्यतीत कर रहे होते हैं, उनके लिए उनके दोस्त ही सब कुछ होते हैं क्योंकि रिश्तेदारों के साथ संबंध निभाना किसी भी व्यक्ति की मजबूरी हो सकती है, जबकि दोस्ती में ऐसी कोई लाचारी नहीं होती। हम अपने रिश्तेदारों का खुद चुनाव नहीं कर सकते लेकिन हम अपनी मर्जी से अपने दोस्त चुनने के लिए आजाद होते हैं। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि हमारी दोस्ती स्वाभाविक रूप से वैसे ही लोगों से होती है, जिनसे हमारे विचार मिलते हैं।

    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    ॐ सांई राम।।।
    « Last Edit: April 04, 2007, 09:36:51 AM by Ramesh Ramnani »
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #47 on: April 05, 2007, 10:29:54 PM »
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  • जय सांई राम।।।

    क्रमशः

    आपने खुद यह महसूस किया होगा कि रिश्तेदारों की तुलना में दोस्त आपके दिल के ज्यादा करीब होते हैं, वे आपकी मन:स्थिति को ज्यादा बेहतर ढंग से समझ पाते हैं, आपके दोस्त आपको हर हाल में खुश देखना चाहते हैं। इसीलिए कोई भी अकेला इंसान खुद को अपने दोस्तों के बीच ज्यादा सहज महसूस करता है। उसे इस बात की कोई चिंता नहीं रहती कि उसके दोस्त उसके बारे में क्या सोचेंगे, उसे दोस्तों के सामने अपने दिल की बात कहने में कोई झिझक महसूस नहीं होती।

    मेरी एक मित्र है जिसके पिता की मौत बचपन में ही हो गई, उसके ऊपर छोटे भाई-बहनों और मां की जिम्मेदार थी, इसलिए खुद जॉब करते हुए इन जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते उसकी अपनी शादी की उम्र निकल गई। आज उसके छोटे भाई-बहन अपने पारिवारिक जीवन में व्यस्त हो गए हैं और उसके सभी पुराने दोस्तों की शादी हो गई है, फिर भी अपने दोस्तों से उनका लगातार संपर्क बना रहता है। वो कई बार कहती है कि  आज जब मेरी उम्र 42 वर्ष हो चुकी है फिर भी मेरे कुछ खास पुराने दोस्त जिनमें स्त्री और पुरुष दोनों ही हैं आज भी मुझसे उसी गर्मजोशी से मिलते हैं, जैसे कि कॉलेज के दिनों में मिला करते थे। कई ऐसी बातें होती हैं, जिन्हें अपने भाई-बहनों के साथ शेयर करने में झिझक महसूस होती है, ऐसी बातें सिर्फ करीबी दोस्तों से ही की जा सकती हैं। इसलिए दोस्तों के साथ बैठकर घंटों बातें करना और पुरानी यादों को ताजा करना मुझे बहुत सुकून देता है। लेकिन अकेले रहते हुए मैंने यह जरूर महसूस किया है कि अपनी पुरानी दोस्ती को बरकरार रखने की पहल मुझे ही करनी पड़ती है क्योंकि दोस्तों के साथ की जरूरत मुझे ज्यादा होती है। इसलिए मैं महीने में एक बार दोस्तों के साथ अपने घर पर गेट-टु-गेदर की पार्टी जरूर रखती हूं ताकि हम दोस्त सब साथ मिल-जुल सकें।

    अपना साई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    ॐ सांई राम।।।
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #48 on: April 07, 2007, 12:53:04 AM »
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  • जय सांई राम।।।

    उसके यहां कोई भेदभाव नहीं

    कुछ दिनों पहले उड़ीसा के पुरी स्थित भगवान जगन्नाथ के मंदिर में एक गैर हिंदू चला गया। उसके 'अनधिकृत प्रवेश' के कारण भगवान को स्नान कराया गया और मंदिर की साफ-सफाई हुई। कितनी बेतुकी बात है? जो भगवान सबको पवित्र करता है, वही अपवित्र हो गया? किसी पेड़ की छाया में जब कोई हिंदू या मुसलमान खड़ा होकर सुस्ताना चाहता है, तो क्या पेड़ उसकी जाति देख कर अपनी छाया देता है? वह तो कभी नहीं कहता कि तुम मुसलमान हो, तुम सिख हो, तुम हिंदू हो, तुम ईसाई हो, तुम बुद्ध हो। भगवान क्या पेड़ से भी गए-बीते हो गए। क्या उनमें पेड़ जैसी उदारता भी नहीं?

    किसी व्यक्ति के छूने से पेड़ पवित्र या अपवित्र नहीं होता। उसे कुदरत ने पैदा किया है। परंतु पूजा स्थल मनुष्य ने बनाए हैं। जो मनुष्य ने बनाया है, उसमें दीवारें हैं, उसमें छूत-अछूत का भेद है। वह कहता कि फलाँ आ सकता है, फलाँ नहीं आ सकता। नाम वह भगवान की लेता है पर हुक्म अपनी चलाता है, तुम आ सकते हो, पर तुम नहीं आ सकते।

