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जय सांई राम।।।
जो जहां है, कुछ तो मजा है
इस बात के लिए हमें बाबा सांईश्वर का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उसने हर प्राणी को जिंदगी का लुत्फ उठाने लायक बनाया है। एक मामूली सी चींटी भी अपने ढंग से जिंदगी का मजा लेती है। यही बात इंसानों पर भी लागू होती है। ऐसा नहीं है कि फूलों का मजा सिर्फ वही ले सके, जो बागों का मालिक है। फूलों का असली आनंद तो माली लेता है। शहरों में रहने वालों के पास ढेरों सुविधाएं क्यों न हों, मगर कदमों पर प्रकृति और खर्च करने को ढेर समय होने का मजा तो गांवों में रहने वाले ही लेते हैं। हर काम के साथ कोई न कोई लाभ जुड़ा ही रहता है। मंत्री जी का जितना रुतबा होता है, उनके पर्सनल असिस्टेंट का रुतबा भी उतना ही बढ़ जाता है। सब्जी उगाने वाले किसानों को रोज खेतों से ताजा तोड़ी गई सब्जी की पौष्टिकता लेने से कौन रोक सकता है। मोची क्यों नहीं अपने बच्चों के लिए शानदार जूते बनाएगा, जुलाहा अपनी प्रेमिका के लिए सुंदर वस्त्र और बढ़ई चूल्हे में खटती अपनी पत्नी को क्यों नहीं आरामदायक चौकी बनाकर देगा?
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
-
जय सांई राम।।।
नहीं बसता मैं किसी मन्दिर या मस्जिद में,
न ही रहता हूं किसी गिरिजाघर या गुरुद्वारे में,
न ही बसता हूं किसी पूजा घर में|
यह तो है केवल अपना दिल बहलाना,
मैं तो हूं तुम्हारे आशियाना में |
मैं नही पाया जाता पुरी, रामेश्वर में,
न ही मक्का, मदीना में,
जेरूसलम या कोई अन्य पवित्र स्थल भी नही है मेरा ठिकाने|
यह सब तो है लोगों के अफसाने,
तरीके दिल बहलाने के,
क्योंकि मैं तो वास करता हूं, तुम्हारे मन मानस में|
मुझे, न बता सकते हैं कोई महात्मा, योगी,
न ही मेरी व्याख्या कर सके फकीर, पादरी|
यह तो सब हैं लोगों के फंसाने,
तरिके खुद को फुसलाने के|
मैं नही सीमित गीता या रामायण में,
न ही हूं बंधा बाईबल या कोरान में|
यह तो थे अपने समय के उचित आचरण,
मैं तो हूं ऊपर इनसे|
मैं नहीं बंधता समय से,
मैं हूं स्वयं समय,
क्या करूंगा, खुद से लड़ कर|
जो परम्परा समय के साथ नही बदलती,
वह कहलाती रूढ़िवादिता |
मैं नहीं हूं, रूढ़िवादिता,
न ही, जकड़ा जा सकता किसी परम्परा से|
मैं नही बन्धता इनसे,
मैं तो हूं उन्मुक्त, इन बन्धनो से परे|
मैं न तो हूं राम, न ही कृष्ण,
न ही अल्लाह, न ही पैग्मबर,
न ही हूं मैं यीशू मसीह,
या पूजा किये जाने वाले कोई और नाम|
यह तो हैं तरीके, लोगों के सम्झाने के,
मैं तो ऊपर हूं इन सबके|
नही हूं मैं दकियानूसी,
न ही हूं, अन्धी आधुनिकता|
मैं तो हूं केवल एक आचरण|
मैं नही वह आचरण, जो तोड़े दूसरों के पूजा स्थल|
मैं तो हूं वह आचरण,
जो जवानी के मदहोश दिवानो से, रात में अकेली अबला चाहे;
अभिलाशे दंगे में फंसा इन्सान, आवेश में अधें दंगाइयों से|
मैं नहीं धरोवर केवल हिन्दुवों की,
न ही केवल मुस्लिम सिख ईसाई की|
मैं तो हूं वह आचरण,
जो पाया जाये, सब मज़हब में|
मैं नही हूं विचारों का टकराव|
मैं तो हूं दूसरे के विचारों का समझाव|
मैं करता विचारों का आदर, समझता दूसरों का पक्ष|
मैं तो हूं अलग अलग विचारों का सगंम,
जो लाता जीवन में कभी खुशी कभी गम|
मैं हूं वह आचरण—
जो आप अपने लियें चाहें, दूसरे से;
या आप लें, अपने ईमान से|
जो मेरे मर्म को जाने,
नहीं जरूरत उसे किसी पूजा स्थल की|
न ही किसी इष्ट देव की,
शान्ति रहे हमेशा, उससे चिपकी|
जो चले मेरे रस्ते
न भटके वह,
किसी महात्मा, फकीर के बस्ते|
क्योंकि मैं हूं हमेशा संग उसके|
जो मेरे महत्व को समझे
करे कर्म का वह सेवन,
कर्म ही पूजा, कर्म ही उसका जीवन|
उसका मन, मानस चले संग|
आओ ढूढ़ो, पहचानो मुझको,
मैं हूं खड़ा तुम्हारे अन्दर|
मैं तो हूं केवल,
जी हां, केवल
अन्त:मन से लिया गया विवेकशील आचरण|
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
-
जय सांई राम।।।
धर्म के साथ जुड़कर शांति चाहता है मनुष्य
प्रत्येक को शांति और अलौकिक आनंद की चाह होती है केवल इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह किसी न किसी धार्मिक विश्वास के साथ स्वयं को जोड़ लेता है।
यह विश्वास हिंदु, मुसलिम,सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि विभिन्न संप्रदायों के रूप में हमारे सामने है। इंसान जिस परिवार में जन्म लेता है। उसके संस्कार उसकी सभ्यता को स्वीकार करते हैं और अपने पूर्वजों के उत्तराधिकारी के रूप में खुद को आगे बढ़ाता है। इसका परिणाम कोई अच्छा नहीं रहा, क्योंकि विश्वास तक तो सब कुछ ठीक ठाक चलता है, लेकिन अंधविश्वास से द्वेष भावना, ईष्र्या, नफरत की चिंगारी, इंसान, परिवार और समाज को जलाकर राख कर देती है।
यह आचरण कई बार जातीय विषमता के कारण स्वार्थी लोग मानवता को दानवता द्वारा कुचलने की कोशिश कर रहे हैं। इस बात को सोचना होगा कि जब संसार में इंसान पैदा हुआ तो क्या वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, हिंदू , मुसलिम, सिख था। क्या जब बच्चे का जन्म होता है तो उसे कोई कहता है कि यह हिन्दु पैदा हुआ है या मुसलमान पैदा हुआ है। जहां सभी शांति चाहते हैं वहीं अशांति बढ़ती जा रही है। इंसान अपने ही भाई का खून बहा रहा है। अपनी पहचान को मिटाता जा रहा है। इसके पीछे एक ही कारण है, बचपन से गलत शिक्षा देकर कुछ मुट्ठी भर लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए भोले भाले प्रभु भक्तों को गुमराह कर दिया और धर्म के तवे पर अपने स्वार्थ की चपातियों को सेंकने लगे।
धर्म का प्रचार करने वाले धार्मिक लोग ही जब अधर्म करने लग जाएं तो धर्म के ऊपर से लोगों का विश्वास उठने लग जाएगा। चारों तरफ धर्म का प्रचार किया जा रहा है। लेकिन इसके साथ ही संप्रदायिकता का जहर कैंसर की तरह फैलता जा रहा है। पुराने रीति-रिवाज जो भी रहे हैं वे गलत नहीं रहे हैं, लेकिन कुछ लोगों ने धर्म ग्रंथों की शिक्षाओं के बीच से अपनी स्वार्थ पूर्ति का रास्ता बना लिया और लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
यद्यपि संसार में ईश्वर पर विश्वास रखने वालों की संख्या काफी अधिक है और ईश्वर की सत्ता को न मानने वाले बहुत ही कम है, परंतु ईश्वर के विषय में लोगों के इतने भिन्न-भिन्न मत हैं कि ईश्वर की सत्ता मनुष्यमात्र को एकमत करने के स्थान में भेदभाव और शत्रुत्व उत्पन्न कर देती है, इसलिए प्रभु के लिए ही नहीं अपितु ईश्वरवाद के प्रति लोगों को घृणा हो जाती है, परंतु यदि किसी भ्रांति युक्त विषय के कारण अनिष्ट का प्रसंग आए जाए तो उसका एकमात्र उपाय सत्य की खोज है, असत्य से घृणा नहीं।
अंधेरे से घृणा करना पर्याप्त नहीं हैं। प्रकाश लाने की आवश्यकता है, अंधकार स्वयं दूर हो जाएगा। मत-मतांतरों ने अपने-अपने मन से एक ईश्वर गढ़ रखा है, उसी को पूजते हैं और उसके विषय में सोचने से डरते हैं कि कहीं भगवान अप्रसन्न न हो जाए। एक मनुष्य पीली मिट्टी उठाता है, उसको कहता है कि यह गणेश भगवान की मूर्ति है, उसको पूजता है और उसी अपने बनाए मिट्टी के लौंदे से डरता है कि यदि मैं यह छानबीन करूंगा कि गणेश क्या है, मिट्टी क्या है तो भगवान का मेरे ऊपर कोप हो जाएगा। इन कल्पित भयों से छुड़ाने का एक मात्र साधन है शास्त्र का अध्ययन। वेद का अध्ययन कर परमात्मा संबंधी भ्रांतियों को दूर किया जा सकता है। वास्तव में बात यह है कि आदमी ने खुदा को अपनी शक्ल का बनाया है ईश्वर के जितने चित्र अथवा मूर्तियां बनाई गई वे मनुष्य जैसी ही होती हैं, केवल पहचान के लिए कुछ विशेषता कर दी जाती है, जैसे दो हाथ के स्थान में चार हाथ, दो आंखों के स्थान में तीन आंखें, माथे पर तिलक के स्थान में चंद्रमा की आकृति कहीं नर जैसा समस्त शरीर परंतु मुख शेर के जैसा। मनुष्य ने कितनी तरह से देवी-देवता बना डाले।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम
कड़वा परन्तु सत्य
इस भीड़ में तुम क्या ढूंढते हो
अपनों मे हमदर्दी
गैरों मे वफा क्यों ढूंढते हो
लगता है कभी भी तुम
अपने मुकाम तक नही पहुंच पाओगे
जो चीज़ मिल नहीं सकती
उसकी तलाश करते रह जाओगे।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
-
जय सांई राम
कैसे होता है ना
कुछ पलों की ख़ुशी की खातिर
झूमते और नाचते है लोग
फिर थक हारकर बैठ जाते हैं
फिर भी लगता है उन्हें कि
वह खुश नही हो सके
फिर नई ख़ुशी कि तलाश में
निकल पड़ते हैं लोग चूहे-बिल्ली जैसा खेल है
इस इंसानी ज़िन्दगी का
आगे चलती अदृश्य ख़ुशी
पीछे चलता हैं इन्सान
ख़ुशी की कोई पहचान नहीं है
आंखों में कोई तस्वीर नहीं है
मिल भी जाये तो उसे
कैसे पहचाने लोग
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
-
ॐ सांई राम !~!
