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Author Topic: कुछ अटपटे कुछ हटकर ख्याल।।  (Read 26009 times)

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Offline Ramesh Ramnani

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जय सांई राम।।।

जो जहां है, कुछ तो मजा है
 
इस बात के लिए हमें बाबा सांईश्वर का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उसने हर प्राणी को जिंदगी का लुत्फ उठाने लायक बनाया है। एक मामूली सी चींटी भी अपने ढंग से जिंदगी का मजा लेती है। यही बात इंसानों पर भी लागू होती है। ऐसा नहीं है कि फूलों का मजा सिर्फ वही ले सके, जो बागों का मालिक है। फूलों का असली आनंद तो माली लेता है। शहरों में रहने वालों के पास ढेरों सुविधाएं क्यों न हों, मगर कदमों पर प्रकृति और खर्च करने को ढेर समय होने का मजा तो गांवों में रहने वाले ही लेते हैं। हर काम के साथ कोई न कोई लाभ जुड़ा ही रहता है। मंत्री जी का जितना रुतबा होता है, उनके पर्सनल असिस्टेंट का रुतबा भी उतना ही बढ़ जाता है। सब्जी उगाने वाले किसानों को रोज खेतों से ताजा तोड़ी गई सब्जी की पौष्टिकता लेने से कौन रोक सकता है। मोची क्यों नहीं अपने बच्चों के लिए शानदार जूते बनाएगा, जुलाहा अपनी प्रेमिका के लिए सुंदर वस्त्र और बढ़ई चूल्हे में खटती अपनी पत्नी को क्यों नहीं आरामदायक चौकी बनाकर देगा?

अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

ॐ सांई राम।।।

 
 
अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

Offline Ramesh Ramnani

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जय सांई राम।।।


नहीं बसता मैं किसी मन्दिर या मस्जिद में,
न ही रहता हूं किसी गिरिजाघर या गुरुद्वारे में,
न ही बसता हूं किसी पूजा घर में|
यह तो है केवल अपना दिल बहलाना,
मैं तो हूं तुम्हारे आशियाना में |

मैं नही पाया जाता पुरी, रामेश्वर में,
न ही मक्का, मदीना में,
जेरूसलम या कोई अन्य पवित्र स्थल भी नही है मेरा ठिकाने|
यह सब तो है लोगों के अफसाने,
तरीके दिल बहलाने के,
क्योंकि मैं तो वास करता हूं, तुम्हारे मन मानस में|

मुझे, न बता सकते हैं कोई महात्मा, योगी,
न ही मेरी व्याख्या कर सके फकीर, पादरी|
यह तो सब हैं लोगों के फंसाने,
तरिके खुद को फुसलाने के|

मैं नही सीमित गीता या रामायण में,
न ही हूं बंधा बाईबल या कोरान में|
यह तो थे अपने समय के उचित आचरण,
मैं तो हूं ऊपर इनसे|
मैं नहीं बंधता समय से,
मैं हूं स्वयं समय,
क्या करूंगा, खुद से लड़ कर|

जो परम्परा समय के साथ नही बदलती,
वह कहलाती रूढ़िवादिता |
मैं नहीं हूं, रूढ़िवादिता,
न ही, जकड़ा जा सकता किसी परम्परा से|
मैं नही बन्धता इनसे,
मैं तो हूं उन्मुक्त, इन बन्धनो से परे|

मैं न तो हूं राम, न ही कृष्ण,
न ही अल्लाह, न ही पैग्मबर,
न ही हूं मैं यीशू मसीह,
या पूजा किये जाने वाले कोई और नाम|
यह तो हैं तरीके, लोगों के सम्झाने के,
मैं तो ऊपर हूं इन सबके|

नही हूं मैं दकियानूसी,
न ही हूं, अन्धी आधुनिकता|
मैं तो हूं केवल एक आचरण|

मैं नही वह आचरण, जो तोड़े दूसरों के पूजा स्थल|
मैं तो हूं वह आचरण,
जो जवानी के मदहोश दिवानो से, रात में अकेली अबला चाहे;
अभिलाशे दंगे में फंसा इन्सान, आवेश में अधें दंगाइयों से|

मैं नहीं धरोवर केवल हिन्दुवों की,
न ही केवल मुस्लिम सिख ईसाई की|
मैं तो हूं वह आचरण,
जो पाया जाये, सब मज़हब में|

