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Author Topic: श्रीराम और सेवक सम्मान की परंपरा  (Read 2382 times)

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Offline JR

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श्रीराम और सेवक सम्मान की परंपरा

वर्तमान के आपाधापी के युग में श्रीराम का जीवन-दर्शन शांति-स्थापना, तनावों से मुक्ति और नैतिक शिक्षा को आत्मसात करने के लिए प्रेरणा-स्तंभ है। सेवकों के सम्मान का अद्वितीय उदाहरण श्रीराम ने ही जगत के सामने रखा। मूल्यों और वचनों की खातिर सत्ता को कैसे ठुकराया जाए, इसका उदाहरण श्रीराम और भरत सामने रखते हैं। कहीं ऐसा उदाहरण नहीं मिलेगा, जहाँ सेवक (कपि समुदाय) ऊपर वृक्ष पर विराजमान हैं और राघवेन्द्र सरकार नीचे जमीन पर! वानर सेना द्वारा दिए सहयोग के प्रति धन्यवाद ज्ञापन करते हुए श्रीराम यह कहते हुए नहीं अघाते कि 'मैं आपके सहयोगरूपी कर्ज से मुक्त नहीं हो सकता।'

श्री रामचरितमानस में 'श्रीराम-केवट प्रसंग' वंचितों को सम्मान देने की परंपरा सामने रखता है। केवट श्रीराम के चरण धोने पर आमादा है और इसके पक्ष में दलील भी देता है। चरण धुलाते श्रीराम को अपने विवाह समारोह की रस्में याद आने लगती हैं। उस समय राजा जनक ने श्रीराम के चरण धोए थे। केवट भी ठीक उसी तरह चरण साफ करते हैं। अपनी अर्द्धांगिनी से श्रीराम पूछ बैठते हैं- 'सीते तुम्हें कुछ याद आता है?' श्रीराम जानकी को याद दिलाते हैं- 'आपके पिता ने भी कुछ इसी तरह चरण धोए थे। आज से केवटराज तुम्हारे पितातुल्य हैं।'

अपने पिता राजा दशरथ के दिए वचनों की रक्षा के लिए श्रीराम ने राज-पाट सबकुछ त्याग दिया।

रघुकुल रीति सदा चली आई,
प्राण जाई पर वचन न जाई

वे किसी पथिक की तरह पिता का साम्राज्य त्याग चलते बने।

राजीव लोचन राम चले
तजि बाप को राज बटाऊ की नाईं


कैकेयी के वरदानों से व्यथित राजा दशरथ तो रस्म-अदायगी के इच्छुक थे। सचिव सुमंत्र को समझाया भी कि दो-चार दिनों तक वन में घुमा लाओ किंतु वे श्रीराम ही थे जिन्होंने रघुवंश की परंपरा कायम रखी। आज वचनों के पालन की परंपरा की सर्वाधिक जरूरत है।

वर्तमान में सत्ता के लिए संघर्ष मचा हुआ है। राम और भरत ने सत्ता को फुटबॉल के समान माना। दोनों सत्ता को ठोकर देते रहे। इसके बाद भी जब समस्या हल नहीं हुई तो 'डी' (ख़ड़ाऊ) ने समाधान निकाला। अतः श्रीराम के नाम पर सत्ता प्राप्त करने की चर्चा करने वाले स्वयं भ्रमित हैं। श्रीराम ने तो सत्ता का परित्याग किया।

मर्यादा पुरुषोत्तम आदर्श वेशभूषा के आधार पर नहीं, अपितु ज्ञान के आधार पर सम्मान की शिक्षा देते हैं। हनुमान और जामवंतजी इसके उदाहरण हैं। रामकथा के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पात्र मंथरा को समय और समाज ने यूँ ही भुला दिया। मंदबुद्धि की मंथरा ने कुशाग्र बुद्धि हो कैकेयी को जो राय दी वह श्री रामचरितमानस को जगत के सामने लाने में समर्थ हुई। रामायण, श्रीरामचरितमानस का आधार बनी मंथरा अपयश का पिटारा बनकर सामने आई। मंथरा ने सलाह देने का कार्य प्रभु की आज्ञा से ही किया, फिर परामर्शदाता लांछित क्यों? मंथरा ने दशरथनंदन राम को जन-जन का राम बनाने का दायित्व निभाया है। मंथरा ने समाज को, विश्व को श्रीराम दर्शन का प्रकाश प्रदान किया। समाज के शोषित वर्ग की यह प्रतिनिधि स्वयं कलंकगार हो सामने आई, जबकि राजा दशरथ के कार्यकाल में वह अत्यंत ही सम्मानित थी। राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न को गोद में खिलाने का सौभाग्य जिसे मिला हो, उसके भाग्य के क्या कहने? दरअसल, रामनवमी जिस धूमधाम से मनाई जा रही है, श्रीरामचरितमानस जिस श्रद्धा और भक्तिभाव से पढ़ी जा रही है, उसमें मंथरा के योगदान को भी याद किया जाना चाहिए।

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