कब पलट कर वो ज़माना आएगा |
आदमी जब आदमी बन जाएगा ||
आप सब ही है जो मुझे मेरी इस बात का , इस सवाल का जवाब दे सकते है...
रमेश भाई..............
जय सांई राम!!!
-
जय सांई राम
ज़माना यही है जो अभी है। जो वर्तमान में जीता है वही आदमी है काम का। अतीत का नाम ही भूतकाल इसीलिये रखा गया होगा। भूतकाल में जीने वाला इन्सान भूत बनकर जिया तो क्या जिया? भविष्य कभी होता नही, जो होता नही तो उस काल के इन्तज़ार मे जीने वाला आदमी न होने के बराबर होगा। मेरे पास अगर कुछ सम्पदा है तो वो है मेरा वर्तमान। वर्तमान का खज़ाना जिसके पास है वो इन्सान कहलाने के लायक है।
समय कभी पलट कर किसी का नही आया। उसके लिये पलट कर देखना भी मूर्खता होगी।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
-
ॐ सांई राम !~!
रमेश भाई,
अब आप ने समझाया तो ठीक लग रहा है ।
बस कई बार इन्सान के दो दो चेहरों से डर लगता है । सही गलत समझ नहीं आता ।
जय सांई राम !~!
-
जय सांई राम
प्यार से धोखे का
दोस्ती से गद्दारी का
ईमान से बैईमानी का
अगर रिश्ता न होता
तो कौन निभाने के कसमें खाता
विश्वास, वफ़ा और नेकनीयती का
मोल क्या रह जाता
फिर भी तुम प्यार, दोस्ती और ईमान का
दामन कभी नहीं छोड़ना
और इन्सान चाहे शैतान बन जाएँ
चाहे कितने भी ठोकरें लगाएं
सारी उम्मीदें छोड़कर अपनी
शख्सियत पर इंसानियत ओढ़े रहना
उसने नही निभाया
मैं भी नहीं निभाऊंगा
यह सोचकर दगा कभी नही करना
हालात आदमी को वफादार और
गद्दार बनाती है
भूख आदमी को बैईमान और
मिट्टी से बने शरीर की
कई मजबूरियों को समझ लो
अपने धर्म पर अटल रहना सीख लो
रंग बदलती इस दुनियां में
नीयत हर पल बदल जाती है।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
-
जय सांई राम
प्यार से धोखे का
दोस्ती से गद्दारी का
ईमान से बैईमानी का
अगर रिश्ता न होता
तो कौन निभाने के कसमें खाता
विश्वास, वफ़ा और नेकनीयती का
मोल क्या रह जाता
फिर भी तुम प्यार, दोस्ती और ईमान का
दामन कभी नहीं छोड़ना
और इन्सान चाहे शैतान बन जाएँ
चाहे कितने भी ठोकरें लगाएं
सारी उम्मीदें छोड़कर अपनी
शख्सियत पर इंसानियत ओढ़े रहना
उसने नही निभाया
मैं भी नहीं निभाऊंगा
यह सोचकर दगा कभी नही करना
हालात आदमी को वफादार और
गद्दार बनाती है
भूख आदमी को बैईमान और
मिट्टी से बने शरीर की
कई मजबूरियों को समझ लो
अपने धर्म पर अटल रहना सीख लो
रंग बदलती इस दुनियां में
नीयत हर पल बदल जाती है।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
ॐ सांई राम !~!
रमेश भाई,
शब्द नहीं है....वाक्यहीन हूँ ।
आंखे नम है ,पर दिल बहुत खुश है ।
इस तरह केवल आप ही समझा सकते है ।
सचमुच तुसी ग्रेट हो भा जी....
जय सांई राम !~!
-
जय सांई राम
अक्सर भगोड़े क्यों होते हैं सन्यासी...?
पहले सन्यासी होने की परिभाषा को समझें...
भगवा वस्त्र धारण किए माथे पर चंदन का लेप लगाए कमंडल और चिमटा थामे, मुख से प्रभु नाम की महिमा का गान करता और प्रवचन अथवा कथा बांचता हर कोई साधु या सन्यासी हो, यह आवश्यक नहीं है। पर उपदेश कुशल बहुतेरे। अर्थात दूसरों को उपदेश देना सबसे आसान काम है। जिन सूत्रों का अनुपालन कभी खुद न किया हो या जिन बातों को खुद ठीक से न समझे हों उन्हे दूसरों को समझाना स्वयं को ही ठगने जैसा है। एक पहुंचे हुए सन्यासी बाबा प्रवचन कर रहे थे। उनके हजारों भक्त पंडाल में एकाग्र चित्त होकर उन्हे सुन रहे थे। बाबा कह रहे थे कि इंसान की प्रवृति चंदन के वृक्ष जैसी होनी चाहिए, कितने भी सर्प चंदन के वृक्ष से क्यों न लिपट जाएं किन्तु चंदन अपनी सुगंध नहीं छोड़ता। ऐसे ही लोगों को धर्म और सत्य का मार्ग कभी नहीं छोड़ना चाहिए, चाहे मार्ग में कितने ही सर्पाकार अवरोध क्यों न आ जाएं। प्रवचन सुनकर लोग अभिभूत हुए जा रहे थे। बाबा लोगों को मोह-माया से दूर हो जाने की सलाह और उपाय भी सुझा रहे थे। बाबा ने यह भी बताया कि सन्यासी होकर कैसे उन्होने सत्य, धर्म और ईश्वर की खोज की है। आध्यात्म का अनुयायी होने की लालसा में बाबा ने वर्षों पहले अपना घर-परिवार छोड़ दिया था। तद्पश्चात पहाड़ों पर जाकर बाबा ने कठोर साधना की। तब कहीं जाकर वह जीवन-मरण और स्वर्ग-नरक के भेद को जान पाए।
अब यदि क्रम से बाबाजी की बातों का विशलेषण किया जाए तो प्रश्न यह उठता है कि सर्पों से लिपटे होने पर भी चंदन बने रहने का पाठ पढ़ाने वाले, चंदन बनने के लिए खुद सांसारिक मोह-माया के सर्पों से क्यों भाग जाते हैं? घर-गृहस्थी के कर्तव्यों से भाग कर पहाड़ों की शरण में तपस्या कर लेना ही क्या सन्यासी हो जाना है? भगोड़ा होकर साधु होना धर्मसंगत कैसे हो सकता है। सच्चा साधु, सच्चा सन्यासी तो वह है जो सांसारिक आपाधापियों के साथ भी अपने हृदय की निर्मलता और अपने सदविचारों की सुदृंढता बनाए रखता है। अपने घर के दरवाजे, खिड़कियां और रौशनदान बंद करके कोई कहे कि वह समाज के झंझावातों से दूर रहता है, वह संसार के पचड़ों से वास्ता नहीं रखता और इसलिए वह एक सभ्य नागरिक होने के साथ स्वच्छ छवि का एकाधिकारी भी है, तो यह उसके मन का भ्रम है। फिर भले ही वह स्वयं को सन्यासी प्रचारित क्यों न करे। सांसारिक भीड़ के मध्य रहकर अपनी काम-वासना, मोह-माया, मन-मस्तिष्क की विसंगतियों एवं चंचल इंद्रियों पर नियत्रंण रखना ही व्यक्ति विशेष को साधु अथवा सन्यासी बनाता है। उसके लिए अपने उत्तरदायित्वों से भागना अनुचित है। धर्म के अतिरिक्त देश, समाज और परिवार के प्रति भी व्यक्ति का दायित्व होता है।
अक्सर कहा जाता है कि पुण्य कर्म करने वालों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है और पाप कर्म करने वालों के नरक की। यह कहकर सत्य के मार्ग पर चलने का भ्रम पालने वाले दरअसल असत्य के गर्भ में होते हैं। स्वर्ग-नरक तो मात्र भ्रामक गंतव्य हैं। सब कुछ इसी धरती पर है, स्वर्ग भी, नरक भी। यह स्वर्ग-नरक व्यक्ति के कर्म फलों में परिलक्षित भी होते हैं। ऐसे ही जीवन और मरण में भेद बताने वाले अज्ञानी हैं। जीवन-मरण में कोई भेद नहीं है, दोनों अभेद हैं। जीवन और मरण में तो स्वयं भगवान भी भेद नहीं कर पाए तो फिर यह किसी साधु अथवा सन्यासी के लिए कैसे संभव है?