मैं नही हूं विचारों का टकराव|
मैं तो हूं दूसरे के विचारों का समझाव|
मैं करता विचारों का आदर, समझता दूसरों का पक्ष|
मैं तो हूं अलग अलग विचारों का सगंम,
जो लाता जीवन में कभी खुशी कभी गम|

मैं हूं वह आचरण—
जो आप अपने लियें चाहें, दूसरे से;
या आप लें, अपने ईमान से|

जो मेरे मर्म को जाने,
नहीं जरूरत उसे किसी पूजा स्थल की|
न ही किसी इष्ट देव की,
शान्ति रहे हमेशा, उससे चिपकी|

जो चले मेरे रस्ते
न भटके वह,
किसी महात्मा, फकीर के बस्ते|
क्योंकि मैं हूं हमेशा संग उसके|

जो मेरे महत्व को समझे
करे कर्म का वह सेवन,
कर्म ही पूजा, कर्म ही उसका जीवन|
उसका मन, मानस चले संग|

आओ ढूढ़ो, पहचानो मुझको,
मैं हूं खड़ा तुम्हारे अन्दर|
मैं तो हूं केवल,
जी हां, केवल
अन्त:मन से लिया गया विवेकशील आचरण|

अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

ॐ सांई राम।।। 
अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

Offline Ramesh Ramnani

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जय सांई राम।।।

धर्म के साथ जुड़कर शांति चाहता है मनुष्य
 
प्रत्येक को शांति और अलौकिक आनंद की चाह होती है केवल इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह किसी न किसी धार्मिक विश्वास के साथ स्वयं को जोड़ लेता है।

यह विश्वास हिंदु, मुसलिम,सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि विभिन्न संप्रदायों के रूप में हमारे सामने है। इंसान जिस परिवार में जन्म लेता है। उसके संस्कार उसकी सभ्यता को स्वीकार करते हैं और अपने पूर्वजों के उत्तराधिकारी के रूप में खुद को आगे बढ़ाता है। इसका परिणाम कोई अच्छा नहीं रहा, क्योंकि विश्वास तक तो सब कुछ ठीक ठाक चलता है, लेकिन अंधविश्वास से द्वेष भावना, ईष्र्या, नफरत की चिंगारी, इंसान, परिवार और समाज को जलाकर राख कर देती है।

यह आचरण कई बार जातीय विषमता के कारण स्वार्थी लोग मानवता को दानवता द्वारा कुचलने की कोशिश कर रहे हैं। इस बात को सोचना होगा कि जब संसार में इंसान पैदा हुआ तो क्या वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, हिंदू , मुसलिम, सिख था। क्या जब बच्चे का जन्म होता है तो उसे कोई कहता है कि यह हिन्दु पैदा हुआ है या मुसलमान पैदा हुआ है। जहां सभी शांति चाहते  हैं वहीं अशांति बढ़ती जा रही है। इंसान अपने ही  भाई का खून बहा रहा है। अपनी पहचान को  मिटाता जा रहा है। इसके पीछे एक ही कारण है, बचपन से गलत शिक्षा देकर कुछ मुट्ठी भर लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए भोले भाले प्रभु भक्तों को गुमराह कर दिया और धर्म के तवे पर अपने स्वार्थ की चपातियों को सेंकने लगे। 

धर्म का प्रचार करने वाले धार्मिक लोग ही जब अधर्म करने लग जाएं तो धर्म के ऊपर से लोगों का विश्वास उठने लग जाएगा। चारों तरफ धर्म का प्रचार किया जा रहा है। लेकिन इसके साथ ही संप्रदायिकता का जहर कैंसर की तरह फैलता जा रहा है। पुराने  रीति-रिवाज जो भी रहे हैं वे गलत नहीं रहे हैं, लेकिन कुछ लोगों ने धर्म ग्रंथों की शिक्षाओं के बीच से अपनी स्वार्थ पूर्ति का रास्ता बना लिया और लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया।

अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

ॐ सांई राम।।।
अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

Offline Ramesh Ramnani

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जय सांई राम।।।

यद्यपि संसार में ईश्वर पर विश्वास रखने वालों की संख्या काफी अधिक है और ईश्वर की सत्ता को न मानने वाले बहुत ही कम है, परंतु ईश्वर के विषय में लोगों के इतने भिन्न-भिन्न मत हैं कि ईश्वर की सत्ता मनुष्यमात्र को एकमत करने के स्थान में भेदभाव और शत्रुत्व उत्पन्न कर देती है,  इसलिए प्रभु  के लिए ही नहीं अपितु ईश्वरवाद के प्रति लोगों को घृणा हो जाती है, परंतु यदि किसी भ्रांति युक्त विषय के कारण अनिष्ट का प्रसंग आए जाए तो उसका एकमात्र उपाय सत्य की खोज है,  असत्य से घृणा नहीं।

अंधेरे से घृणा करना पर्याप्त नहीं हैं। प्रकाश लाने की आवश्यकता है, अंधकार स्वयं दूर हो जाएगा। मत-मतांतरों ने अपने-अपने मन से एक ईश्वर गढ़ रखा है,  उसी को पूजते हैं और उसके विषय में सोचने से डरते हैं कि कहीं भगवान अप्रसन्न न हो जाए। एक मनुष्य पीली मिट्टी उठाता है,  उसको कहता है कि यह गणेश भगवान की मूर्ति है,  उसको पूजता है और उसी अपने बनाए मिट्टी के लौंदे से डरता है कि यदि मैं यह छानबीन करूंगा कि गणेश क्या है, मिट्टी क्या है तो भगवान का मेरे ऊपर कोप हो जाएगा। इन कल्पित भयों से छुड़ाने का एक मात्र साधन है शास्त्र का अध्ययन। वेद का अध्ययन कर परमात्मा संबंधी भ्रांतियों को दूर किया जा सकता है। वास्तव में बात यह है कि आदमी ने खुदा को अपनी शक्ल का बनाया है ईश्वर के जितने चित्र अथवा मूर्तियां बनाई गई वे मनुष्य जैसी ही होती हैं, केवल पहचान के लिए कुछ विशेषता कर दी जाती है, जैसे दो हाथ के स्थान में चार हाथ, दो आंखों के स्थान में तीन आंखें, माथे पर तिलक के स्थान में चंद्रमा की आकृति कहीं नर जैसा समस्त शरीर परंतु मुख शेर के जैसा। मनुष्य ने कितनी तरह से देवी-देवता बना डाले। 

अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

ॐ सांई राम।।।         
अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

Offline Ramesh Ramnani

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जय सांई राम

कड़वा परन्तु सत्य

इस भीड़ में तुम क्या ढूंढते हो
अपनों मे हमदर्दी
गैरों मे वफा क्यों ढूंढते हो
लगता है कभी भी तुम
अपने मुकाम तक नही पहुंच पाओगे
जो चीज़ मिल नहीं सकती
उसकी तलाश करते रह जाओगे।

अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

ॐ सांई राम।।।
अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

Offline Ramesh Ramnani

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जय सांई राम

कैसे होता है ना
कुछ पलों की ख़ुशी की खातिर
झूमते और नाचते है लोग
फिर थक हारकर बैठ जाते हैं
फिर भी लगता है उन्हें कि
वह खुश नही हो सके
फिर नई ख़ुशी कि तलाश में
निकल पड़ते हैं लोग चूहे-बिल्ली जैसा खेल है
इस इंसानी ज़िन्दगी का
आगे चलती अदृश्य ख़ुशी
पीछे चलता हैं इन्सान
ख़ुशी की कोई पहचान नहीं है
आंखों में कोई तस्वीर नहीं है
मिल भी जाये तो उसे
कैसे पहचाने लोग

अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

ॐ सांई राम।।।
अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

Offline tana

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ॐ सांई राम !~!

कब पलट कर वो ज़माना आएगा |
आदमी जब आदमी बन जाएगा ||

आप सब ही है जो मुझे मेरी इस बात  का , इस  सवाल का जवाब दे सकते है...

रमेश भाई..............


