साईनाथजी, आप ही सकल (सारे) खेल खेलते हो।
और साथ ही अलिप्तता का ध्वज भी फहराते रहते हो।
कर्ता होकर भी स्वयं को अकर्ता कहलवाते हो।
न जान सके कोई चरित्र आपका ॥
अर्थ: साईनाथजी, आप ही सारी लीलाएं करते हो, मगर ‘मैं कहां कुच करता हूं’ यह कहकर अलिप्तता का ध्वज भी फहराते रहते हो, कर्ता होकर भी स्वयं को अकर्ता कहलवाते हो, यह सच है साई कि आपका चरित्र किसी की भी समझ में नहीं आ सकता।
अथ श्रीसाईसच्चरित प्रारंभः।
श्रीसाईसच्चरित का आरंभ ‘अथ श्रीसाईसच्चरितप्रारंभ:’ इस प्रकार हेमाडपंतजी करते हैं। ‘अथ’ यह शब्द मंगलवाचक है, इसी लिए ग्रंथ का आरंभ करते समय मंगलाचरण के लिए ‘अथ’ शब्द का प्रयोग शास्त्रों में किया जाता है। हेमाडपंतजी ने भी इस शास्त्र मर्यादा का सम्मान करते हुए, ध्यान रखते हुए साईसच्चरित का आरंभ ‘अथ’ इस मंगलवचन से किया है।
ॐकारश्च अथशब्दश्च द्वौ एतौ ब्रह्मण: पुरा।
कण्ठं भित्वा विनिर्यातौ तेन मांगलिकौ उभौ॥
ॐकार एवं ‘अथ’ ये दो शब्द चतुरानन द्वारा उच्चारण किये गए शब्द हैं, ये शब्द सहज ही उनके कंठ से निकल पड़े थे और इसीलिए ये दोनों शब्द मंगलवाचक हैं। इसीलिए ‘ॐ’ एवं ‘अथ’ शब्द का किसी भी मंगलप्रसंग में, मंगलकार्य के आरंभ में उच्चारण करने की शास्त्राज्ञा है। हेमाडपंतने भी इस शास्त्र-मर्यादा के अनुसार ‘अथ श्रीसाईसच्चरित-प्रारंभ:’ कहकर ग्रंथलेखन कार्य का ‘श्रीगणेश’ किया है।
पहले अध्याय के आरंभ में,
‘श्री गणेशाय नम:। श्रीसरस्वत्यै नम:। श्रीगुरुभ्यो नम:। श्रीकुलदेवतायै नम:। श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नम:। श्रीसद्गुरुसाईनाथाय नम:।’
इस प्रकार से नमन किया है। इस ‘नम:’ की नींव पर ही यह ग्रंथरूपी इमारत खड़ी हैं। ‘नम:’ स्थिति में ही यानी पूर्ण निरहंकारी शारण्यभाव से ही हेमाडपंत हर एक अध्याय का आरंभ करते हैं। हेमाडपंत का ‘मन’ यह साईनाथजी के चित्त में पूरी तरह घुल मिल चुका मन है और इसीलिए साईनाथ हेमाडपंत की क्रियाओं के ‘कर्ता’ बन गए हैं | हेमाडपंत के इस ‘नमन’ से ही सारे अवरोधों को नष्ट कर अनिरुद्ध-गति से ये साईनाथजी हेमाडपंत के संपूर्ण जीवन में प्रवाहित हो गये।[/size]
श्री साईसच्चरित के पहले अध्याय की शुरवात का विवरण इस साईट बहुत अच्छी तरह से किया गया है। इतनाही नही हर अध्याय की महत्त्वपूर्ण चौपाईपर विवरण किया गया है। जरुर पढीए।
http://www.newscast-pratyaksha.com/hindi/shree-sai-satcharitra-01/[/size]