    मनुष्य का बनाया हुआ है यह भेद-भाव, बनाने वाले ने तो कोई अंतर नहीं रखा। मनुष्य के बनाए नलके या कुएँ में छुआ छूता होता है, कहीं वह ऊँची जात वालों की होती है, कहीं वह नीची जात वालों की होती है। लेकिन भगवान की बनाई हुई जो नदी है वह किसी से छुआछूत नहीं करती। उसमें कोई भी जाकर पानी पी सकता है। हमारा समाज ही सिखाता है, आपस में बैर रखना। धर्म व ईश्वर की तरफ से ऐसा कोई विधान नहीं है। जो अज्ञानी है, वह चाहे जगन्नाथ पुरी में बैठे या वाराणसी में, यह तथ्य समझ नहीं पा रहा।

    एक समय तीन ब्राह्माण गंगा स्नान करने गए, परंतु उके पास लोटा नहीं था। वहीं पर कबीर भी स्नान कर रहे थे। पंडितों की परेशानी भांपकर कबीर ने कहा, मेरा यह लोटा है इसे ले जाओ। वे ब्राह्माण कबीर को अछूत मानते थे, इसलिए लोटा लेने को तैयार नहीं हुए। कबीर ने उसे मिट्टी से तीन बार घिस कर उसे साफ करके दिया, तब ब्राह्माणों ने लोटा ले लिया और गंगा स्नान के लिए जाने लगे। कबीर ने पीछे से आवाज लगाई, 'लेकिन पंडितों, आप लोगों से पहले मैं इस गंगा में डुबकी लगा चुका हूँ, अब उसे मिट्टी से कैसे साफ करूँ?' तीनों को बात समझ में आ गई, वे बड़े शर्मसार हुए और क्षमा मांगने लगे।

    आदमी-आदमी के बीच सचमुच में कोई अंतर नहीं है। जब तक सांस आती है, हम जीवित हैं और जब अंतिम सांस जाएगी, तब सबका एक ही हाल होना है। चाहे दफनाओ, जलाओ, चाहे पेड़ पर लटका कर चीलों को खिलाओ, कोई फर्क नहीं पड़ता। क्या चीज है वह जिसके कारण हम जीवित हैं? उस शक्ति को जानना, उसका अनुभव करना -सारे भेदभाव की दीवारों को ध्वस्त कर देता है। मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव करने वाले धर्म के ठेकेदार नहीं समझते कि किसी भी मनुष्य के मंदिर प्रवेश से मंदिर अपवित्र नहीं होता और न ही कोई नलका या कुएँ का पानी पीने से अपवित्र होता है। कहा है, 'हित अनहित पशु पक्षी हि जाना, मानुष तन गुण ज्ञान निधाना।' अपना भला-बुरा तो पशु- पक्षी भी अच्छी तरह से जानते हैं, लेकिन मनुष्य में और भी कई विशेषताएँ हैं, दूसरे प्राणियों की तुलना में तो वह ज्ञान का खजाना है।

    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    ॐ सांई राम।।  
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #49 on: April 07, 2007, 06:45:17 AM »
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  • Quilt Of Holes And The Illumination Of Christ

    An E-mail forward

    As I faced my Maker during the last judgment, I knelt before the Lord along with all the other souls. Before each of us we laid our lives like the squares of a quilt in many piles; an angel sat before each of us sewing our quilt squares together into a tapestry that was our life.

    As my angel took each piece of cloth off the pile, I noticed, to my horror, how ragged and empty each of my squares was. They were filled with giant holes. Each square was labelled with a part of my life that had been difficult, the challenges and temptations i was faced with in every day life. I saw hardships that i endured, which were the largest holes of all. I glanced around me. Nobody else had such squares. Other than a tiny hole here and there, their tapestries were filled with rich colours and the bright hues of worldly fortune. I gazed upon my own life and was disheartened.

    My angel was sewing the ragged pieces of cloth together, threadbare and empty; it seemed like binding air. Finally the time came when each life was to be displayed, held up to the light, the scrutiny of truth. The others rose; each in turn, holding up their tapestries. So filled their lives had been. My angel looked upon me, and nodded for me to rise.

    My gaze dropped to the ground in shame. I hadn’t had all the earthly fortunes. I had love in my life, and laughter. But there had also been trials of illness, and wealth, and false accusations that took from me my world, as i knew it. I had to start over many times. I often struggled with the temptation to quit, only to somehow muster the strength to pick up and begin again. I spent many nights on my knees in prayer, asking for help and guidance in my life. I had often been held up to ridicule, which i endured painfully, each time offering it up to the Father in the hope that i would not melt within my skin beneath the judgmental gaze of those who unfairly judged me.

    Now, the time had come; i had to face the truth. My life was what it was, and i had to accept it for what it was. I rose and slowly lifted the combined squares of my life to the light. An awe-filled gasp filled the air. I gazed around at others who stared at me with wide eyes. Then, i looked upon the tapestry before me. Light flooded the many holes, creating an image, the face of Christ. Then our Lord stood before me, with warmth and love in His eyes. He said, “Every time you gave over your life to Me, it became My life, My hardships, and My struggles”.

    Each point of light in your life is when you stepped aside and let Me shine through, until there was more of Me than there was of you.” I was overwhelmed. It was wonderful. May all our quilts be threadbare and worn, allowing Christ to shine through! God determines who walks into your life... it’s up to you to decide who you let walk away, who you let stay, and who you refuse to let go. When there is nothing left but God that is when you find out that God is all you need — to let the light shine through.