जय सांई राम!!!
"लोका समस्ता सुखिनो भवन्तुः
ॐ शन्तिः शन्तिः शन्तिः"

" Loka Samasta Sukino Bhavantu
Aum ShantiH ShantiH ShantiH"~~~

May all the worlds be happy. May all the beings be happy.
May none suffer from grief or sorrow. May peace be to all~~~

Offline Ramesh Ramnani

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जय सांई राम

ज़माना यही है जो अभी है।  जो वर्तमान में जीता है वही आदमी है काम का। अतीत का नाम ही भूतकाल इसीलिये रखा गया होगा। भूतकाल में जीने वाला इन्सान भूत बनकर जिया तो क्या जिया?  भविष्य कभी होता नही, जो होता नही तो उस काल के इन्तज़ार मे जीने वाला आदमी न होने के बराबर होगा। मेरे पास अगर कुछ सम्पदा है तो वो है मेरा वर्तमान। वर्तमान का खज़ाना जिसके पास है वो इन्सान कहलाने के लायक है।

समय कभी पलट कर किसी का नही आया। उसके लिये पलट कर देखना भी मूर्खता होगी।
 
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

ॐ सांई राम।।।

अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

Offline tana

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ॐ सांई राम !~!

रमेश भाई,

अब आप ने समझाया तो ठीक लग रहा है ।
बस कई बार इन्सान के दो दो चेहरों से डर लगता है । सही गलत समझ नहीं आता ।

जय सांई राम !~!
« Last Edit: April 18, 2007, 05:02:44 AM by tana »
"लोका समस्ता सुखिनो भवन्तुः
ॐ शन्तिः शन्तिः शन्तिः"

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Offline Ramesh Ramnani

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जय सांई राम

प्यार से धोखे का
दोस्ती से गद्दारी का
ईमान से बैईमानी का
अगर रिश्ता न होता
तो कौन निभाने के कसमें खाता
विश्वास, वफ़ा और नेकनीयती का
मोल क्या रह जाता
फिर भी तुम प्यार, दोस्ती और ईमान का
दामन कभी नहीं छोड़ना
और इन्सान चाहे शैतान बन जाएँ
चाहे कितने भी ठोकरें लगाएं
सारी उम्मीदें छोड़कर अपनी
शख्सियत पर इंसानियत ओढ़े रहना
उसने नही निभाया
मैं भी नहीं निभाऊंगा
यह सोचकर दगा कभी नही करना
हालात आदमी को वफादार और
गद्दार बनाती है
भूख आदमी को बैईमान और
मिट्टी से बने शरीर की
कई मजबूरियों को समझ लो
अपने धर्म पर अटल रहना सीख लो
रंग बदलती इस दुनियां में
नीयत हर पल बदल जाती है।
 
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

ॐ सांई राम।।।
अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

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प्यार से धोखे का
दोस्ती से गद्दारी का
ईमान से बैईमानी का
अगर रिश्ता न होता
तो कौन निभाने के कसमें खाता
विश्वास, वफ़ा और नेकनीयती का
मोल क्या रह जाता
फिर भी तुम प्यार, दोस्ती और ईमान का
दामन कभी नहीं छोड़ना
और इन्सान चाहे शैतान बन जाएँ
चाहे कितने भी ठोकरें लगाएं
सारी उम्मीदें छोड़कर अपनी
शख्सियत पर इंसानियत ओढ़े रहना
उसने नही निभाया
मैं भी नहीं निभाऊंगा
यह सोचकर दगा कभी नही करना
हालात आदमी को वफादार और
गद्दार बनाती है
भूख आदमी को बैईमान और
मिट्टी से बने शरीर की
कई मजबूरियों को समझ लो
अपने धर्म पर अटल रहना सीख लो
रंग बदलती इस दुनियां में
नीयत हर पल बदल जाती है।
 
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

ॐ सांई राम।।।

ॐ सांई राम !~!

रमेश भाई,

शब्द नहीं है....वाक्यहीन हूँ ।
आंखे नम है ,पर दिल बहुत खुश है ।
इस तरह केवल आप ही समझा सकते है ।

सचमुच तुसी ग्रेट हो भा जी....


जय सांई राम !~!


"लोका समस्ता सुखिनो भवन्तुः
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Offline Ramesh Ramnani

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जय सांई राम

अक्सर भगोड़े क्यों होते हैं सन्यासी...?
 
पहले सन्यासी होने की परिभाषा को समझें...