एक बड़ा सवाल यह भी है कि साधु-सन्यासी को पहचाने कैसे? बद्रीनाथ धाम में मैंने अजब दृश्य देखा। दो साधु एक कुत्ते को डंड़े और तालों से मार रहे थे। कारण पूछा तो पता चला वह कुत्ता उनकी रोटी लेकर भागा था। नित्य धार्मिक अनुष्ठान करने वाले, प्रभु की जय-जयकार करने वाले और जीवन में आए सुख-दुख को, 'होय वही जो राम रच राखा' कहकर संबल देने वाले साधु अगले ही पल अपनी रोटी छिन जाने से व्यथित हो उठे थे। इतने, कि हिंसक हो गए। स्वयं पर विपदा आई तो हर वस्तु और प्राणी में भगवान को देखने का प्रवचन देने वाले साधुओं को कुत्ते में भगवान नहीं दिखे। इस आचरण से एक बार फिर यह सिद्ध हुआ कि कोई व्यक्ति सर्वप्रथम मन से अर्थात हृदय से साधु-सन्यासी होता है, उसके बाद कर्म से साधु-सन्यासी होता है और, सबसे अंत में वचन से साधु-सन्यासी होता है, किन्तु केवल वेशभूषा से वह कदापि साधु-सन्यासी नहीं हो सकता।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
किसके मन में क्या है कौन जानेगा
अपने मन को ही भला कौन जानता है
पल-पल हालात के साथ बदलता मन
कौन लगाम कस सकता है इस पर
जो करते हैं इसे काबू
वह संत बन जाते हैं
पर सब संतों का भी मन
काबू में नहीं होता
जगह-जगह आश्रमों के लिए
जमीन की चाहत में सत्ता के
गलियारों में भटकता है उनका मन
यह मन […]
यह भटकता हुआ मन
न जाने क्या क्या खेल रचाता है।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम
भाव बिना सर्वस्व भी दें, तो मुझे स्वीकार नहीं हैं
बॉलिवुड के मशहूर अभिनेता अमिताभ बच्च ने अपने पुत्र अभिषेक की शादी का निमंत्रण पत्र सबसे पहले तिरुपति बालाजी के चरणों चढ़ाया यानी सबसे पहला निमंत्रण उन्हें दिया। उन्होंने इस निमंत्रण के साथ 51 लाख रुपये भी भेंट स्वरूप भगवान को अर्पित किए। उस समय यह खबर भी थी कि शादी सकुशल सम्पन्न होने के बाद अमिताभ बच्चन तिरुपति के बालाजी मंदिर में नौ करोड़ रुपये और चढ़ाएंगे।
यह चढ़ावा थोड़ी सी भी समझ रखने वाले लोगों को परेशान कर रहा है। वे सोच रहे हैं कि भगवान के मंदिर में इतनी धन-संपदा अर्पित करने का क्या अर्थ है? कहीं इस तरह से कोई व्यक्ति अपनी अमीरी का प्रदर्शन तो नहीं कर रहा है या फिर उसका मकसद मंदिर में विशेष अहमियत पाना तो नहीं है, जिससे कि भगवान के दर्शनों के लिए लगने वाली लाइन में ऐसे व्यक्ति को प्राथमिकता मिल जाए?
लक्ष्मी जिनके चरणों की चेरी है और कुबेर मैनेजर, और ऐसे भगवान जो सारी सृष्टि के मालिक हैं, वे इस धन का क्या करेंगे? ऐसा तो है नहीं कि इन पैसों को ले जाकर किसी हलवाई के पास जाएंगे और लड्डू खरीदकर अपने भक्तों में प्रसाद स्वरूप बांट देंगे। एक तरफ जहां मंदिरों में लाखों-करोड़ों का चढ़ावा चढ़ाया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ इसी देश में हजारों मासूम बच्चे भूख से बिलबिला रहे हैं, सैकड़ों मरीज पैसे के अभाव में इलाज नहीं करा पाने के कारण असमय दम तोड़ देते हैं। धन के अभाव में कितनी ही मासूम गरीब कन्याओं के हाथ पीले नहीं हो रहे हैं और कितने ही किसान कर्ज के बोझ तले तरकरीबन हर रोज आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। तो धन की जरूरत इन लोगों को है, न कि भगवान को।
भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं : जो मुझे जिस भाव से भेजता है, मैं भी उसे उसी भाव से भेजता हूं। अतएव होना तो यही चाहिए कि भगवान को चढ़ाया धन उन दीन-दुखियों पर खर्च किया जाए, जो कि किसी कारण से मोहताज हैं। ध्यान दें कि भगवान को दीनबन्धु के नाम से भी पुकारा जाता है। अर्थात् वह दीन-दुखियारों का बंधु है।
आज देश के विभिन्न प्रतिष्ठित मंदिरों के कोषागारों में अरबों-खरबों की सम्पत्ति जमा है। वहां चढ़ावे के रूप में चढ़ाया गया टनों सोना भी मौजूद है। लेकिन इस संपदा का सदुपयोग नहीं हो पा रहा है। इसकी वजह यह है क्योंकि मंदिरों के ट्रस्टी उस संपदा पर सांप की भांति कुंडली मार कर बैठे हैं। अगर मंदिरों में जमा धन-संपदा का सदुपयोग सुनिश्चित करना है, तो ट्रस्टियों को चाहिए कि वे भगवान पर चढ़ाए हुए धन को दीनबंधु की सेवा में लगा दें, इससे ईश्वर भी प्रसन्न होगा।
भगवान तो कहते हैं : मैं भाव का भूखा हूं और इस भाव ही एक सार है। वह यह कि भाव से मुझ को भजे, तो इस भव (संसार) से बेड़ा पार है। पैसा चढ़ाना, वस्त्र-फल-फूल अर्पित करना, यह सब तो मात्र प्रदर्शन है, भक्ति का दिखावा है। भगवान की बनाई हुई चीजें ही भगवान को चढ़ाने का क्या तात्पर्य? फल-फूल, नारियल भला किसने बनाए? भगवान के चरणों में यदि कुछ अर्पित करना है, तो अपना अटूट प्रेम, श्रद्धा, विश्वास- ये अर्पित करें, जिससे भगवान के साथ अपना रिश्ता मजबूत बनाया जा कसता है।
भगवान कहते हैं कि भाव बिना सर्वस्व भी दे, तो मुझे स्वीकार नहीं, भाव से एक फूल भी दे तो मुझे स्वीकार है। तो भगवान भाव के भूखे हैं और हम समझते हैं कि हम खूब सारा धन, फल-फूल-मिठाई चढ़ाएंगे, तो वे प्रसन्न हो जाएंगे। यह सोच गलत है। ऐसे में तो भगवान के प्रसन्न होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि वह कभी नाराज नहीं होता नहीं। हां, इतना जरूर है कि भगवान के श्रीचरणों का सान्निध्य आह्लादकारी होता है। पर भगवान का साथ तभी संभव है जब उसके प्रति हमारा समर्पण पूर्णरूपेण हो, यानी समर्पण में किसी फल की इच्छा न हो। साफ है कि हर स्थिति में भगवान को धन नहीं, बल्कि भक्ति ही चाहिए।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
भगवान, आस्था और विज्ञान
दर्शनशास्त्र के एक प्रोफेसर क्लास में वैज्ञानिक तथ्यों का सहारा लेकर ईश्वर के अस्तित्व को नकारने में लगे थे। उन्होंने एक नए छात्र को खड़ा किया और पूछा, क्या तुम भगवान को मानते हो? छात्र के 'हाँ' कहने पर प्रोफेसर ने सवालों की बौछार शुरू कर दी। उन्होंने पूछा कि क्या भगवान अच्छा है? छात्र का जवाब एक बार फिर सकारात्मक था। उन्होंने फिर पूछा, क्या ईश्वर सर्वशक्तिमान है? छात्र ने इसका जवाब भी सकारात्मक दिया। प्रोफेसर साहब से रहा नहीं गया। उन्होंने पूछा, क्या दुनिया में हर चीज ईश्वर ने बनाई है? छात्र ने हां में सिर हिलाया। अब प्रोफेसर साहब की मुद्रा बदली, बोले, मेरा भाई रोज ईश्वर की पूजा किया करता था, लेकिन उसे कैंसर हो गया और वह मर गया। जब ईश्वर ने हर चीज को बनाया है तो बीमारियों, समस्त बुराइयों को किसने बनाया? उसी ईश्वर ने। बुरी चीजों को भी बनाने वाला ईश्वर अच्छा कैसे हो सकता है।
अब छात्र खामोश था। प्रोफेसर ने फिर कहा, विज्ञान कहता है कि तुम्हारे पास पांच इंद्रियां हैं जिनके सहारे तुम अपने आसपास की दुनिया को पहचान सकते हो। क्या तुमने कभी भगवान को देखा है, सुना है, छुआ है, चखा है या महसूस किया है। छात्र का जवाब नकारात्मक था। प्रोफेसर बोले, क्या तुम फिर भी भगवान पर भरोसा करते हो? छात्र ने कहा, हां मुझे ईश्वर के होने का भरोसा है। प्रोफेसर लगभग खीझते हुए बोले, यह आस्था ही तो विज्ञान की राह में रोड़ा है।
लेकिन अब बारी छात्र की थी, उसने पूछा क्या गर्मी होती है? प्रोफेसर ने हां में सिर हिलाया। छात्र ने पूछा, ठंडक होती है? प्रोफेसर का जवाब सकारात्मक था। छात्र ने कहा, जी नहीं गर्मी को तो हम माप सकते हैं, लेकिन ठंडक को नहीं। आप कह सकते हैं ज्यादा गर्मी है, बहुत ज्यादा गर्मी है, कम गर्मी है या गर्मी बिल्कुल नहीं है, लेकिन ठंडक कुछ नहीं होती, बल्कि गर्मी की गैरहाजिरी ही ठंडक है। हम शून्य से 458 डिग्री नीचे तक गर्मी को माप सकते हैं, लेकिन उससे नीचे नहीं जा सकते।
छात्र ने पूछा अंधकार होता है? प्रोफेसर साहब बोले हां! रात को अंधकार देखा जा सकता है। छात्र बोला नहीं! जैसे ठंडक कुछ नहीं होती, वैसे ही अंधकार भी कुछ नहीं होता, सिर्फ प्रकाश की अनुपस्थिति ही अंधेरा कहलाती है। प्रकाश को हम माप सकते हैं, लेकिन अंधकार को नहीं। आप कह सकते हैं कम प्रकाश है, ज्यादा प्रकाश है, सामान्य प्रकाश है, बहुत ज्यादा प्रकाश है, लेकिन आप अंधेरे को नहीं माप सकते। प्रोफेसर साहब और छात्र के इस रोचक संवाद के दिलचस्पी ले रही क्लास अब इतनी खामोश हो चुकी थी कि सूई भी गिरती तो सुनाई दे जाती।
छात्र ने फिर कहा, सर! आप द्वैत के सिद्धांत पर भरोसा करते हैं। आप मृत्यु को जीवन के विपरीत मानते हैं, जबकि जीवन का ना होना मृत्यु है। छात्र फिर बोला, आप पढ़ाते हैं कि मानव बंदरों से विकसित हुआ। प्रोफेसर बोले, हां यह प्राकृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया है। छात्र ने पूछा, क्या यह प्रक्रिया आपने अपनी आंखों से देखी है? इस पर प्रोफेसर साहब बगलें झांकने लगे। छात्र ने कहा कि फिर हम आपकी बात पर कैसे भरोसा करें। आप वैज्ञानिक कम उपदेशक ज्यादा लगते हैं।
इसके बाद छात्र ने कक्षा से पूछा कि क्या उन्होंने प्रोफेसर का दिमाग देखा है। कक्षा खिलखिला पड़ी। छात्र ने पूछा, क्या प्रोफेसर साहब का दिमाग कभी सुना, चखा या सूंघा है। कक्षा में खामोशी थी।
छात्र फिर प्रोफेसर साहब से मुखातिब हुआ। उसने सविनय पूछा, बताएं कि हम आपके लेक्चरों पर कैसे भरोसा करें। झिझक के साथ प्रोफेसर साहब बोले, मुझे लगता है बेटे तुम्हें मेरे पढ़ाने पर भरोसा करना चाहिए। छात्र की आंखों में जीत की चमक थी। बोला, बिल्कुल यही तो सर! यही भरोसा तो है जो इंसान को भगवान से जोड़ता है। वही विधाता जिसके कारण चीजें सजीव एवं गतिमान हैं।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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ॐ साईं राम....