    The story told above is truely inspiring and seems like specifically written keeping me in mind.  But whatever hardship and painful struggles concerning my physical body during all these 24 years I faced here on this physical plane but not on any judgment day.  Every day in those painful moments of my past life was like judgement day for me.  I am more than blessed when BABA SAI came into my life in real perceptice and started giving me strength and helped me in building my tough mindset with Shrada and Saburi which ultimately helped my life to fought back.  I can say that I am so blessed that BABA SAI made HIS way to shine through me. 
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #50 on: April 07, 2007, 11:19:17 PM »
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  • जय सांई राम।।।
     
    ब्रह्मचर्य है शक्ति का भंडार

    ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ ब्रह्म में चरना, गति करना व ब्रह्म को खाना है। ब्रह्मचर्य रहने से मन, वचन और कर्म तीनों प्रकार के संयम करने से आत्म शुद्धि की बुनियाद बनती है।

    ब्रह्मचर्य का अर्थ शरीर के रस की रक्षा करना नहीं है बल्कि ब्रह्मचर्य का अर्थ किसी भोग्य विषय की ओर प्रवृत्ति करके न जाने का नाम पूर्ण ब्रह्मचर्य है। अखण्ड ब्रह्मचर्य सिद्ध होने से ही मनुष्य आत्म शुद्धि की अंतिम स्थिति तक पहुंच सकता है और फिर आत्म शुद्धि होने पर ही मोक्ष को प्राप्त होता है। ब्रह्मचर्य का नाश ही मृत्यु है और ब्रह्मचर्य का पालन ही जीवन है। भगवान हनुमान ने उम्र भर ब्रह्मचर्य का पालन कर इतिहास में अमरत्व प्राप्त किया। आज भी ब्रह्मचर्य पुरुषों की गिनती में भगवान हनुमान को श्रेष्ठ ब्रह्मचर्य माना गया है। ब्रह्मचर्य को धारण करने वाले के साथ हमेशा चार बातें रहती है, वह चिंता नहीं करता, भय रहित रहता है, रोगों से दूर रहकर रूप वान हो जाता है और उसकी वाणी मधुर हो जाती है। ब्रह्मचर्य जीवन ही सर्व रत्नों की खान है और आत्म शुद्धि का मूल तत्व है जो मनुष्य ब्रह्मचर्य को प्राप्त होकर लोभ नहीं करते वे सब प्रकार के रोगों से रहित होकर धर्म,  अर्थ,  काम और मोक्ष को प्राप्त होते हैं।

    ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा उसके पालन से होती है और ब्रह्मचर्य मनुष्य विषय विकार जन्य खाद्य पदार्थो दर्शन और स्वर्ण से सुरक्षित रहकर कामादिक होकर अपने उद्देश्य शांति पथ पर चलता हुआ मोक्ष को प्राप्त कर जाता है इसलिए जीवन में ब्रह्मचर्य का विशेष महत्व है।


    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    ॐ सांई राम।।।
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #51 on: April 09, 2007, 01:11:12 AM »
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    छल से मिला धन अधिक समय नहीं टिकता

    वेद और शास्त्र में धर्म, अर्थ,  काम और मोक्ष के रूप में जीवन के चार मूल सिद्धांत बताए गए हैं। इनमें अर्थ अर्थात धन अगर अधिक हो जाए तो व्यक्ति का जीवन संकट में पड़ सकता है। वैदिक साहित्यों में कई जगहों पर इसका उल्लेख किया गया है। पातंजलि ने अपने योग सूत्रों कहा है कि जरूरत से ज्यादा धन से व्यक्ति की नींद उड़ जाती है। चाणक्य भी कुछ ऐसा ही मानते हैं। अपनी पुस्तक नीति में उन्होंने कहा है कि गलत तरीके से कमाया गया धन व्यक्ति के पास ज्यादा समय तक नहीं रह पाता। उसका उपभोग व्यक्ति अधिक से अधिक आठ वर्ष ही कर सकता है।

    आदि गुरु शंकराचार्य ने भज गोविंदम् में इस संबंध में विस्तार से चर्चा की है। इसके छठे श्लोक के माध्यम से उन्होंने धनवानों को चेताया है कि पैसा ही आने वाले समय में उनके लिए जी का जंजाल बनने वाला है। वे पुत्रों से सावधान रहें।

    इस श्लोक से शंकराचार्य ने यह बताने की कोशिश की है कि धन को हमेशा संकट समझो। इसके द्वारा हम तनिक भी सुख प्राप्त नहीं कर सकते। धनवानों को प्राय: पुत्रों से संकट बना रहता है। यह सर्वसिद्ध सिद्धांत है।

    अत: पैसे कमाने को ही जीवन का उद्देश्य नहीं बनाना चाहिए। धन जमा करने की इच्छा खतरनाक रोग है। जैसे-जैसे धन बढ़ता है, यह रोग भी बढ़ता जाता है। हमारा जी कभी नहीं भरता और हम थोड़ा और, थोड़ा और की धारा में बहते चले जाते हैं। ईसा मसीह ने भी बाइबल में कहा है कि एक ऊंट सूई में समा सकता है, लेकिन असंतुष्ट व्यक्ति (धन की लालसा रखने वाला) कभी स्वर्ग नहीं पहुंच सकता। आदि शंकराचार्य की शिक्षा पर लिखने वाले एम. एन. कृष्णमणि कहते हैं कि व्यक्ति अजिर्त धन को ट्रस्ट की संपत्ति समझें और स्वयं को ट्रस्टी। अर्थात हम 'अयम निजम परो वेति' की भावना से ऊपर उठ धन को समाज के कल्याण में लगाएं।