भगवा वस्त्र धारण किए माथे पर चंदन का लेप लगाए कमंडल और चिमटा थामे, मुख से प्रभु नाम की महिमा का गान करता और प्रवचन अथवा कथा बांचता हर कोई साधु या सन्यासी हो,  यह आवश्यक नहीं है। पर उपदेश कुशल बहुतेरे। अर्थात दूसरों को उपदेश देना सबसे आसान काम है। जिन सूत्रों का अनुपालन कभी खुद न किया हो या जिन बातों को खुद ठीक से न समझे हों उन्हे दूसरों को समझाना स्वयं को ही ठगने जैसा है। एक पहुंचे हुए सन्यासी बाबा प्रवचन कर रहे थे। उनके हजारों भक्त पंडाल में एकाग्र चित्त होकर उन्हे सुन रहे थे। बाबा कह रहे थे कि इंसान की प्रवृति चंदन के वृक्ष जैसी होनी चाहिए, कितने भी सर्प चंदन के वृक्ष से क्यों न लिपट जाएं किन्तु चंदन अपनी सुगंध नहीं छोड़ता। ऐसे ही लोगों को धर्म और सत्य का मार्ग कभी नहीं छोड़ना चाहिए, चाहे मार्ग में कितने ही सर्पाकार अवरोध क्यों न आ जाएं। प्रवचन सुनकर लोग अभिभूत हुए जा रहे थे। बाबा लोगों को मोह-माया से दूर हो जाने की सलाह और उपाय भी सुझा रहे थे। बाबा ने यह भी बताया कि सन्यासी होकर कैसे उन्होने सत्य, धर्म और ईश्वर की खोज की है। आध्यात्म का अनुयायी होने की लालसा में बाबा ने वर्षों पहले अपना घर-परिवार छोड़ दिया था। तद्पश्चात पहाड़ों पर जाकर बाबा ने कठोर साधना की। तब कहीं जाकर वह जीवन-मरण और स्वर्ग-नरक के भेद को जान पाए।

अब यदि क्रम से बाबाजी की बातों का विशलेषण किया जाए तो प्रश्न यह उठता है कि सर्पों से लिपटे होने पर भी चंदन बने रहने का पाठ पढ़ाने वाले, चंदन बनने के लिए खुद सांसारिक मोह-माया के सर्पों से क्यों भाग जाते हैं? घर-गृहस्थी के कर्तव्यों से भाग कर पहाड़ों की शरण में तपस्या कर लेना ही क्या सन्यासी हो जाना है? भगोड़ा होकर साधु होना धर्मसंगत कैसे हो सकता है। सच्चा साधु, सच्चा सन्यासी तो वह है जो सांसारिक आपाधापियों के साथ भी अपने हृदय की निर्मलता और अपने सदविचारों की सुदृंढता बनाए रखता है। अपने घर के दरवाजे, खिड़कियां और रौशनदान बंद करके कोई कहे कि वह समाज के झंझावातों से दूर रहता है, वह संसार के पचड़ों से वास्ता नहीं रखता और इसलिए वह एक सभ्य नागरिक होने के साथ स्वच्छ छवि का एकाधिकारी भी है, तो यह उसके मन का भ्रम है। फिर भले ही वह स्वयं को सन्यासी प्रचारित क्यों न करे। सांसारिक भीड़ के मध्य रहकर अपनी काम-वासना, मोह-माया, मन-मस्तिष्क की विसंगतियों एवं चंचल इंद्रियों पर नियत्रंण रखना ही व्यक्ति विशेष को साधु अथवा सन्यासी बनाता है। उसके लिए अपने उत्तरदायित्वों से भागना अनुचित है। धर्म के अतिरिक्त देश, समाज और परिवार के प्रति भी व्यक्ति का दायित्व होता है।

अक्सर कहा जाता है कि पुण्य कर्म करने वालों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है और पाप कर्म करने वालों के नरक की। यह कहकर सत्य के मार्ग पर चलने का भ्रम पालने वाले दरअसल असत्य के गर्भ में होते हैं। स्वर्ग-नरक तो मात्र भ्रामक गंतव्य हैं। सब कुछ इसी धरती पर है, स्वर्ग भी, नरक भी। यह स्वर्ग-नरक व्यक्ति के कर्म फलों में परिलक्षित भी होते हैं। ऐसे ही जीवन और मरण में भेद बताने वाले अज्ञानी हैं। जीवन-मरण में कोई भेद नहीं है, दोनों अभेद हैं। जीवन और मरण में तो स्वयं भगवान भी भेद नहीं कर पाए तो फिर यह किसी साधु अथवा सन्यासी के लिए कैसे संभव है?