दो रंगी छोङ दे एक रंग हो जा ,
या तो बेरंग हो जा , या फिर रंगारंग हो जा....
जय साईं राम...
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जय सांई राम।।।
भूत-पिशाच निकट नहीं आवे...
स्वप्न कुछ और नहीं, नींद के दौरान पैदा होने वाले विचारों, तस्वीरों और भावनाओं से जुड़ी मानसिक क्रिया है। मेडिकल साइंस के अनुसार स्वप्न दबी इच्छाओं के लिए एक तरह का सेफ्टी वाल्व है। सामान्यत: हर व्यक्ति हर रात करीब 2 घंटे स्वप्न देखता है।
हमारी नींद कई चक्रों में बंटी होती है और हर चक्र कई चरणों में। हर चक्र की शुरुआत हल्की नींद से होती है। अंतिम 2 चरणों में गहरी नींद और रेम (रैपिड आई मूवमेंट) का नंबर आता है। हम हर रात 4 से 5 रेम पीरियड से गुजरते हैं। इनकी अवधि 5 से लेकर 45 मिनट तक की होती है। सारे सपने सिर्फ रेम पीरियड में ही दिखते हैं और सिर्फ स्तनधारियों को ही। रेंगने वाले जन्तुओं और कोल्ड ब्लडेड (ठंडे खून वाले) जीव-जन्तुओं को सपने नहीं आते, क्योंकि नींद के दौरान वे रेम पीरियड से नहीं गुजरते हैं।
नींद की शुरुआत में रेम पीरियड काफी छोटा होता है, लेकिन जैसे-जैसे नींद की अवधि लंबी होती जाती है, रेम पीरियड की अवधि भी बढ़ती जाती है। यही वजह है कि हम ज्यादातर सपने सुबह या नींद के आखिरी चक्र में देखते हैं। इसी वजह से कई बार जब हमारी नींद सुबह में खुलती है तो हम रेम पीरियड में होते हैं और थोड़े समय पहले देखे गए सपने दिमाग में मौजूद रहते हैं। अक्सर जो बुरे सपने याद रहते हैं, वह भी सुबह के वक्त ही देखे गए होते हैं। इसकी एकमात्र वजह है रेम पीरियड में नींद का खुलना। रेम पीरियड के बाद नींद खुलने पर व्यक्ति को कुछ भी याद नहीं रहता है। न ही अच्छा न ही बुरा।
डॉक्टर होने के नाते अक्सर हमारा सामना ऐसे मरीजों से होता रहता है, जो दु:स्वप्न के शिकार होते हैं। ऐसे लोगों की अमूमन डर और चिंता के मारे नींद खुलने की शिकायत होती है। नींद खुलने के पीछे अधिकतर का यही कहना होता है कि स्वप्न में वे किसी मृत या जिंदा (जाने-अनजाने) व्यक्ति को देखते हैं। ऐसी स्थितियों को साधारण लोग भूत-प्रेत या पिशाच से जोड़ देते हैं। फिर अशिक्षा या अंधविश्वास के कारण वे ओझा, पुजारी, बाबा, तांत्रिक या किसी ठग के चक्कर में फंस जाते हैं।
मेडिकल साइंस के हिसाब से देखें तो बुरे सपने (दु:स्वप्न) कुछ और नहीं बल्कि बढ़-चढ़ कर देखे गए सपने ही हैं। ऐसे सपने देखने का मतलब यह नहीं है कि कोई भूत, प्रेत या पिशाच पीछे पड़ा है। दरअसल ये सपने हम भीतरी तनाव, निराशा, व्याकुलता, मदिरा या फिर ड्रग्स के प्रभाव के कारण देखते हैं। इन चीजों के कारण रेम पीरियड बढ़ जाता है और हम लंबे-लंबे और ऊटपटांग सपने देखते हैं। वहीं कैफिनयुक्त पेय पदार्थों और कुछ दूसरे ड्रग्स का प्रभाव ठीक इसके विपरीत होता है। ये रेम पीरियड को छोटा कर देते हैं। कैफिन या रेम पीरियड को घटाने वाले ड्रग ऊटपटांग सपने देखने वालों के लिए काफी फायदेमंद साबित होते हैं।
बार-बार दु:स्वप्न देखने को ड्रीम एंग्जाइटी डिसॉर्डर कहा जाता है। इसके इलाज की जरूरत होती है। ठीक तरह से इलाज न होने पर इनसे फैमिली लाइफ के लिए भी परेशानी पैदा होने का खतरा रहता है। दु:स्वप्न देखने की बीमारी पुरुषों की तुलना में महिलाओं में ज्यादा पाई जाती है। महिलाओं में यह समस्या युवा अवस्था में शुरू हो जाती है।
दु:स्वप्न या मृत प्राणियों को सपने में देखना कोई नई बात नहीं है। आयुर्वेद में इसकी विस्तार से चर्चा है। वात असंतुलन को इसका कारण माना गया है और वात को संतुलित करने वाली जीवन शैली को अपनाना इसका इलाज माना गया है। प्राणायाम, सम्मोहन, काउंसलिंग, ध्यान, योग, जलनेति और नियमित रूप से कसरत वगैरह से दु:स्वप्न के शिकार लोगों को काफी मदद मिलती है। हनुमान चालीसा में 1 दोहा है: भूत पिशाच निकट नहीं आवे...। मिथकीय संदर्भ में देखें तो हनुमान को ऐसे रूप में दर्शाया गया है जिसे प्राणायाम और उससे जुड़ी दूसरी सिद्धियों पर अधिकार प्राप्त है। दोहे का मूल अर्थ यह है कि प्राणायाम आदि से खुद को जोड़ कर इन व्याधियों से मुक्ति पाई जा सकती है।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
इस जीवन से क्या बटोरें, क्या ले जाएं...