    श्री सत्य साईंबाबा ने भी एक बार कहा था कि धन तो जूते के समान है। छोटा हो तब भी परेशानी और बड़ा हो तब भी। आदि शंकराचार्य ने तो अपने एक श्लोक में अर्थ को अर्थहीन बताया है। भगवद् गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं : जो लोग सिर्फ अपने लिए खाना पकाते हैं, वे सिर्फ पाप कमाते हैं। श्रीमद्भागवत में नारद कहते हैं : धन हर बुराई की जड़ है। इसके कारण ही जुआ खेलने, मद्यपान और कामुकता जैसी बुराइयां जन्म लेती हैं।

    आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी धन को कई बीमारियों का मूल मानता है। धन हृदय की बीमारियों के दो मूल कारणों में से एक है। तैतरेय उपनिषद में धन और भोजन की चर्चा है। उपनिषद के अनुसार मिलजुल कर लिया गया भोजन ही शरीर में लगता है। जो लोग इससे भागते हैं अर्थात सिर्फ अपनी सोचते हैं उन्हें भोजन खा जाता है। उपनिषद में भागीदारी पर बल दिया गया है।

    इतिहास में संपत्ति के लिए पुत्र द्वारा पिता की हत्या के सैकड़ों उदाहरण हैं। गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि छोटे बड़ों का ही अनुसरण करते हैं। अगर पिता गलत तरीके से संपत्ति प्राप्त करता है तो उसके पुत्र द्वारा भी ऐसा करने की संभावना रहती है। किसी प्रकार संपत्ति प्राप्त करना उसका उद्देश्य बन जाता है। संपत्ति प्राप्ति का कोई भी मार्ग उसे गलत नहीं लगता। जब कोई पिता पुत्र से भय खाने लगे तो वह समझ ले कि कलियुग में जी रहा है और इस युग में संपत्ति जमा करना स्वास्थ्य के लिए हर प्रकार से हानिकारक है।

    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #52 on: April 10, 2007, 09:17:52 AM »
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    प्रत्येक चेतन वस्तु में ईश्वर का दर्शन
     
    हमारे सम्मुख हरी-भरी वसुंधरा, अनंत ग्रहों,तारों,आकाश गंगाओं से युक्त नीला आकाश और इसमें व्याप्त चेतन उस विराट के ही दर्शन हैं। मनीषी इसी विराट को जानने और अनुभव करने के लिए प्रारंभ से ही प्रयासरत रहे हैं। भारतीय दर्शन में किसी वस्तु को जानने के लिए तीन प्रमुख प्रमाण हैं।

    पहला प्रत्यक्ष, दूसरा अनुमान और तीसरा आप्त प्रमाण अर्थात महापुरुषों के मौखिक या लिखित अनुभव जैसे वेद या उपनिषद आदि। वेदांत दर्शन के अनुसार इस ब्रह्मांड में एक ही अजर,  अमर, चेतन एवं आनंद घन परमात्मा ही सब रूपों में सर्वत्र व्याप्त हैं। कोई अन्य नहीं है और न हो सकता है। जो अनेकता दिखाई पड़ रही है उसे उदाहरण देकर समझाया गया है कि उसे शक्कर से बने खिलौने एवं स्वर्ण से बने आभूषण वास्तव में एकमात्र शक्कर या स्वर्ण ही हैं,  इसी प्रकार यह समस्त चराचर जगत ब्रह्म ही है या जैसे विभिन्न घड़ों के अंदर का आकाश घटाकाश कहलाता है परंतु वह अविभाज्य आकाश एक ही है। किंतु यह अनुमान और आपत प्रमाण है परमात्मा का प्रत्यक्ष नहीं हुआ।

    इस संबंध में गीता का वह प्रसंग उल्लेखनीय है जिसमें अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं कि आपने जो बताया कि आप ही सर्वत्र हैं सब रूपों में है यह मैं अनुमान से एवं वेदों के द्वारा भी जानता हूं और मानता भी हूं कि सृष्टि है तो उसका रचनाकार भी होगा। जगत में चेतनता है तो कोई चेतन भी होगा, परंतु इसे प्रत्यक्ष रूप से दिखाएं।  इस पर श्रीकृष्ण अति महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि हे अर्जुन तुम इन आंखों से मुझे नहीं देख सकते। तात्पर्य यह है कि यह आंखें तो भौतिक हैं और क्षमता सीमित है। यह तो अधिक दूर की भी वस्तु नहीं देख सकती। दूसरे यह तुम्हारे संस्कारों के अनुरूप ही देखती है।

    एक ही स्त्री को मां, बेटी,  बहन, पत्नी के रूप में हम देखते हैं और अंधेरे में रस्सी को सांप समझ बैठते हैं। इन आंखों के साथ तुम्हारा अहं भी जुड़ा है। अत: मैं तुझे दिव्य आंख प्रदान करता हूं। इसके पश्चात अर्जुन देखते हैं कि जो श्रीकृष्ण सामने खड़े थे वे पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त हो गए हैं। उन्हीं में असंख्य, ग्रह, सूर्य, चंद्रमा हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य के समस्त चेतन अचेतन रूपों में वही प्रकाशमान हो रहे हैं। यहां तक कि अर्जुन भी वही हैं।

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #53 on: April 11, 2007, 12:18:17 AM »
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    सौंदर्य सदा मृदुल होता है
     