एक बड़ा सवाल यह भी है कि साधु-सन्यासी को पहचाने कैसे? बद्रीनाथ धाम में मैंने अजब दृश्य देखा। दो साधु एक कुत्ते को डंड़े और तालों से मार रहे थे। कारण पूछा तो पता चला वह कुत्ता उनकी रोटी लेकर भागा था। नित्य धार्मिक अनुष्ठान करने वाले, प्रभु की जय-जयकार करने वाले और जीवन में आए सुख-दुख को, 'होय वही जो राम रच राखा' कहकर संबल देने वाले साधु अगले ही पल अपनी रोटी छिन जाने से व्यथित हो उठे थे। इतने, कि हिंसक हो गए। स्वयं पर विपदा आई तो हर वस्तु और प्राणी में भगवान को देखने का प्रवचन देने वाले साधुओं को कुत्ते में भगवान नहीं दिखे। इस आचरण से एक बार फिर यह सिद्ध हुआ कि कोई व्यक्ति सर्वप्रथम मन से अर्थात हृदय से साधु-सन्यासी होता है, उसके बाद कर्म से साधु-सन्यासी होता है और, सबसे अंत में वचन से साधु-सन्यासी होता है, किन्तु केवल वेशभूषा से वह कदापि साधु-सन्यासी नहीं हो सकता।

अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

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किसके मन में क्या है कौन जानेगा
अपने मन को ही भला कौन जानता है
पल-पल हालात के साथ बदलता मन
कौन लगाम कस सकता है इस पर
जो करते हैं इसे काबू
वह संत बन जाते हैं
पर सब संतों का भी मन
काबू में नहीं होता
जगह-जगह आश्रमों के लिए
जमीन की चाहत में सत्ता के
गलियारों में भटकता है उनका मन
यह मन […]
यह भटकता हुआ मन
न जाने क्या क्या खेल रचाता है।

अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

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« Last Edit: April 21, 2007, 08:02:49 AM by Ramesh Ramnani »
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भाव बिना सर्वस्व भी दें, तो मुझे स्वीकार नहीं हैं  

बॉलिवुड के मशहूर अभिनेता अमिताभ बच्च ने अपने पुत्र अभिषेक की शादी का निमंत्रण पत्र सबसे पहले तिरुपति बालाजी के चरणों चढ़ाया यानी सबसे पहला निमंत्रण उन्हें दिया। उन्होंने इस निमंत्रण के साथ 51 लाख रुपये भी भेंट स्वरूप भगवान को अर्पित किए। उस समय यह खबर भी थी कि शादी सकुशल सम्पन्न होने के बाद अमिताभ बच्चन तिरुपति के बालाजी मंदिर में नौ करोड़ रुपये और चढ़ाएंगे।

यह चढ़ावा थोड़ी सी भी समझ रखने वाले लोगों को परेशान कर रहा है। वे सोच रहे हैं कि भगवान के मंदिर में इतनी धन-संपदा अर्पित करने का क्या अर्थ है? कहीं इस तरह से कोई व्यक्ति अपनी अमीरी का प्रदर्शन तो नहीं कर रहा है या फिर उसका मकसद मंदिर में विशेष अहमियत पाना तो नहीं है, जिससे कि भगवान के दर्शनों के लिए लगने वाली लाइन में ऐसे व्यक्ति को प्राथमिकता मिल जाए?

लक्ष्मी जिनके चरणों की चेरी है और कुबेर मैनेजर, और ऐसे भगवान जो सारी सृष्टि के मालिक हैं, वे इस धन का क्या करेंगे? ऐसा तो है नहीं कि इन पैसों को ले जाकर किसी हलवाई के पास जाएंगे और लड्डू खरीदकर अपने भक्तों में प्रसाद स्वरूप बांट देंगे। एक तरफ जहां मंदिरों में लाखों-करोड़ों का चढ़ावा चढ़ाया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ इसी देश में हजारों मासूम बच्चे भूख से बिलबिला रहे हैं, सैकड़ों मरीज पैसे के अभाव में इलाज नहीं करा पाने के कारण असमय दम तोड़ देते हैं। धन के अभाव में कितनी ही मासूम गरीब कन्याओं के हाथ पीले नहीं हो रहे हैं और कितने ही किसान कर्ज के बोझ तले तरकरीबन हर रोज आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। तो धन की जरूरत इन लोगों को है, न कि भगवान को।

भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं : जो मुझे जिस भाव से भेजता है, मैं भी उसे उसी भाव से भेजता हूं। अतएव होना तो यही चाहिए कि भगवान को चढ़ाया धन उन दीन-दुखियों पर खर्च किया जाए, जो कि किसी कारण से मोहताज हैं। ध्यान दें कि भगवान को दीनबन्धु के नाम से भी पुकारा जाता है। अर्थात् वह दीन-दुखियारों का बंधु है।

आज देश के विभिन्न प्रतिष्ठित मंदिरों के कोषागारों में अरबों-खरबों की सम्पत्ति जमा है। वहां चढ़ावे के रूप में चढ़ाया गया टनों सोना भी मौजूद है। लेकिन इस संपदा का सदुपयोग नहीं हो पा रहा है। इसकी वजह यह है क्योंकि मंदिरों के ट्रस्टी उस संपदा पर सांप की भांति कुंडली मार कर बैठे हैं। अगर मंदिरों में जमा धन-संपदा का सदुपयोग सुनिश्चित करना है, तो ट्रस्टियों को चाहिए कि वे भगवान पर चढ़ाए हुए धन को दीनबंधु की सेवा में लगा दें, इससे ईश्वर भी प्रसन्न होगा।

भगवान तो कहते हैं : मैं भाव का भूखा हूं और इस भाव ही एक सार है। वह यह कि भाव से मुझ को भजे, तो इस भव (संसार) से बेड़ा पार है। पैसा चढ़ाना, वस्त्र-फल-फूल अर्पित करना, यह सब तो मात्र प्रदर्शन है, भक्ति का दिखावा है। भगवान की बनाई हुई चीजें ही भगवान को चढ़ाने का क्या तात्पर्य? फल-फूल, नारियल भला किसने बनाए? भगवान के चरणों में यदि कुछ अर्पित करना है, तो अपना अटूट प्रेम, श्रद्धा, विश्वास- ये अर्पित करें, जिससे भगवान के साथ अपना रिश्ता मजबूत बनाया जा कसता है।

भगवान कहते हैं कि भाव बिना सर्वस्व भी दे, तो मुझे स्वीकार नहीं, भाव से एक फूल भी दे तो मुझे स्वीकार है। तो भगवान भाव के भूखे हैं और हम समझते हैं कि हम खूब सारा धन, फल-फूल-मिठाई चढ़ाएंगे, तो वे प्रसन्न हो जाएंगे। यह सोच गलत है। ऐसे में तो भगवान के प्रसन्न होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि वह कभी नाराज नहीं होता नहीं। हां, इतना जरूर है कि भगवान के श्रीचरणों का सान्निध्य आह्लादकारी होता है। पर भगवान का साथ तभी संभव है जब उसके प्रति हमारा समर्पण पूर्णरूपेण हो, यानी समर्पण में किसी फल की इच्छा न हो। साफ है कि हर स्थिति में भगवान को धन नहीं, बल्कि भक्ति ही चाहिए।

अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

ॐ सांई राम।।।
अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

Offline Ramesh Ramnani

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जय सांई राम।।।

भगवान, आस्था और विज्ञान
 
दर्शनशास्त्र के एक प्रोफेसर क्लास में वैज्ञानिक तथ्यों का सहारा लेकर ईश्वर के अस्तित्व को नकारने में लगे थे। उन्होंने एक नए छात्र को खड़ा किया और पूछा, क्या तुम भगवान को मानते हो? छात्र के 'हाँ' कहने पर प्रोफेसर ने सवालों की बौछार शुरू कर दी। उन्होंने पूछा कि क्या भगवान अच्छा है? छात्र का जवाब एक बार फिर सकारात्मक था। उन्होंने फिर पूछा, क्या ईश्वर सर्वशक्तिमान है? छात्र ने इसका जवाब भी सकारात्मक दिया। प्रोफेसर साहब से रहा नहीं गया। उन्होंने पूछा, क्या दुनिया में हर चीज ईश्वर ने बनाई है? छात्र ने हां में सिर हिलाया। अब प्रोफेसर साहब की मुद्रा बदली, बोले, मेरा भाई रोज ईश्वर की पूजा किया करता था, लेकिन उसे कैंसर हो गया और वह मर गया। जब ईश्वर ने हर चीज को बनाया है तो बीमारियों, समस्त बुराइयों को किसने बनाया? उसी ईश्वर ने। बुरी चीजों को भी बनाने वाला ईश्वर अच्छा कैसे हो सकता है।

