जय साँई राम।।।
मानवता के पुजारी स्वामी रामकृष्ण परमहंस का जीवन दीन-दुखियों के उपकार में समर्पित रहा। सेवा का अखंड व्रत उनके जीवन का मूलमंत्र था। एक बार उनके परम प्रिय शिष्य विवेकानंद कुछ समय के लिए हिमालय में तप करने के लिए जब उनसे आज्ञा लेने गए तो उन्होंने कहा था, वत्स, हमारे आसपास के लोग भूख से तड़प रहे हैं। चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया है। लोग रोते चिल्लाते रहें और तुम हिमालय की गुफा में समाधि के आनंद में निमग्न रहो। क्या तुम्हारी आत्मा स्वीकारेगी?
बंगाल प्रांत के ग्राम कामारपुकुर में 17 फरवरी 1836 को जन्मे रामकृष्ण के बचपन का नाम गदाधर था। बताया जाता है कि एक दिन माता ने स्नेह पूर्वक एक सोने का हार पुत्र के गले में पहना दिया किंतु शिशु ने तत्काल उसके टुकड़े टुकड़े कर फेंक दिया। सात वर्ष की आयु में पिताजी नहीं रहे। इसी बीच गदाधर के भौहों के मध्य एक फोड़ा हुआ। चिकित्सक ने कहा कि बेहोश करके फोड़े को चीरना होगा। बालक ने कहा कि बेहोश करने की जरूरत नहीं, ऐसे ही काटिए, मैं हिलूंगा नहीं।
जब गदाधर को ओरिएंटल सेमिनरी में भर्ती कराया गया तो किसी सहपाठी को फटा कुर्ता पहने देखकर अपना नया कुर्ता उसे दे दिया। कई बार ऐसा होने पर एक दिन माता ने गदाधर से कहा, प्रतिदिन नया कुर्ता कहां से लाऊंगी? बालक ने कहा, ठीक है, मुझे एक चादर दे दो, कुर्ते की आवश्यकता नहीं है। मित्रों की दुर्व्यवस्था देखकर संवेदनशील गदाधर के हृदय में करुणा उभर आती थी। उन्हें कोलकाता आने वाले साधुओं के मुख से हरिकथा सुनने का बड़ा लगाव था। विवेकानंद ने एक बार उनसे पूछा था , क्या आपने ईश्वर को देखा है। युगद्रष्टा रामकृष्ण ने उत्तर दिया,हाँ देखा है, जिस प्रकार तुम्हें देख रहा हूं ठीक उसी प्रकार, बल्कि उससे कहीं अधिक स्पष्टता से। माँ काली के सच्चे आराधक रामकृष्ण परमहंस भारतीय मनीषा थे। स्वामी विवेकानंद ने जब एक बार रोगमुक्ति के लिए काली से उन्हें प्रार्थना करने को कहा तो वे बोले, इस तन पर मां का अधिकार है। मैं क्या कहूं, जो वह करेंगी अच्छा ही करेंगी। 15 अगस्त 1886 को रामकृष्ण तीन बार काली का नाम उच्चारण कर सदा के लिए समाधि में लीन हो गए।
मेरा साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा मेरा साँई
ॐ साँई राम।।।
जय साँई राम।।।
एक राम सहस्त्र नाम
एक ही तालाब के अनेक घाट हैं। एक घाट पर हिंदू अपने-अपने कलस में पानी भरते हैं। उसे जल कहते हैं। दूसरे घाट पर मुसलमान अपनी मशकों में पानी भरते हैं, उसे पानी नाम देते हैं। तीसरे घाट पर ईसाई लोग जल लेते हैं तथा उसे वाटर कह कर पुकारते हैं। भिन्न नामों के नीचे एक ही वस्तु है। प्रत्येक उसकी एक ही चीज को खोज में लगा है।
जलवायु, स्वभाव तथा नाम ही भिन्न हैं। जुदा-जुदा हैं, अन्यथा और कोई भेद नहीं है। रामकृष्ण परमहंस ने अपने निजी अनुभवों से उक्त तथ्यों को कमाया और सब को बांटा। इस सत्य को कमाने के लिए उन्होंने मुसलमानों की वेशभूषा में उनकी रहनी और मसजिद में जाकर नमाज अदा की। इसी प्रकार ईसाई धर्म का भी गहराई से अध्ययन मनन किया। रामकृष्ण कहा करते थे,उस ईसा का दर्शन करो, जिसने विश्व की मुक्ति के लिए अपने हृदय का रक्त दिया है। जिसने मनुष्य के प्रेम के लिए असीमित वेदना सहन की है। एक भक्त के प्रश्न का विनम्रता से उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था, मैंने पढ़ा नहीं है, केवल ज्ञानियों के मुख से सुना है। उनके ज्ञान की ही माला गूंथकर मैंने अपने गले में डाल ली है और उसे अर्घ्य के रूप में मां के चरणों में समर्पित कर दिया है। उन्होंने मुसलिम, ईसाई धर्मो का ही नहीं हिंदू धर्म के भी अन्य पथों- वैष्णव, शैव, सिख, जैन, शाक्त आदि का भी गहन अध्ययन किया और कहा कि जिसे हम कृष्ण के नाम से पुकारते