    सौंदर्य सदा मृदुल होता है। उसकी कोमल वाणी केवल वही सुन सकता है, जिसकी आत्मा पूरी तरह से सजग और सचेत हो। मगर हम सौंदर्य देखना कहाँ चाहते हैं! हम लोगों ने तो प्रत्येक वस्तु की बुनियाद तक में दाम और दंड के झूठ का मायाजाल बिछा रखा है।

    यहाँ न तो कोई प्रतिफल देने वाला है और न कोई पुरस्कार। यहाँ तक कि स्वयं भलाई भी अपना पुरस्कार नहीं है। तुम्हारी भलाई कोई बाहर की वस्तु नहीं है। यह तो तुम स्वयं ही हो और वह भी अपने नग्न रूप में, जिस पर कोई आवरण नहीं, जिस पर कोई छिलका नहीं।

    और ऐसे भी कुछ लोग हैं जो अपने मुट्ठी भर सद्गुणों पर सदा अकड़े फिरते हैं और उनके बल पर दुनिया भर पर अत्याचार करते हैं। यहाँ तक कि सारा संसार उनके अवगुणों और दुराचार की गंदगी में डूब जाता है। उनके मुंह से सद्गुण शब्द कितना बुरा लगता है। और जब वे कहते हैं कि मैं भला हूँ तो ऐसा लगता है मानो कह रहे हों कि मेरा भली प्रकार वैर शोधन हो चुका है। मैं दिल खोल कर बदला ले चुका हूँ। अपनी भलाई के पंजों से वे अपने विरोधियों की आंखें नोच डालने का प्रयत्न किया करते हैं। वे अपने आप को ऊंचा उठाते हैं, केवल इसलिए कि दूसरों को नीचा देख सकें।

    और मैंने ऐसे लोग भी देखे हैं जो नालियों के कीचड़ में फंसे बैठे हैं और वहाँ खर-पतवार में से मुंह निकाल कर कहा करते हैं, दलदल में फंसे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना ही सदाचार है। हम किसी को काटते नहीं और काटने वालों से बचकर रहते हैं और प्रत्येक विषय के सम्बन्ध में हमारे वही विचार हैं जो हमें सिखाए गए हैं।

    और ऐसे लोग भी देखे हैं जिन्हें अभिनय करना अत्यन्त प्रिय होता है। उनका मत है कि सदाचार भी एक प्रकार का अभिनय ही है। उनके घुटने सदैव उपासना में मुड़े रहते हैं और उनके हाथ नाच-नाच कर स्तुतिगान किया करते हैं। किन्तु उनके हृदय अवरुद्ध द्वार के समान होते हैं, जहाँ सदाचार और सद्गुण कभी प्रवेश नहीं कर सकते।

    और कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनके लिए यह रटते रहना ही सदाचार की पराकाष्ठा है कि सदाचार अत्यन्त आवश्यक है। वास्तव में वे पुलिस को आवश्यक मानते हैं। जब वे सदाचार कहते हैं तो उनका अभिप्राय होता है पुलिस। कुछ लोग अपना उत्थान और सम्मान चाहते हैं और उसे सदाचार कहते हैं। और कुछ दूसरे अपने पतन और अपमान को सदाचार कहते हैं।

    इस प्रकार प्रत्येक प्राणी यही समझता है कि सदाचार केवल उसी की बपौती है। कम से कम प्रत्येक मनुष्य इस भ्रम में रहता है कि भलाई और बुराई के संबंध में वही एकमात्र विशेषज्ञ है। मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि मैं उन पाखंडियों और मूर्खों से यह कहूँ कि तुम्हें क्या पता कि सदाचार किसे कहते हैं। और सदाचार के सम्बन्ध में तुम जान भी क्या सकते हो?  बल्कि अभिप्राय यह है कि मेरे मित्रों,  उन पुरानी बातों को भूल जाओ जो तुमने अनेक पाखंडियों तथा मूर्खों से सीखी हैं। भूल जाओ ये दाम,  दंड, प्रतिफल, प्रतिशोध और दिव्य प्रकोप जैसे अर्थहीन शब्द और सारहीन बातें। भूल जाओ इस प्रकार के कथन कि वही कार्य श्रेष्ठ होता है जो निष्काम भाव से किया जाता है।

    प्रत्येक कार्य में अपनापन अर्थात निजत्व का रहना जरूरी है, जैसे कि शिशु के भीतर माता का निजत्व रहता है। तुम्हारे निकट सदाचार का यही अभिप्राय और यही परिभाषा होनी चाहिए। जीवन आनन्द और आह्लाद का स्त्रोत है।

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #54 on: April 11, 2007, 05:28:37 AM »
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    मौन की महिमा  

    मौन जीवन में शक्ति संचय का श्रेष्ठ अनुष्ठान है। मौन रखने पर जो कुछ बोला जाता है उसमें अपेक्षाकृत अधिक सत्य होता है। अधिक और अनर्थ बोलने से संघर्ष की संभावना बढ़ जाती है। अत्यधिक कोलाहल में निर्वाक मौन व्याख्यान ही काम करता है। मौन अनेक समस्याओं का समाधान है। मौन ही शांति का दूसरा नाम है। वैचारिक द्वंद्व और द्वेष मौन से सहजतया शांत हो जाता है। मौन से व्यक्ति में सहनशीलता जागती है जिससे क्रोध शांत होता है। मान मंथन में मौन प्रभावकारी भूमिका का निर्वहन करता है। इससे साधक अंतर्यात्रा में सहयोग पाता है। मौन आत्मानुभूति की संभावना बढ़ाता है। इससे उठे चरण जनमानस में सदाचरण को जन्म देते हैं जो अंत में मंगलाचरण का प्रवर्तन करते हैं। सूक्ष्म सत्य को पकड़ने की शक्ति मौन उत्पन्न करता है। इससे प्रज्ञापटुता बढ़ती है। मौन से कल्पनाशक्ति विकसित होती है जिसके फलस्वरूप संकल्पशक्ति और मनोबल का संब‌र्द्धन होता है। मौन से एकाग्रता का उदय होने पर ध्येय तक पहुँचने के लिए सरलता रहती है। मन पारे की तरह चंचल होता है। एकाग्रता चंचलता को स्थिर करती है। मौन में अंतरंग में शक्ति स्त्रोत उद्भूत होता है।