अब छात्र खामोश था। प्रोफेसर ने फिर कहा, विज्ञान कहता है कि तुम्हारे पास पांच इंद्रियां हैं जिनके सहारे तुम अपने आसपास की दुनिया को पहचान सकते हो। क्या तुमने कभी भगवान को देखा है, सुना है, छुआ है, चखा है या महसूस किया है। छात्र का जवाब नकारात्मक था। प्रोफेसर बोले, क्या तुम फिर भी भगवान पर भरोसा करते हो? छात्र ने कहा, हां मुझे ईश्वर के होने का भरोसा है। प्रोफेसर लगभग खीझते हुए बोले, यह आस्था ही तो विज्ञान की राह में रोड़ा है।

लेकिन अब बारी छात्र की थी, उसने पूछा क्या गर्मी होती है? प्रोफेसर ने हां में सिर हिलाया। छात्र ने पूछा, ठंडक होती है? प्रोफेसर का जवाब सकारात्मक था। छात्र ने कहा, जी नहीं गर्मी को तो हम माप सकते हैं, लेकिन ठंडक को नहीं। आप कह सकते हैं ज्यादा गर्मी है, बहुत ज्यादा गर्मी है, कम गर्मी है या गर्मी बिल्कुल नहीं है, लेकिन ठंडक कुछ नहीं होती, बल्कि गर्मी की गैरहाजिरी ही ठंडक है। हम शून्य से 458 डिग्री नीचे तक गर्मी को माप सकते हैं, लेकिन उससे नीचे नहीं जा सकते।

छात्र ने पूछा अंधकार होता है? प्रोफेसर साहब बोले हां! रात को अंधकार देखा जा सकता है। छात्र बोला नहीं! जैसे ठंडक कुछ नहीं होती, वैसे ही अंधकार भी कुछ नहीं होता, सिर्फ प्रकाश की अनुपस्थिति ही अंधेरा कहलाती है। प्रकाश को हम माप सकते हैं, लेकिन अंधकार को नहीं। आप कह सकते हैं कम प्रकाश है, ज्यादा प्रकाश है, सामान्य प्रकाश है, बहुत ज्यादा प्रकाश है, लेकिन आप अंधेरे को नहीं माप सकते। प्रोफेसर साहब और छात्र के इस रोचक संवाद के दिलचस्पी ले रही क्लास अब इतनी खामोश हो चुकी थी कि सूई भी गिरती तो सुनाई दे जाती।

छात्र ने फिर कहा, सर! आप द्वैत के सिद्धांत पर भरोसा करते हैं। आप मृत्यु को जीवन के विपरीत मानते हैं, जबकि जीवन का ना होना मृत्यु है। छात्र फिर बोला, आप पढ़ाते हैं कि मानव बंदरों से विकसित हुआ। प्रोफेसर बोले, हां यह प्राकृतिक परिवर्तन की प्रक्रिया है। छात्र ने पूछा, क्या यह प्रक्रिया आपने अपनी आंखों से देखी है? इस पर प्रोफेसर साहब बगलें झांकने लगे। छात्र ने कहा कि फिर हम आपकी बात पर कैसे भरोसा करें। आप वैज्ञानिक कम उपदेशक ज्यादा लगते हैं।

इसके बाद छात्र ने कक्षा से पूछा कि क्या उन्होंने प्रोफेसर का दिमाग देखा है। कक्षा खिलखिला पड़ी। छात्र ने पूछा, क्या प्रोफेसर साहब का दिमाग कभी सुना, चखा या सूंघा है। कक्षा में खामोशी थी।

छात्र फिर प्रोफेसर साहब से मुखातिब हुआ। उसने सविनय पूछा, बताएं कि हम आपके लेक्चरों पर कैसे भरोसा करें। झिझक के साथ प्रोफेसर साहब बोले, मुझे लगता है बेटे तुम्हें मेरे पढ़ाने पर भरोसा करना चाहिए। छात्र की आंखों में जीत की चमक थी। बोला, बिल्कुल यही तो सर! यही भरोसा तो है जो इंसान को भगवान से जोड़ता है। वही विधाता जिसके कारण चीजें सजीव एवं गतिमान हैं। 

अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

ॐ सांई राम।।।
अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

 


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