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Sai Literature => सांई बाबा के हिन्दी मै लेख => Topic started by: Ramesh Ramnani on March 03, 2007, 09:01:49 PM

Title: ताकि हर नए साल की शुरुआत रंग-बिरंगी हो
Post by: Ramesh Ramnani on March 03, 2007, 09:01:49 PM
जय सांई राम।।।

होली का त्योहार दो दिन में सम्पन्न होता है। पहला दिन फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा का होता है। इसी रात्रि को होलिका दहन होता है। भारतीय ज्योतिष के अनुसार यह वर्ष का अन्तिम दिन है। इसलिए एक विचारधारा यह भी है कि पिछले वर्ष की समाप्ति के प्रतीक के रूप में होलिका दहन होता है। इस मत के अनुसार होलिका केवल गुजरे वर्ष का प्रतीक मात्र है। फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा का अगला दिन होली के त्योहार का दूसरा दिन होता है। यह चैत्र प्रतिपदा का दिन होता है। इस दिन लोग रंग और अबीर से आपस में खेलते हैं।

होलिकोत्सव के समय चैत्र की फसल कटकर घर आ चुकी होती है तथा जौ, गेहूं, चना आदि मनुष्यों के उपयोग के लिए तैयार हो जाते हैं। भारतीय मान्यता के अनुसार नए अन्न का उपयोग करने से पहले उसे अग्निदेव को अर्पित करना आवश्यक है। भगवद्गीता के अनुसार देवताओं को उनका भाग न देकर जो स्वयं उसका उपभोग करते हैं, वे चोर हैं। अत: अनेक स्थानों पर यह परंपरा है कि नए अनाज की बालियों को होली की आग में भूनकर प्रसाद रूप में ग्रहण किया जाता है। भुनी हुई इन बालियों को होला कहते हैं। कुछ लोगों का विचार है कि होला शब्द से ही इस त्योहार का नाम होली पड़ा है।

वैदिक काल में यह त्योहार एक तरह का यज्ञोत्सव था। उन दिनों यहाँ विशेष अवसरों पर विराट यज्ञ आयोजित किए जाते थे, जिनमें गाँव-नगर के सभी नर-नारी शामिल होते थे। इन्हीं यज्ञों में होलिकोत्सव यज्ञ भी शामिल था। कृषि प्रधान देश होने के कारण इस यज्ञ में नया अन्न देवताओं को भेंट में चढ़ाया जाता था। कुछ विद्वानों का विचार है कि होलिका दहन के समय बीच में जो डंडा गाड़ा जाता है और जिसे कहीं-कहीं प्रहलाद या होलिका का प्रतीक माना जाता है, वास्तव में यज्ञस्तम्भ का ही प्रतीक है।

शास्त्रों में होलिका दहन की जो विधि बतलाई गई है, उसके अनुसार इस अवसर पर अग्नि हमेशा सूतिका-गृह या किसी चांडाल के यहाँ से लाई जाती है। अगले दिन चैत्र प्रतिपदा की सुबह किसी चांडाल का स्पर्श करना शास्त्रों में अत्यन्त शुभ माना गया है। यह भी उल्लेखनीय है कि भारतीय ज्योतिष के अनुसार विधाता ने सृष्टि के निर्माण का कार्य चैत्र प्रतिपदा को ही प्रारम्भ किया था। नए वर्ष के आरंभ के समय अछूत के स्पर्श को महत्व देना, उस काल की सामाजिक समरसता का प्रतीक है।

होलिका के दाह संस्कार के समय प्रेत-नृत्य और अपशब्दों का प्रयोग करने की भी व्यवस्था भविष्य पुराण में दी हुई है। देश के विभिन्न क्षेत्रों में होली के जो गीत गाये जाते हैं, उनमें भी अश्लीलता रहती है। अगले दिन होली खेलते समय भी इस अश्लीलता का संकेत होता है। कुछ स्थानों पर रंगों के स्थान पर कीचड़ जैसे पदार्थ भी एक दूसरे पर फेंके जाते हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार यह सब पिशाच-क्रीड़ा है। ऐसी मान्यता है कि ऐसे कार्यकलापों से ढूंढा नाम की एक राक्षसी तृप्त होती है। वास्तव में यह राक्षसी और कोई नहीं, हमारी अपनी ही उद्दाम भावनाएं और वासनाएँ हैं। यहीं पर होलिकोत्सव का मनोवैज्ञानिक स्वरूप हमारे सामने आता है। वर्ष भर हम अपनी उद्दंड भावनाओं पर नियंत्रण किए रहते हैं। फ्रायड ने इन भावनाओं को दमित वासना कहा है। हमारे नियंत्रण के बावजूद ये भावनाएं समाप्त नहीं हो पातीं। अवसर मिलने पर यही भावनाएं या तो अपराध के रूप में प्रकट होती हैं या हमारे शुद्ध विचारों को विकृत करने का प्रयत्न करती हैं। फलस्वरूप हमारे यहाँ इन भावनाओं को शब्दों के माध्यम से बाहर निकाल देने के लिए होलिकोत्सव का दिन निर्धारित किया गया है।

सामान्यत: यह उत्सव प्रेम, मधुर मिलन और राष्ट्रीय एकता का है। इस दिन अधिकांश स्थानों पर हमें हास-विलास की ही बौछार होती दिखती है। इस दिन कोई किसी का शत्रु नहीं। कोई छोटा या बड़ा नहीं और कहीं किसी प्रकार का मनोमालिन्य नहीं। यही मूलत: होली का सांस्कृतिक स्वरूप है। 



अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई


ॐ सांई राम।।।
Title: Re: ताकि हर नए साल की शुरुआत रंग-बिरंगी हो
Post by: Ramesh Ramnani on March 10, 2007, 06:14:44 AM
जय सांई राम।।।

आया होली का त्यौहार,
बाबा मुझ पर भी रंग डालो।

मैं फेकूँगा क्रोध का रंग,
उस पर करूणा रंग बरसा दो,
फेकूँ जब मद, मत्सर रंग,
तब कृपा-सिन्धु लहरा दो।

झूठ अहं का रंग डालूँ जब,
चरणों की रज से नहला दो,
डालूँ रंग जब मोह-माया का,
दया-क्षमा बरसा दो।

मेरे फीके रंग न रहें,
गहरे अपने रंग दे दो,
अतीत का रंग मिटाकर,
नव रंग, नई उमंग दो।

श्रध्दा और सबूरी से बस,
दो रंगों में जीवन रंग दो,
कोई चाह  नही, कोई राह नहीं,
अपनी चाहत का रंग भर दो।


अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई


ॐ सांई राम।।।