हमारे आसपास दो प्रकार की स्थितियाँ नजर आती हैं, दो तरह के वातावरण मिलते हैं। या तो ग्रामीण जीवन की शान्ति, जहाँ रोज की तू-तू, मैं-मैं और सुबह उठने से रात को बिस्तर पर गिर पड़ने तक तनावपूर्ण और मशीनी जीवन नहीं है। वहाँ शांति है, पर समृद्धि नहीं है। वहाँ लोग अवसर व हुनर के अभाव में मुश्किल से दो समय पेट भर पाते हैं। जीवन नीरस या एकरस सा लगता है। दूसरी तरफ शहरी जीवन है। वहाँ दिन-रात काम की मारामारी है, दौड़-भाग मची रहती है। वैसे जीवन में समृद्धि है, तड़क-भड़क है, पर चैन से बिताने वाली जिंदगी नहीं है।
मनुष्य के कर्म साधारणतया तीन प्रकार के होते हैं। स्वार्थ और अहंकारपूर्ण कामनाओं की तृप्ति के लिए किए जाने वाले कर्म। अहंकार रहित कामनाओं की पूर्ति के लिए किए जाने वाले कर्म। और बिना किसी कामना के नि:स्वार्थ भाव से किए जाने वाले कर्म।
पहली श्रेणी के कर्म करने वाला मनुष्य महज अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए रात-दिन दौड़ लगाता है, एड़ी-चोटी का जोर लगाता है। उसे सिर्फ अपने एशो-आराम के लिए ही धन कमाने की इच्छा रहती है। वह सारा जीवन समाज से लेता रहता है, वापस समाज को कुछ देने की, उसके लिए कुछ करने की कोई भावना तक उसके मन में नहीं उठती। उसके जीवन में परोपकार, समाज सेवा, राष्ट्रहित आदि का कोई आदर्श या लक्ष्य नहीं होता।
ऐसा व्यक्ति खूब धन कमाने और इन्द्रिय सुख भोगने के बावजूद जीवन में शान्ति और समृद्धि एक साथ नहीं पा सकता। ऊपर दिए गए कर्म सिद्धान्त से उसे अगला जीवन बिना शांति के ही मिलेगा, क्योंकि वह उसी के लायक है। लेकिन दुर्भाग्य से अधिकांश लोगों की जीवन शैली ऐसी ही है।
दूसरी श्रेणी का व्यक्ति बिना स्वार्थ व अहंकार के कार्य करता है। वह अपनी बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के बाद अपने समाज, देश या पूरी मानवता के हित में कार्य करने का लक्ष्य रखता है। अपनी मेहनत द्वारा वह समाज को अपना ऋण लौटाता है। अपने जीवन और अपनी प्रगति के लिए वह पूरे समाज के प्रति कृतज्ञ महसूस करता है और जो पाता है उसके बदले कुछ लौटाना और बाँटना चाहता है।
इस प्रकार के व्यक्ति को अवश्य ही जीवन से समृद्धि के साथ सुख की भी प्राप्ति होगी। यही पुण्य है। यही उसके जीवन की दिशा निर्धारित करता है- जीवन की दिशा और भविष्य ज्योतिषियों व कर्मकाण्डियों की बातों पर नहीं निर्भर करता। सुख-समृद्धि में जीवन पाकर यदि कोई सदाचार व परोपकार को अपने जीवन का मार्ग बनाता है, तो फिर उसे बुद्धिमान साधकों में स्थान मिलता है, ताकि वह शेष यात्रा भी उसी तरह पूरी कर सके।
लेकिन यदि सुख संपत्ति के वातावरण में पैदा होकर कोई वापस स्वार्थ व भोग-विलास में पड़ जाए, जैसा कि अक्सर सामान्य जनों के साथ होता ही है, तो फिर उसका पतन अवश्यंभावी है। कर्म का सिद्धान्त किसी का लिहाज नहीं करता। तीसरी श्रेणी के लोग इस दुनिया में मुट्ठी भर ही होते हैं। अपने जीवन में बिना किसी कामना के अपना कर्त्तव्य पूरा करते हैं, जिसे निष्काम कर्म कहा गया है। इस प्रकार के लोग जीवन में अध्यात्म साधना करते रहते हैं। ऐसे ही लोगों को मोक्ष मिलता है।
मोक्ष का अर्थ है जन्म मृत्यु के चक्र से छुटकारा पाना। ईश्वर व हमारे बीच का पर्दा असल में हमारी कामनाओं का पर्दा होता है। यदि उचित गुरु के निर्देश में हम नि:स्वार्थ भाव से अपना कर्म करें और साथ ही अध्यात्म की साधना भी करते रहें, तो अपने साधारण पारिवारिक जीवन में रहते हुए भी, सारे सांसारिक दायित्व निभाते हुए भी हम मोक्ष पा सकते हैं।
आश्चर्य यही है कि प्राय: सभी लोग जीवन भर रात दिन परिश्रम कर ऐसी निधियों का संकलन करते हैं जो यहीं संसार में रह जाती हैं, साथ नहीं जातीं। साथ जाने वाले आध्यात्मिक संस्कार कोई नहीं जुटाता ताकि आगे का भविष्य सुरक्षित हो। न बैंक बैलेंस साथ जाता है न परिवार।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
आँसू......
आँसू वो अनमोल मोती हैं जो पत्थर दिल को भी मोंम कर देते हैं। आँसू का तालुक आँख से बिलकुल ऐसा है जैसा फूल का खुशुबू से, ज़िन्दगी का आस से, आँसू ऐसे मोती हैं, जो आँख के अन्दर ही अच्छे लगते है। इन मोतियों की कदर और कीमत आँख के अन्दर रह कर और ज्यादा हो जाती है। फिर यही मोती अगर एक दफा आँख में से निकल जाऐं तो उस के बाद दोबारा वापस नही आते।
कहने को ये एक छोटा सा कतरा है मगर दुख और दर्द के तमाम अहसास को अपने अन्दर जब्त कर लेते है, कभी ग़म की हालात में ये छोटा सा कतरा आँख से निकल कर ग़मों के बोझ को हलका कर देते हैं तो कभी खुशी की कैफियत को हकीकी मायनों में बयान करते है। ना किसी से कोई गिला करो और ना ही कोई शिकायत। ये आँसू ही है जो नई रोशिनी लिये जीने का अहसास हमेशा इन्सान को कराते रहते हैं और मुफलिस दोस्त की तरह दुख दर्द बांटते है।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
मस्त रहो, सब कुछ जानना ज़रूरी नहीं...
कभी-कभी इच्छा होती है कि सब कुछ जान लें। दुनिया की अनंत सैर पर निकल जाएं। पुरानी सभ्यताओं के अवशेष देखें, नए का निर्माण देखें। घूम-घूमकर और पढ़कर राजनीति भी जान लें, अर्थनीति भी। साइंस, साहित्य, खगोलशास्त्र से लेकर इतिहास-भूगोल समेत दुनिया की कोई भी चीज़ ऐसी न हो जिनकी जानकारी हमें न हो। यानी, पूरे एनसाइक्लोपीडिया बन जाए। फिर लगा कि तब किसी कंप्यूटर की फाइल और हम में अंतर क्या रह जाएगा? इसी दौरान पुरानी डायरी पलटते-पलटते मुझे किसी विचारक की चंद लाइनें लिखी हुई नज़र आ गईं
न सब कुछ देखना-पढ़ना उचित है, न अनिवार्य। व्यक्ति को प्रतिपल चुनाव करना चाहिए। ...हम अंधों की तरह टटोलते रहते हैं। एक हाथ ऊपर भी मारते हैं। एक हाथ नीचे भी मारते हैं। ...इस तरह हम अपनी ज़िंदगी को अपने ही हाथों काटते रहते हैं। हम अपनी ज़िंदगी को दोनों तरफ फैलाए रहते हैं और कहीं भी नहीं पहुंच पाते। ...हम सब कन्फ्यूज्ड हैं क्योंकि हम अनर्गल, असंगत चुनाव करते रहते हैं। अनेक तरह की नांव पर सवार हो जाते हैं। फिर जीवन टूटता है, जीवन नष्ट होता है और हम कहीं नहीं पहुंच पाते।
मैं सोचने लगा कि फिर रास्ता क्या है? मुझे एक पुराने साथी की बात याद आ गई कि हमारा 90 फीसदी से ज्यादा ज्ञान अप्रत्यक्ष होता है। हम आग को छूकर नहीं देखते कि वह जलाती है या नहीं। संत कबीर भी कह चुके हैं कि ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय। लेकिन आज के संदर्भों में प्रेम का ये ढाई आखर है क्या? मैं उलझन में पड़ गया कि करूं क्या? यहीं पर मुझे किसी और विद्वान-विचारक की लाइनें अपनी डायरी में दिख गईं - वह मत करो जो तुम चाहते हो और तब तुम वह कर सकते हो जो तुम्हें अच्छा लगता है।
यानी मन के राजा बनो, मस्त रहो। लेकिन मन के राजा ही बन पाते तो चिंतित और परेशान और साथ ही कन्फ्यूज्ड क्यों रहते? अपने को हर पल आधा-अधूरा क्यों महसूस करते? है ना?
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
उदासी और आनंद...
उदासी उतना उदास नहीं करती, जितना उदासी आ गई, यह बात उदास करती है। उदासी की तो अपनी कुछ खूबियाँ हैं, अपने कुछ रहस्य हैं। अगर उदासी स्वीकार हो तो उदासी का भी अपना मजा है। मुझे कहने दो इसी तरह, कि उदासी का भी अपना मजा है। क्योंकि उदासी में एक शांति है, एक शून्यता है। उदासी में एक गहराई है। आनंद तो छिछला होता है। आनंद तो ऊपर-ऊपर होता है। आनंद तो ऐसा होता है जैसे नदी भागी जाती है और उसके ऊपर पानी का झाग। उदासी ऐसी होती है जैसी नदी की गहराई--अंधेरी और काली। आनंद तो प्रकाश जैसा है। उदासी अंधेरे जैसी है। अंधेरी रात का मजा देखा? अमावस की रात का मजा देखा? अमावस की रात का रहस्य देखा? अमावस की रात की गहराई देखी? मगर जो अंधेरे से डरता है, वह तो आँख ही बंद करके बैठ जाता है, अमावस को देखना ही नहीं चाहता। जो अंधेरे से डरता है, वह तो अपने द्वार-दरवाजे बंद करके खूब रोशनी जला लेता है। वह अंधेरे को झुठला देता है। अमावस की रात आकाश में चमकते तारे देखे? दिन में वे तारे नहीं होते। दिन में वे तारे नहीं हो सकते। दिन की वह क्षमता नहीं है। वे तारे तो रात के अंधेरे में, रात के सन्नाटे में ही प्रकट होते हैं। वे तो रात की पृष्ठभूमि में ही आकाश में उभरते हैं और नाचते हैं। ऐसे ही उदासी के भी अपने मजे हैं, अपने स्वाद हैं, अपने रस हैं।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
उदासी और आनंद...
उदासी उतना उदास नहीं करती, जितना उदासी आ गई, यह बात उदास करती है। उदासी की तो अपनी कुछ खूबियाँ हैं, अपने कुछ रहस्य हैं। अगर उदासी स्वीकार हो तो उदासी का भी अपना मजा है। मुझे कहने दो इसी तरह, कि उदासी का भी अपना मजा है। क्योंकि उदासी में एक शांति है, एक शून्यता है। उदासी में एक गहराई है। आनंद तो छिछला होता है। आनंद तो ऊपर-ऊपर होता है। आनंद तो ऐसा होता है जैसे नदी भागी जाती है और उसके ऊपर पानी का झाग। उदासी ऐसी होती है जैसी नदी की गहराई--अंधेरी और काली। आनंद तो प्रकाश जैसा है। उदासी अंधेरे जैसी है। अंधेरी रात का मजा देखा? अमावस की रात का मजा देखा? अमावस की रात का रहस्य देखा? अमावस की रात की गहराई देखी? मगर जो अंधेरे से डरता है, वह तो आँख ही बंद करके बैठ जाता है, अमावस को देखना ही नहीं चाहता। जो अंधेरे से डरता है, वह तो अपने द्वार-दरवाजे बंद करके खूब रोशनी जला लेता है। वह अंधेरे को झुठला देता है। अमावस की रात आकाश में चमकते तारे देखे? दिन में वे तारे नहीं होते। दिन में वे तारे नहीं हो सकते। दिन की वह क्षमता नहीं है। वे तारे तो रात के अंधेरे में, रात के सन्नाटे में ही प्रकट होते हैं। वे तो रात की पृष्ठभूमि में ही आकाश में उभरते हैं और नाचते हैं। ऐसे ही उदासी के भी अपने मजे हैं, अपने स्वाद हैं, अपने रस हैं।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
Jai Sai Ram!!!