    मौन की महिमा अनंत है। इसकी सात्विकता मनोहारी रहती है। मन की आँखें मौन भाषा में बोलती हैं। प्रेम की अभिव्यक्ति में मौन अद्वितीय है। वाणी से कुछ भी न बोलने के बावजूद मौन अभिव्यक्ति किसी बड़े व्याख्यान से कम नहीं। मौन से भाषा के शुभ संस्कार उत्पन्न होते हैं। मुनि का लक्षण है मौन, जिसके जीवन का लक्ष्य आत्म अध्यात्म विकास करने में निहित है। मौन व्रत से बड़े से बड़े संघर्ष शून्य हो जाते हैं। इससे मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। मौन में वह शक्ति है जो बड़े से बड़े अहंकार को धूल में मिला देती है। किसी के द्वारा जब जाने अनजाने किसी निर्बल के प्रति कटुशब्द प्रयुक्त हों तो निर्बल का मौन रहना शक्तिशाली के लिए कठोर वाणी से भी अधिक प्रभाव डालता है। मौन समर्पण नहीं, उचित समय की प्रतीक्षा का संकेत देता है। दृढ़ विश्वास श्रम और आशा के लिए मौन एक मंत्र हैं। अखण्ड मौन जब टूटता है तो निरुत्तर हो जाना पड़ता है। मौन सत्य का शोधन करता है। मौन से कृतज्ञता में वृद्धि होती है। मौन कल्पतरु जैसा फल देने वाला अनुपम व्रत है।

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    « Reply #55 on: April 14, 2007, 07:01:26 AM »
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    वास्तविक सुख
     
    एक बार एक सेठ की राह चलते एक साधु से मुलाकात हो गई। चलते-चलते सफर को आसान बनाने के लिए दोनों सुख और अध्यात्म पर चर्चा करने लगे। सेठ ने कहा, 'मेरे पास जीवन में उपभोग के सभी साधन हैं पर सुख नहीं है।'

    साधु ने मुस्कराकर पूछा, 'कैसा सुख चाहते हो।'

    सेठ ने कहा, 'वास्तविक सुख। यदि कोई मुझे वह सुख प्रदान कर दे तो मैं इसकी कीमत भी दे सकता हूं।' साधु ने फिर पूछा, 'क्या कीमत दोगे? सेठ ने कहा, 'मेरे पास बहुत धन है। मैं उसका एक बड़ा हिस्सा इसके बदले में दे सकता हूं। लेकिन मुझे वास्तविक सुख चाहिए।'

    साधु ने देखा कि सेठ के हाथों में एक पोटली है जिसे वह बार-बार अपने और नजदीक समेटता जाता था। अचानक साधु ने पोटली पर झपट्टा मारा और भाग खड़ा हुआ। सेठ के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी। पोटली में कीमती रत्न थे। सेठ चिल्लाता हुआ साधु के पीछे लपका लेकिन हट्टे-कट्टे साधु का मुकाबला वह थुलथुल सेठ कैसे करता। कुछ देर दौड़ने के बाद वह थककर बैठ गया।

    वह अपने बहुमूल्य रत्नों के ऐसे अचानक हाथ से निकल जाने से बेहद दुखी था। तभी अचानक उसके हाथों पर रत्नों की वही पोटली गिरी। सेठ ने तुरंत उसे खोलकर देखा तो सारे रत्नों को सुरक्षित पाया। उसने पोटली को हृदय से लगा लिया। तभी उसे साधु की आवाज सुनाई दी जो उसके पीछे खड़ा था। साधु ने कहा, 'सेठ, सुख मिला क्या?' सेठ ने कहा, 'हां महाराज, बहुत सुख मिला। इस पोटली के यूं अचानक चले जाने से मैं बहुत दुखी था मगर अब मुझे बहुत सुख है।'

    साधु ने कहा, 'सेठ, ये रत्न तो तुम्हारे पास पहले भी थे पर तब भी तुम सुख की तलाश में थे। बस, इनके जरा दूर होने से ही तुम दुखी हो गए यानी तुम्हारा सुख इस धन से जुड़ा है। यह फिर अलग होगा तो तुम फिर दुखी हो जाओगे। यह सुख नकली है। अगर वास्तविक सुख की तलाश है तो तुम्हें उसकी वास्तविक कीमत भी देनी होगी। जो यह नकली धन नहीं है बल्कि वह है सेवा और त्याग।'
     
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    « Reply #56 on: April 14, 2007, 11:49:13 PM »
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    साधना की शक्ति  