हैं, वही शिव है, वही आद्या शक्ति है, वहीं ईसा है, वही अल्लाह है। सब उसी के नाम हैं- एक ही राम के सहस्त्रों नाम हैं। एक तालाब के अनेक घाट हैं। इस विश्व विख्यात संत का जन्म 18 फरवरी सन् 1836 बंगाल के छोटे से ग्राम कामारपुकुर में हुआ। रामकृष्ण का बचपन का नाम गदाधर था। वह चंचल, हंसमुख, नटखट और बडे़ सुंदर थे। उनमें नारी सुलभ माधुर्य और कोमलता थी, जो अंत तक बनी रही। छह वर्ष की आयु में इस बालक को प्रथम बार अपने भीतर असीम आनंद व भावातिरेक का अनुभव हुआ। जब वह घुमड़ती काली घटाओं से ढंके आकाश के तले, खेतों में मुक्तभाव से विचर रहा था, तो सफेद सारस पंक्ति बादलों से छूती हुई उस के सिर के ऊपर से गुजरी। दृश्य की मोहकता के उस क्षण में वह बेहोश होकर गिर पड़ा। राहगीर ने उसे घर पहुंचाया। भावावेश की इस घटना ने अपने दिव्य प्रभाव, कलात्मक अनुभूति एवं सौंदर्य की आंतरिक सहज प्रेरणा से उनका भावी मार्ग प्रशस्त किया। रामकृष्ण ने भगवान का साक्षात्कार किया। भगवान से उसका मिलन हो गया। प्रत्येक भक्त संत को परमात्मा ऐसे ही अनुभूति रूप में मिलता है। आठ वर्ष की आयु में रामकृष्ण शिवरात्रि के अवसर पर शिव की भूमिका का अभिनय करते समय अचानक शिवभाव में प्रवेश कर गए। उन के दोनों गालों से होकर अविरल अश्रु धाराएं बहने लगी। तथा उसी भाव में उन्होंने अपना होश खो दिया। यहीं यह तथ्य भी समझ लेना होगा कि वह शिशु काल से ही संगीत और काव्य के प्रति अत्यधिक अनुरक्त थे। ये कोमल वृत्तियां ही भाव-समाधि में बार-बार और शीघ्रता से जाने में उनकी अत्यंत सहयोगी थीं। वह अपने हाथों देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाते उन्हें सजाते और अपने मित्रों को भी मूर्तियां बनाना सिखाते। कालांतर में पिता और फिर बडे़ भाई के देहांत के बाद कलकत्ता के निकट दक्षिणेश्वर में काली महादेवी के मंदिर में न चाहते हुए भी पुरोहित का कार्य स्वीकार करना पड़ा।
मंदिर में काले पत्थरों की बनी वह देवी मूर्ति चार भुजी रामकृष्ण के लिए साक्षात सजीव एवं सर्वशक्तिमती मां स्वरूपणी थी। वे कहा करते थे, वह सर्वशक्तिमयी मेरी जननी है। वह अपनी संतानों के सम्मुख विभिन्न रूपों व दिव्य अवतारों के रूप में आत्मप्रकाश करती है। जब इसकी इच्छा हो तो वह समस्त सृष्टिभूतों को नष्ट कर देती और ब्रह्म में विलीन कर देती है। यहीं उन्हें विवेकानंद आकर मिले और उनके अनन्य भक्त बन गए। मां काली ने भी उन्हें कई खेल दिखाए। अपनी शक्ति का दंश देकर अंतर्हित हो गई। रामकृष्ण अत्यंत व्याकुल रहने लगे। विक्षिप्तों की भांति उन्मत्त हो भूमि पर लोट-पोट कर रोने लगते। समाज में उनके प्रति दया, करुणा और निंदा की चर्चाएं होने लगीं। रामकृष्ण ने अपनी जीवन लीला समाप्त करने का निर्णय ले लिया।
तब अंत में अचानक रामकृष्ण को पुन: मां ने दर्शन दिए। वे कहते हैं, आश्चर्य कि एक क्षण में मेरे आगे दरवाजा, खिड़की यहां तक कि मंदिर पर्यन्त समस्त दृश्य विलुप्त हो गया। असीम : ज्योतिष्मान आत्मा का महासमुद्र दिखाई देने लगा। मां की शरीर धारी मूर्ति प्रकट हुई। उस दिन से रामकृष्ण के दिन-रात निरंतर मां के सहवास में ही कटने लगे। उनके अनेक शिष्य हुए किंतु उनमें एक नरेंद्र (विवेकानंद) उनके अति निकट थे। कालांतर में रामकृष्ण को गले का कैंसर रोग हो गया। अनेक उपचार आदि भी होते रहे, किंतु 15 अगस्त 1886 रविवार के दिन अपने शिष्यों को अंतिम उपदेश दिया और अस्फुट स्वर में तीन बार अपनी दिव्य मां सर्वप्रिय काली के नाम का उच्चारण किया और लेट गए। वह कहा करते थे कि समुद्र के मुकाबले में लहरों का जो स्थान है ब्रह्म के मुकाबले में अवतारों का भी वही स्थान है। और वह लहर रूप होकर ब्रह्म समुद्र में समा गए।
मेरा साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा मेरा साँई
ॐ साँई राम।।।