My dearest Ramesh Bhai, thank you so much for this immensely beautiful thought! An excellent way to look at darkness of sadness indeed. Andhairay se pyaar ho gaya yeh pad kar :) :D May Baba bless my Bhai always, and me with my Bhai's wonderful thoughts forever!!
Om Sai Ram!!
Om Sai Ram!!
:-*
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जय सांई राम।।।
मैं अपनी सबसे प्रियतम बहन सुनीता के हौसला अफज़ाई पर ज्यादा नही पर सिर्फ अपने बाबा से दुआऐं ही कर सकता हूँ...
जो खुशी तुम्हारे करीब हो
वो सदा तुम्हे नसीब हो...
तुझे वो खुलूस मिले कि जो
तेरी ज़िन्दगी पे मुहीत हो...
जो मयार तुझको पसंद हो
जो तुम्हारे दिल की उमंग हो...
तेरी ज़िन्दगी जो तलब करे
तेरे हमसफर का वो रंग हो...
जो ख्याल दिल में असीर हो
और दुआ में भी तासीर हो...
तेरे हाथ उठते ही बाबा करे
तेरे सामने ताबीर हो...
तुझे वो जंहा मिले जिधर
गमों का कोई गुज़र ना हो...
जिधर रोशिनी हो खुलूस की
और नफरतों को खबर ना हो...
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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Jai Sai Ram!
Subhaan Allah dearest Bhai! Itni khubsurat dua ke liye aap ka shukriya. Baba aap par hamesha meharbaan rahain, yeh dua hai meri unsay!
Om Sai Ram!
:) :)
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जय सांई राम।।।
कुछ अटपटे कुछ हटकर ख्यालों की कड़ी में एक और ख्याल।।
बनाने में कुछ जाता है
नष्ट करने में नहीं
बनाने में मेहनत लगती है. बुद्धि लगती है, वक्त लगता है
तो़ड़ने में बस थोड़ी सी ताकत
और थोड़े से मंसूबे लगते हैं।
इसके बावजूद बनाने वाले तोड़ने वालों पर भारी पड़ते हैं
वे बनाते हुए जितना हांफते नहीं,
उससे कहीं ज्यादा तोड़ने वाले हांफते हैं।
कभी किसी बनाने वाले के चेहरे पर थकान नहीं दिखती
पसीना दिखता है, लेकिन मुस्कुराता हुआ,
खरोंच दिखती है, लेकिन बदन को सुंदर बनाती है।
लेकिन कभी किसी तोड़ने वाले का चेहरा
आपने ध्यान से देखा है?
वह एक हांफता, पसीने से तर-बतर बदहवास चेहरा होता है
जिसमें सारी दुनिया से जितनी नफरत भरी होती है,
उससे कहीं ज्यादा अपने आप से।
असल में तोड़ने वालों को पता नहीं चलता
कि वे सबसे पहले अपने-आप को तोड़ते हैं
जबकि बनाने वाले कुछ बनाने से पहले अपने-आप को बनाते हैं।
दरअसल यही वजह है कि बनाने का मुश्किल काम चलता रहता है
तोड़ने का आसान काम दम तोड़ देता है।
तोड़ने वालों ने बहुत सारी मूर्तियां तोड़ीं, जलाने वालों ने बहुत सारी किताबें जलाईं
लेकिन बुद्ध फिर भी बचे रहे, ईसा का सलीब बचा रहा, कालिदार और होमर बचे रहे।
अगर तोड़ दी गई चीजों की सूची बनाएं तो बहुत लंबी निकलती है
दिल से आह निकलती है कि कितनी सारी चीजें खत्म होती चली गईं-
कितने सारे पुस्तकालय जल गए, कितनी सारी इमारतें ध्वस्त हो गईं,
कितनी सारी सभ्यताएं नष्ट कर दी गईं, कितने सारे मूल्य विस्मृत हो गए
लेकिन इस हताशा से बड़ी है यह सच्चाई
कि फिर भी चीजें बची रहीं
बनाने वालों के हाथ लगातार रचते रहे कुछ न कुछ
नई इमारतें, नई सभ्यताएं, नए बुत, नए सलीब, नई कविताएं
और दुनिया में टूटी हुई चीजों को फिर से बनाने का सिलसिला।
ये दुनिया जैसी भी हो, इसमें जितने भी तोड़ने वाले हों,
इसे बनाने वाले बार-बार बनाते रहेंगे
और बार-बार बताते रहेंगे
कि तोड़ना चाहे जितना भी आसान हो, फिर भी बनाने की कोशिश के आगे हार जाता है।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
ना किसी रावण को भगाने की.....ना लंका को जलाने की सोचो... मै तो कहता हूँ सिर्फ सांई राम सांई राम करते मेरे सांई को गले लगाओ। ये सब सांई राम का काम है। अपने सांई हैं ना फिर काहे का ग़म है मेरी बहना! क्यों कैसी कही????
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
अन्नु मन से हारने वाली बात मत करो। प्रभु की रीत को समझने के लिये हमारे पास 'वो' नज़र इनायत होनी चाहिये। जब हम अपनी दो आँखों से देखते है, तो जो वो दिखाती है वो हमे दिखाई पड़ता है। लेकिन जब इन्ही दो आँखों के पीछे बैठे 'उस' कलाकार की नज़रों से देखेंगे तो सब रीतों में प्रीत की रीत ही दिखेगी।
ये तुमने कैसे जाना कि जो अच्छे होते है उनकी दशा अच्छी नही होती? कभी ना अच्छे लगने वालों के घर के भीतर गई हो याँ उनके साथ कुछ समय गुज़ारा है? क्या उनसे कभी पूछा है कि उनकी रातों की नींद कैसी होती है? उनको नींद की गोलियां खाकर सारी रात करवटें बदलते नही देखा शायद तुमने। खैर इस विषय पर बहुत ही लम्बी चर्चा की जा सकती है। पर मेरा तो मानना है कि हमे प्रभु की रीत के विषय मे कोई भी प्रश्न चिन्ह लगाने का कोई अधिकार ही नही है क्योकि उसकी लीला को समझने के लिये हमारे पास वो बुद्धि ही नही है।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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ॐ सांई राम~~~
रमेश भईया....ऐसा नहीं है कि मैं मन हार रही हूँ ...ये तो बस मेरे मन के कुछ अटपटे कुछ हटकर ख्याल है बस....आप तो जानते ही है कि मैं कितनी मस्त हूँ...वैसे भी बाबा है साथ में हमेशा तो कैसी सोचना....
मैं प्रभु की रीत पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगा रही हूँ, इस बात का कोई अधिकार क्या...कुछ भी नहीं है हमारे पास....ये जानने की तो चाह भी नहीं है....
हम इंसान तो ऐसे है.....
वाह रे वाह ओ समझदार इंसान,
इतना कुछ मिला तुझे शुक्र ना हुआ,
कुछ एक आध रह गया फट गिला दे दिया....
और वैसे भी रमेश भाई,आप जानते है मेरी सोच यही है...
रख भरोसा सांई पर किये जा अपना काम,
सांई का ले कर नाम शुभ बस जपे जा सांई राम सांईराम~~~
जय सांई राम~~~
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जय सांई राम।।।
अपेक्षा
जंगली घास की तरह
उग आती है
रिश्तों के बीच
जगह बना लेती है
स्नेह से रिक्त स्थान पर
टिक जाती है
तुम सोचते हो
सींचते हो
फिर भी जिन्दगी
हरी क्यों नहीं
जिन्दा पलों से
लदी क्यों नहीं
सूत्र पुराना ही है
बेहतर फसल
के खातिर
घास खींचनी होगी
काटनी होगी
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
बड़े बद-नसीब
होते हैं वो
ढ़ूढ़ते है समान अपना
दूसरों के घरों मे जो
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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मन को इतनी छूट न दो
कि वह कहते-कहते
तुम्हारी सुनना ही बंद कर दे।
अगर उसकी सुनने लगो इतनी
तो यह न हो
कि बोलना ही वह तुम्हारा बंद कर दे।
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क्या आत्मा अजर अमर है?
आत्मा अजर अमर होती है। शरीर नाशवान है वह मरता है परन्तु आत्मा कभी नहीं मरती है। यही हमें बचपन से ही सिखाया जाता है।
आत्माएं शरीर बदलती रहती है। आत्माओं के लिये शरीर मात्र एक किराए के मकान की तरह होता है। जब वे इसे छोडती हैं तो शरीर को मृत मान लिया जाता है।
इसका मतलब हम आत्माए हैं जो इस शरीर में रह रहै है। किसी दिन हम इस शरीर को छोड देंगे।
लेकिन जब सभी जानते हैं कि आत्माएं नहीं मरती तो फिर किसी के मरने पर इतना रोना धोना क्यों होता है।
दुनिया की जनसंख्या क्यों बढ रही है?
यह बात भी आश्यर्य की है कि दुनिया की जनसंख्या क्यों बढ रही है जबकी आत्मा तो अजर अमर है। आत्माएं शरीर बदलती है इससे
मानव का जीवन मृत्यु का खेल चलता है, तो इस नियम के अनुसार तो जनसंख्या नहीं बढनी चाहीये न। क्योंकी जो मर रहा है वो
कुछ दिनों बाद फिर जन्म ले रहा है, तो फिर इतनी पापूलेशन कैसे बढी।
हम भारतीय 35 करोड से एक अरब कैसे होगये?