    साधना की ऊष्मा जब हमारी चेतना को झंकृत करती है तब हमें अपनी वास्तविकता का बोध होता है कि हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है? साधना चाहे धर्म क्षेत्र की हो या कर्म क्षेत्र की, उसका सीधा संबंध मानव और मानवता से है। साधना अर्थात संयमित, नियमित और अनुशासित रहते हुए ईमानदारी से कर्तव्य का पालन करना। हम सबको इसी की महती आवश्यकता है और यह हमसे दूर होती जा रही है। साधना केवल धार्मिक या आध्यात्मिक गतिविधियों तक ही सीमित नहीं है, यह मानव जीवन के सर्वागीण विकास का महत्वपूर्ण आधार है। विकास का धरातल साधना से ही पोषित होता है, इसके अभाव में विकास अर्थहीन होता है और उस विकास की आयु भी थोड़ी ही होती है। प्राय: लोग साधना का मतलब धार्मिक अनुष्ठान से लगाते हैं, जबकि इसका अर्थ व्यापक है। साधना हमारे जीवन की सम्पूर्ण गतिविधियों एवं कार्यप्रणाली को परिष्कृत एवं परिमार्जित करती है। बिना आत्मिक अनुशासन और संयम के जीवन में उत्कृष्टता का समावेश होना संभव नहीं।

    पौराणिक ग्रंथों में ऐसे तमाम कथानकों का उल्लेख मिलता है जब प्राचीनकाल के ऋषि-मुनियों ने साधना के बल पर पर्याप्त शक्ति अर्जित कर ली थी, जिससे वह जो चाहते थे प्राप्त कर लेते थे। साधना की शक्ति असीम है, इससे व्यक्तित्व महान बनता है। इस शक्ति को हम समाज के लिए उपयोगी कार्यो में लगाएं या व्यक्तिगत कार्यो में लगाएं, यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी साधना से प्राप्त ऊर्जा ऐसे रचनात्मक कार्यो में लगाएं जो समाजोपयोगी हों। समाज को मानव से बहुत अपेक्षाएं हैं। सही अर्थो में हम तभी सुखी और संपन्न होंगे जब हमारा समाज खुशहाल होगा। साधना अर्थात अपने को साधना, जब हम अपने को साध लेंगे तब हम मन सहित अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर लेंगे। मन इंद्रियों का राजा है, कभी-कभी यह अपनी चंचलता के कारण प्रगति में बाधक हो जाता है और साधना के लिए इंद्रियों को वश में करना आवश्यक है। इतिहास साक्षी है कि महापुरुषों ने कभी भी व्यक्तिगत जीवन को महत्व नहीं दिया, सार्वजनिक जीवन को उन्होंने अपना धर्म माना। महापुरुषों के उत्कृष्ट कार्यो से ही आज समाज लाभान्वित हो रहा है। 
     
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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #57 on: April 16, 2007, 01:25:50 AM »
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    विशुद्ध मन ही वासुदेव है......सत्संग : श्री रमेश भाई ओझा

    ध्यान से सुनो और इसे जीवन में याद रखना, सत्संग पुरुषार्थ का फल नहीं, बल्कि वह भगवत कृपा से मिलता है। यत्न से नहीं, अनुग्रह से प्राप्त होता है। इंसान प्लान तो बहुत कुछ करता है, लेकिन होता है वही जो ईश्वर की इच्छा होती है। आप ही वृंदावन क्यों आए, आने का कार्यक्रम तो अन्य लोगों ने भी बनाया था।

    तुलसीदास जी कहते हैं कि 'बिनु सत्-संग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।' हृदय की भूमि उपजाऊ है, ऊसर भूमि नहीं और ऐसी उपजाऊ भूमि पर भगवान की वृष्टि की कृपा के कारण सत्संग मिलता है। सत्संग ईश्वर प्राप्ति की प्राथमिक पाठशाला है। भगवान की कृपा के कारण ही तो सत्संग में आए हैं आप सब लोग।

    एक युवक ने सवाल किया भाई जी! चरित्र निर्माण कैसे करें? भाई जी बोले, पहले क्रिया के बारे में सुनो- यह जीवन भगवान का अंश है। भगवान सत्, चित्त और आनंद स्वरूप हैं। सत् के अंश में क्रिया होती है, चित्त के अंश में ज्ञान होता है और आनंद के अंश में भावना होती है। दूसरे शब्दों में सत् के अंश में कर्म, चित्त के अंश में विवेक और आनंद के अंश में भक्ति होती है। क्रिया कैसे होगी? जैसे विचार होंगे। विचार कैसे होंगे? जैसी भावना होगी।

    श्रद्धालु ध्यान से सुन रहे हैं। इसी बीच सत्संग के पंडाल में गुरु गुरुशरणानंद जी, चिदानन्द सरस्वती जी और ब्रह्माचारी जी पधारते हैं। प्रवचन सुन रहे श्रद्धालु संतों को प्रणाम करते हैं। संत एक दूसरे को जयश्रीकृष्ण कर अपने-अपने स्थान पर बैठ जाते हैं। दो मिनट का संकीर्तन होता है 'बांके बिहारी, हम हैं शरण तुम्हारी।'

    बात आगे बढ़ती है... और अंतत: भाव से ही विचारों की शुद्धि होती है। विचारों की शुद्धि से क्रिया भी शुद्ध होती है। इस प्रकार क्रिया, विचार और भावना की शुद्धि से चरित्र शुद्ध होता है। जीवन में जितनी आवश्यकता बुद्धि की है, उससे भी ज्यादा जरूरी शुद्धि है। इसके लिए संतों से सत्संग, कथा श्रवण, सद्शास्त्रों का पठन, चिंतन आदि जरूरी है। व्यक्ति जो देखता है, सुनता है, उससे उसकी भावना, विचार, क्रिया आदि सब प्रभावित होते हैं। सत्संग, साधु-संगति से स्वार्थ भाव छोड़ व्यक्ति परमार्थ परायण बनता है।

    भाई जी वहां बैठे संतों की ओर देखते हैं... वो भी समर्थन में गर्दन हिलाते हैं। भाई जी वहां बैठे संतों से बातचीत करने के लिए उठकर अलग जाना चाहते हैं। इसी बीच एक श्रद्धालु पूछ बैठता है, भगवान को प्राप्त करने का मार्ग तो सुझाएं!

