पीपल पवित्र एवं पूज्य तरु
अश्वत्थ अर्थात पीपल वृक्ष को ज्ञान वृक्ष एवं ब्रह्म वृक्ष भी कहा गया है। सूर्य प्रकाश का विशेष रूप से संश्लेषण करने के कारण इसे सौर-वृक्ष भी कहते हैं। प्राचीनकाल में आर्य जाति शत्रुओं के विनाश के लिए पीपल को अपना विशेष आराध्य मानकर पूजती थीं। शास्त्रों एवं पुराणों में इस वृक्ष को देवस्वरूप मानकर कहा गया है...
'मूलतः ब्रह्मरूपाय मध्यतो विश्वरूपिणे। अग्रतः शिवरूपाय अश्वत्थाय नमोनमः।'
इसकी पूजा करने से सर्वमनोरथ पूर्ण होते हैं। भूतबाधा और अन्य किसी प्रकार के अनिष्ट का भय नहीं रहता, बुरे-खोटे ग्रहों की शांति होती है और सुख-सौभाग्य प्राप्त होता है।
स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है 'मैं सब वृक्षों में अश्वत्थ-पीपल हूँ।' विश्व ब्रह्मांड की इसको उपमा दी गई है। अथर्ववेद यंत्र में भी पीपल वृक्ष को देवों का निवास स्थान कहा गया है।
बौद्ध-जैन-वैष्णव परंपरा में पीपल पूजा लोक-आस्था के रूप में प्रचलित है। प्रायः इन सभी के मूर्ति-शिल्पों में भी पीपल उपासना के उदाहरण मिलते हैं। आज भी इस वृक्ष के प्रति लोगों में इतनी आस्था है कि इसे काटना, जलाना धार्मिक अपराध माना जाता है।औषधीय गुणों के कारण पीपल के वृक्ष को 'कल्पवृक्ष' की संज्ञा दी गई है। इसके पंचांग अर्थात छाल, पत्ते, फल-बीज, दूध, जटा एवं कोपलें तथा लाख प्रायः सभी प्रकार के रोगों और आधि-व्याधियों के शमन में काम आते हैं। वेदों में पीपल को अमृततुल्य माना गया है। सर्वाधिक ऑक्सीजन निस्सृत करने के कारण इसे प्राणवायु का भंडार कहा जाता है। सबसे अधिक ऑक्सीजन का सृजन और विषैली गैसों को आत्मसात करने की इसमें अकूत क्षमता है।