क्या नई नई आत्माएं जन्म ले रही है?
उदाहरण के तोर पर भारत देश में 1940 के समय लगभग 35करोड की जनसंख्या थी। इसका मतलब 35करोड आत्माएं 35करोड शरीरों में रह रही थी। तो फिर ये जनसंख्या उत्तरोत्तर आगे कैसे बडती गई। तो क्या लगातार आत्माएं भी जन्म ले रही थी?
ये बात मेरी समझ से परे है
क्या आत्माएं भी आपस में शादी करके बच्चे पैदा कर रही है?
तभी तो एक अरब आत्माएं हो गई है।
इसका मतलब सरकार को आबादी नियंत्रण के ये जनता को समझाने कि बजाय आत्माएं को समझाना चाहिये कि वो आत्माएं पैदा न करें। बैचारे शरीर फालतु ही बदनाम हो रहै हैं जनसंख्या वृद्धी के लिये।
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जय सांई राम।।।
सवाल और जवाब
यह भी एक सवाल है कि आदमी के मन में पहला सवाल क्या आया होगा? वह चाहे जो भी रहा हो पर उस सवाल ने ही सभ्यता को एक गति दी होगी। उसका उत्तर ढूंढने निकले मनुष्य ने और भी कई चीजें खोज डाली होंगी। हमारे मन में अनगिनत सवाल उठते रहते हैं। उनके जवाब के भी कई स्त्रोत हैं। कई बार हमारे कुछ सवालों का जवाब समय देता है। लेकिन कुछ शाश्वत प्रश्न ऐसे हैं जिनका आज तक कोई ढंग का उत्तर नहीं मिल सका, जैसे जीवन के रहस्यों के बारे में। फर्ज कीजिए, एक दिन हमें उसका उत्तर मिल जाए। सब कुछ पता चल जाए। संभव है उस दिन से जीने की हमारी ललक कुछ कम हो जाएगी। यह ऐसा ही है जैसे हमें यह पता चल जाए कि हमारी आयु कितनी है? जीवन के अंत के बारे में ठोस जानकारी हमें जीवन से और दूर ले जा सकती है। इसलिए कई प्रश्नों का अनुत्तरित रहना ही हमारे हित में है। यह अनिश्चयता हमारे जीवन को रोचक बनाती है। सवाल तो उठते रहेंगे, लेकिन यह जरूरी नहीं कि उनका जवाब भी मिल ही जाए।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
अगर कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिये, मन हलका हो जाएगा...
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम़।।।
मन का खोखलापन
तन को रुग्ण कर देता हैं
विचारों की कलुषिता से
अपना दिल बैचैन होता हैं
जैसा ख़्याल दिल में होगा
वैसा ही दृश्य सामने
हर हाल में प्रकट होगा
ख्वाब देखना ठीक है
पर अगर पूरे न हों तो
देखने वालों को तकलीफ
का सामना करना पड़ता हैं
जैसी सोच होती है
वैसी ही दुनिया सामने नजर आती है
कुछ अच्छा और बुरा नहीं
नज़रिया जैसा होता है
वैसे ही अहसास हो जाते हैं
इसलिये जैसी दुनिया
देखना चाहते हो
वैसी ही सोच के साथ चलो
ख़्वाबों और ख्यालों में
कुछ खूबसूरत नजरिये
जोड़ते हुए उनके साथ ढलो
जिन्दगी का सफर तो सभी काटते
कुछ रोते कराहते गुजारते
जो हँसते, गुनगुनाते और अपनी
हकीकतों से करते दोस्ती
वही सुख के पल जी पाते है...
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
आज आप ऐसे हैं। पर कल कैसे होंगे ये पता नही किसी को भी। एक चीज है जिसका नाम है वक्त। ये वक्त बहुत बलवान है। कभी अमीर को गरीब तो कभी गरीब को अमीर इसे सब ढालना आता है। कभी संवेदनशील को संगदिल तो कभी संगदिल को फकत मोम। एक चीज है जिसे हिन्दी मे लौह या लोहा कहते है। रसायन शास्त्र वाले उसे Fe लिख के दर्शाते हैं। वो मजबूती का प्रतीक है। ये वक्त उसे भी जंग लगा के खा जाता है। वक्त ऐसी ही चीज है। कभी ऐसे भी दिन होते है जब हंसी ही हंसी हर पल। तो कभी ऐसा भी वक्त आता है जब अश्क ही अश्क बहते रहते हैं। और फ़िर कुछ वक्त बाद वो आंख भी सूख जाती है जिस से निर्झारनी झरती ही रहती है। सारांश मे वक्त बहुत बलवान है।
अब आप सोच रहे होंगे कि मैं ये सब क्यों लिख रहा हूँ। बस वजह इतनी सी है जो छोटी सी जिंदगी गुजारी है वो वक्त गुजरने से ही गुजरा है। मैंने भी परिवर्तन महसूस किया है। एक वो वक्त जब हर समय बस पढ़ने और क्रिकेट खेलने की फिक्र। फ़िर वो समय जब अपने कल कि चिन्ता। और अब वो समय जब जिंदगी को बहुत करीब से देख रहा हूँ क्योंकि अब समझने की शक्ति बढ़ गई है। अब वो समय है जब अच्छा क्या है और बुरा वो बचपन की तरह माँ पापा को मुझे समझाने की जरूरत नही। मैं ख़ुद ये सब महसूस कर सकता हूँ। ये सब वक्त का कमल है। यही कुछ पहले का वक्त था थोड़ी थोड़ी बाधाएं मन को विचलित करती थी। अब वही वक्त है जिसमे समय के साथ लड़ने का हौसला है।
कल का पता किसे है। जो होता है आज होता है। कल को कौन क्या होगा कोई क्या जाने। मैं नही रहा कल जैसा मुझे वक्त ने बदल दिया। कल मैं ऐसा नही रहूंगा जैसा आज हूँ। फ़िर कल कि चिन्ता में आज क्यों खोना? इतना तो पता है कि व्यसनी नही हूँ। काम कर रहा हूँ। वही काफ़ी सुकून दे जाता है। मुझे क्या जमाने से लेना। किसी को हँसा सकता हूँ तो हँसाने कि कोशिश करता हूँ। चाह कर किसी को नही रुलाता। पर फ़िर भी जाने अनजाने कभी न कभी आप किसी को रुला जाते है। पर मैं तभी किसी को रुला पाऊँगा जहाँ मेरे हाथ मेह्फूस होंगे मेरी रूह की आवाज से। नही तो मैं तो ख़ुद बहुत मस्त हूँ। पर वक्त मुझे भी संजीदा बना देता है। कई बार बच्चा सा बन जाता हूँ मैं भी इस भरी उम्र में। ये सब वक्त का कमाल ही तो है।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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ॐ साईं राम~~~
कल क्या होगा किसको पता,
अभी ज़िन्दगी का लेलो मज़ा~~~ :) :) :)
जय साईं राम~~~
जय सांई राम।।।
मैं भी किसी ना किसी बहाने बस यही तो कहता रहता हूँ। मेरा अथक प्रयास भी यही रहता है कि लोग समझें इस छोटी की ज़िन्दगी की सार्थकता को और जी ले इस ज़िन्दगानी को हंसते हंसते क्योकि किसको क्या मालूम फिर कल हो ना हो। क्यों है ना? पर इतना ध्यान रखना मज़े मज़े और ऐश मे कंही ज़िन्दगी Ash ना बन जाये।
नफरत की हर गली से निकलने की बात कर
तू प्यार वाली राह पे चलने की बात कर
माना की हर तरफ ही अँधेरी है ज़ोर की
उसका न कर ख़याल संभलने की बात कर
आयी हुई मुसीबतें जाती कभी नहीं
ऐसे सभी ख़याल कुचलने की बात कर
चेहरे पे हर घड़ी ही उदासी भली नहीं
ये खुरदरा लिबास बदलने की बात कर
आएगी अपने आप ही चेहरे पे रौनकें
बाबा के मन्दिर में दीप की तरह जलने की बात कर
बाबा के मन्दिर में दीप की तरह जलने की बात कर....
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
कभी-कभी क्यों हम उन लोगों को गलत मान लेते हैं, जिनका कोई कसूर नहीं होता......
और कभी कभी क्यूँ हम उन्हीं से दूरियाँ बना लेते हैं, जिन्हें कभी हम अपना मानते थे.......
कभी कभी क्यों हम उन्हीं से नज़र भी नहीं मिला पाते, जिनकी नज़रों में कभी हम अपने आप को देखा करते थे......
और कभी कभी क्यों हम उनसे मिलना भी नहीं चाहते, जिनसे कभी हम मिलने के बहाने तलाशते रहते थे....
कभी कभी क्यों हम अपने दिल का दर्द उन्हें बता नहीं पाते, जिनके दिल में कभी हम रहते थे.....
और कभी कभी क्यों हम इतने "पत्थर दिल" हो जाते हैं...की किसी का दिल उसी पत्थर दिल से तोड़ देते हैं......
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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sai ram ....
very well said !!!!!!! thats y it is said .......... An encouraging word to someone who is down can encourage them to achieve their goal.
2. A destructive word to someone who is down can have negative effects. Be careful of what u say ….
we should never ever hurt anyone as baba is watching everything ....
om sai ram .....