    भगवान अप्राप्त है ही कहां। वो तो हर समय और हर जगह है। जीव, जड़, चेतन, यह सकल जगत परमात्मा का स्वरूप नहीं तो और क्या है? प्राप्ति के लिए केवल करना यह है कि उसे देखने की क्षमता विकसित करनी है। मन को परमात्मा में लगाना है, लेकिन मन तो बहुत चंचल है। वायु का निग्रह जिस प्रकार कठिन है, मन को वश में करना उसी प्रकार बहुत कठिन है। उस पर जितना काबू पाने की कोशिश करो, वह और भागता है। अत: कुछ और चिंतन करना पड़ेगा।

    मेरा अनुभव कहता है कि मन वहीं लगता है जहां उसे रस मिलता है। जिससे रस मिलता है, तृप्ति का अनुभव होता है, उसमें मन सदा लुभाया रहता है, जिस प्रकार कमल में भ्रमर। भगवान में जब प्रेम हो जाएगा तब मन भगवान में ही लगा रहेगा। जब तक मन का राग संसार में है, तब तक मन का मैल मिटेगा नहीं। जब तक मन का मैल नहीं मिटेगा, मन की चंचलता नहीं मिटेगी।

    विशुद्ध मन ही वासुदेव है। मन से रजोगुण और तमोगुण मिट जाए और मन सत्व से पूर्ण हो जाए तो मन की स्थिरता स्वाभाविक हो जाती है। रजोगुण से चंचलता और तमोगुण से जड़ता आती है, जो कि भजन में बाधक है। भोर में ब्रह्मा-मुहूर्त में मन पर सत्वगुण का प्रभाव रहता है, इसलिए उस समय को संतों ने भजन के लिए श्रेष्ठ माना है।

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    « Reply #58 on: April 17, 2007, 08:57:32 AM »
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    "सच तो ये है कि हम अपने अंतस की आकांक्षाओं से आगे कुछ-भी नहीं देख पाते; सचमुच...ये निगाहें ही हमारी पथप्रदर्शक हैं, इन मन की विभूतियों से आगे न हम कुछ जान पाते हैं और न ही समझ पाते हैं, जिसने परम अनुभूति की आकृति को अपने अंतस में स्थान दिया ही न हो वह नास्तिकता के पथ पर चला जाए, कोई आश्चर्य नहीं. काम-ज्वाला और भौतिक-आवरण ने इंसान के भीतरी चक्षुओं को इस तरह से कैद कर रखा है कि स्वतः यह आभास होता है-- मेरा दृष्टिकोण ही सत् और सर्वमान्य है किंतु यह सोंच गलत या सही नहीं है, अंधकार मात्र इसकारण से है क्योंकि दूसरा मत भी हो सकता है, इसे नकारते हैं-- मन की वास्तविक दुनियाँ को अगर विस्तार दे सकें तो बाह्य सत्ता अपने-आप बृहत हो जाएगी."

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    Re: आज का चिन्तन
    « Reply #59 on: April 17, 2007, 11:04:04 PM »
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    वेदना की अनुभूति
     
    राजा जनक जब मानव शरीर त्यागकर यमदूतों के साथ बैकुंठ धाम की ओर जा रहे थे तो उन्होंने रास्ते में नरक में यातनाएं झेलते जीवों को देखा। उन्हें तड़पता देख वह द्रवित हो उठे। उन्होंने यमदूतों से पूछा,  'इन्हें किस कारण इतनी यातनाएं दी जा रही हैं?'  यमदूतों ने कहा,  'यह इनके बुरे कर्मों का फल है। जब तक इनके कर्मों का पूरा लेखा जोखा नहीं हो जाता,  इन्हें नरक में ही रहना होगा। ' जनक बोले, 'क्या कोई उपाय है जिससे इन्हें नरक से मुक्ति मिल सके?' यमदूतों ने कहा, 'हां, उपाय तो है।'  जनक ने तपाक से कहा 'मुझे शीघ्र बताएं।'

    यमदूतों ने बताया,  'यदि कोई धर्मात्मा अपने कर्मों का फल इनके नाम कर दे तो संभव है इन जीवों के नरक से बंधन कट जाएं।'  राजा जनक ने तब अपने जीवनपर्यंत किए नेक कर्मों एवं जप-तप से अपने नाम अर्जित समस्त पुण्य उन जीवों के नाम अर्पित कर दिए। उन जीवों का नरक से छुटकारा हो गया। धर्मराज ने उन जीवों को अपने पापों का प्रायश्चित करने तथा धर्मार्थ कार्य करने के लिए पृथ्वी लोक में मनुष्य योनि में भेज दिया, ताकि वे नेक कर्म करके बैकुंठ धाम का द्वार खोज सकें।

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