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जय सांई राम।।।
यह जरूरी नहीं कि जीवन की हर वस्तु या प्रसंग के दो पहलू हों - रात और दिन की तरह। जीवन का इतना सरल विभाजन कई स्तरों पर तो है, लेकिन हर जगह इसे ढूंढना गलत होगा। हमने अपनी सुविधा के लिए दो पहलू जरूर बना लिए हैं, पर चीजें उन्हीं में सिमटी नहीं। ऐसा नहीं है कि जीवन में या तो सुख है या फिर दुख, सच है या फिर झूठ।
असल में सुख और दुख के बीच की भी एक अवस्था है। इसी तरह सच और झूठ के बीच भी कोई स्थिति है। इनके बीच एक रेखा है जो स्थान, समय और व्यक्ति की समझ और सोच के मुताबिक धुंधली तथा गहरी होती रहती है। इसी तरह निर्णय और अनिर्णय के बीच की भी एक दशा होती है, जिसमें अधिकतर लोग फंसे रहते हैं। 'बिटविन द लाइंस' की अवधारणा इसी के कारण पैदा हुई है। यानी अर्थ और अनर्थ के बीच तथा कहे और अनकहे के बीच अभी बहुत कुछ है, जिनका सामने आना बाकी है। संभव है, प्रकट और अप्रकट के बीच की किसी अवधारणा में हमें भावी जीवन के कई अहम सूत्र मिल जाएं। हो सकता है अब तक जो अपरिभाषित है, उसी में हमें अपने समय की कोई परिभाषा मिल जाए।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
जो मांगोगे वही मिलेगा......कल्प वृक्ष की परिकल्पना
हमने कल्पना की की स्वर्ग में कल्प वृक्ष होंगे, उनके नीचे आदमी बैठेगा। इच्छा करेगा, करते ही इच्छा पूरी हो जायेगी। लेकिन अगर आपको कल्प वृक्ष मिल जाये, तो बहुत सम्हलकर उसके नीचे बैठना। क्योंकि आपकी इच्छाओं का कोई भरोसा नहीं है।
मैंने एक कहानी सुनी है। एक दफा एक आदमी - हमारे -आपके ही जैसा एक आदमी - भूल से कल्प वृक्ष के नीचे पंहुच गया। उसको पता भी नहीं था कि यह कल्प वृक्ष है। उसके नीचे बैठते ही उसको लगा कि बहुत भूख लगी है: अगर कहीं भोजन मिल जाता तो...। वह एक दम चौंका, एक दम भोजन की थालियाँ चारो तरफ आ गईं। वह थोड़ा डरा भी कि यह क्या मामला है, कोई भूत प्रेत तो नही है यहाँ! कहीं यहाँ कोई भूत प्रेत न हो! उसके ऐसा सोचते ही - भोजन की थालियाँ गायब हो गईं, भूत प्रेत चारों ओर खडे हो गए। वह घबराया! यह तो बडा उपद्रव है कोई गला न दबा दे! भूत प्रेतों ने उसका गला दबा दिया।
आपको अगर कल्प वृक्ष मिल जाये तो भाग जाना, क्योंकि आपको अपनी इच्छाओं का कोई पक्का पता नहीं की आप क्या मांग बैठेंगे। क्या आप के भीतर से निकल आएगा। आप झंझट में पड़ जायेंगे, वहां पूरा हो जाता है सब कुछ ................................. ।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
बातें कितनी अच्छी होती हैं। समंदर की बातें करिये और आप समंदर किनारे पहुंच जाते हैं। बर्फ़ की बातें करिये और दिमाग़ पैरों तले बर्फ़ की सफ़ेद चादर बिछा देता है। रेत की बात छिड़े तो रेगिस्तान के थपेड़े महसूस होने लगते हैं। बातें, दिमाग़ और शब्द मिलकर सेकेंट के सौवें हिस्से से भी कम समय में आपको भारत से अमेरिका पहुंचा सकते हैं। बातों के ज़रिये उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव जाने में सेकेंड का कौन सा हिस्सा लगेगा, ये मापा भी नहीं जा सकता। हैरी पॉटर भी अपनी जादुई छड़ी हिलाकर इतनी जल्दी हमें यहां से वहां नहीं भेज सकता। बातों-बातों में हम जाने क्या-क्या बातें कर जाते हैं। बहुत ऊंची-ऊंची बातें करनेवालों को बुद्धिजीवी फ़र्ज़ी ठहराते हैं। निंदा रस की बातों का मज़ा ही दूसरा होता है। बातें नहीं करते तो घुन्ने कहलाते हैं, बातें बहुत करते हैं तो कहते हैं कि बात बनाते हैं। कुछ लोग बहुत अच्छा बोलते हैं लेकिन दिल के बहुत कड़वे होते हैं। कुछ बहुत कड़वी बातें बोलते हैं मगर दिल के बहुत अच्छे होते हैं। बातों से हम कितना बंधे हैं। अगर कोई अपना साथ छोड़ चला जाता है तो सबसे ज्यादा बातों की ही तो कमी खलती है, न मुलाक़ात होगी, न बात होगी। बातें ही तो हैं जिस पर ज़िंदगी चलती है।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
Nice one J
This is very interesting..........(to women) please take time to ponder........(to men) enjoy the story........
Young King Arthur was ambushed and imprisoned by the monarch of a neighboring kingdom. The monarch could have killed him but was moved by Arthur's youth and ideals. So, the monarch offered him his freedom, as long as he could answer a very difficult question. Arthur would have a year to figure out the answer and, If after a year, he still had no answer, he would be put to death. The question was: What do women really want?
Such a question would perplex even the most knowledgeable man, And to young Arthur, it seemed an impossible query. But, since it was better than death, He accepted the monarch's proposition to have an answer by year's end.
He returned to his kingdom and began to poll everyone: The princess, the priests, the wise men, and even the court jester. He spoke with everyone, but no one could give him a satisfactory answer. Many people advised him to consult the old witch, For only she would have the answer. But the price would be high as the witch was famous through out the kingdom for the exorbitant prices she charged.
The last day of the year arrived and Arthur had no choice but to talk to the witch. She agreed to answer the question, but he would have to agree to her price first.
The old witch wanted to marry Sir Lancelot, The most noble of the Knights of the Round Table, And Arthur's closest friend! Young Arthur was horrified. She was hunch-backed and hideous, had only one tooth, Smelled like sewage, made obscene noises, etc.
He had never encountered such a repugnant creature in all his life. He refused to force his friend to marry her and endure such a terrible burden.
But Lancelot, having learnt of the proposal, spoke with Arthur. He said nothing was too big of a sacrifice compared to Arthur's life. And the reservation of the Round Table. Hence, a wedding was proclaimed and the witch answered. Arthur's question thus: "What a woman really wants?"
She said, "Is to be in charge of her own life."
Everyone in the kingdom instantly knew that the witch had uttered a great truth. And that Arthur's life would be spared.
And so it was.
The neighboring monarch granted Arthur his freedom.
And Lancelot and the witch had a wonderful wedding.
The honeymoon hour approached and, Lancelot, steeling himself for a horrific experience, entered the bedroom.
But, what a sight awaited him.
The most beautiful woman he had ever seen lay before him on the bed.
The astounded Lancelot asked what had happened.
The beauty replied that since he had been so kind to her when she appeared as a witch, She would henceforth be her horrible and deformed self only half the time. And the beautiful maiden the other half.
"Which would you prefer? She asked him. "Beautiful during the day .... or at night?"
Lancelot pondered the predicament.
During the day he could have a beautiful woman to show off to his friends, But at night, in the privacy of his castle, an old witch!
Or,
Would he prefer having a hideous witch during the day?
But by night a beautiful woman for him to enjoy wondrous, intimate moments with?
(If you are a man reading this...) What would YOUR choice be?
(If you are a woman reading this) What would YOUR MAN'S choice be?
What Lancelot chose, is given below:
BUT... make YOUR choice before you scroll down below... OKAY?
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Noble Lancelot, knowing the answer the witch gave Arthur to his question, He said that he would allow HER to make the choice herself.
Upon hearing this, she announced that she would be beautiful all the time. Because, he had respected her enough to let her be in charge of her own life.
Now... what is the moral to this story?
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The moral is...
1) There is a witch in every woman no matter how beautiful she is!
2) If you don't let a woman have her own way, things are going to get ugly.
So, always remember:
IT'S EITHER "HER WAY" OR IT'S "NO WAY"
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम़।।।
चुप रहने से क्या होता है
जीना आसान हो जाता है
इसलिए हम चुप हैं
क्योंकि चुप रहने से
रहना आसान हो जाता है
जिंदगी की सारी पेंच
सुलझ जाती है
और जिंदगी काटना आसान हो जाता है!
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम़।।।
एक आदमी
घर में पालने के लिये
कुत्ता खरीदने बाजार आया
कुत्तों के मालिक ने उसे
अपना पूरा संग्रहालय दिखाया
आदमी को एक छोटे से
पिल्ले पर आ गया प्यार
कीमत चुका कर
उसे ले जाने को
हो गया तैयार
चलते समय पिल्ले ने
बड़े ही मान और दुलार से
अपनी मां को
चाटा और सहलाया
मां की आंखों की कोरों में
पानी भर आया
अपने मन पर काबू रख कर
उसने पिल्ले को समझाया
बेटे जा रहे हो..
अलविदा...
लेकिन याद रखना
जिस किसी का भी नमक खाना
उसे दगा मत देना
उसका अहित मत करना
अपने मालिक का
आजीवन साथ निभाना..
हर कीमत पर
सदैव अपना पशु धर्म निभाना..
लेकिन खबरदार...
आदमी के साथ रहते-रहते
आदमी मत बन जाना..
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
मैंने पूजा है शब्दों को उनकी वन्दना की है अपनी कल्पनाओं में, मैंने अपनी सांसो को शब्दों का रूप दिया है और जब तक सांसें मेरे भीतर आती रहेंगी तब-तब अपनी असीमित कल्पनाओं से शब्दों की वन्दना कर मैं शिव अंग बन जाउंगा जिसपर किसी ज़हर का असर नहीं कितने कटु-शब्द निकलेंगे मेरी वन्दना मेरी आस्था को भंग करने के लिए लेकिन सब व्यर्थ! क्यूंकि मेरे पवित्र शब्द अमर हैं मेरी कल्पनाये मेरी सोच अमर है, मेरे पास है शब्दों से भरा अमृत प्याला जो मुझसे कोई अलग नहीं कर सकता कोई भी नहीं!!
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।