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Sai Literature => सांई बाबा के हिन्दी मै लेख => Topic started by: JR on April 14, 2007, 01:37:36 AM

Title: जो विभक्त है वह भक्त नहीं
Post by: JR on April 14, 2007, 01:37:36 AM
जो विभक्त है वह भक्त नहीं

- प्रस्तुति- विवेक हिरदे
 
मृगमयी मूर्ति में चिन्मय ईश्वर का .साक्षात्कार कराते एक संत जिनसे सच्चे अर्थों में धार्मिक धरोहर की श्रेष्ठ संस्कृति भी सम्मानित हुई है, ऐसे आदित्य से प्रखर तेजस्वी गुरु महाराज की आलोक गंगा में पावन स्नान और उनका पुण्य प्रेममय सान्निध्य स्वयं में संजीवनी सामर्थ्य समेटे हुए है।

ईश्वरीय सत्ता से साक्षात्कार और सांसारिक कष्टों के निवारणार्थ जटिल मार्गों के भटकावों से बचाते हुए सरल, सुगम राह का मार्गदर्शन कराना और कष्टों-क्लेशों, कुटिलताओं से बचा लेना उनका सहज स्वभाव है। इस युग के तीव्र गतिशील और जटिल जीवन में वृहत कर्मकांडों में उलझाने की अपेक्षा संक्षिप्त और सरल पद्धतियों जैसे अन्नदान तथा गो सेवा के द्वारा मनुष्य के जीवन को सुख-समृद्धि और संतोष से समृद्ध करना गुरुदेव के जीवन का मुख्य लक्ष्य है।

आराध्य के प्रति प्रीति, विशुद्ध विश्वास, संपूर्ण समर्पण और द्धा, गुरुमंत्रों को सशक्त और प्रभावशाली बना देते है। श्री गजानन महाराज के प्रति गुरुजी की ऐसी प्रीति, विश्वास, समर्पण और द्धा का ही यह प्रतिफल है कि भक्तजनों पर उनका आशीर्वाद अद्भुत रूप से फलीभूत होकरसामान्यजनों को चमत्कृत कर देता है। गुरुजी की असीम चेतना और संवेदनशीलता का प्रभाव उनके शिष्यों को विपत्ति के क्षणों में मीलों दूर रहने पर भी संकट से उबार लेता है। यह गुरु मंत्र का ही प्रभाव है कि शिष्य मार्गदर्शन के लिए उन्हें सदैव अपने निकट पाते हैं और संकटों से मुक्त हो जाते हैं।

जो द्धाभाव से एकनिष्ठ रहकर गुरु के प्रति संपूर्ण समर्पण रखता है वही जीवन की आध्यात्मिक ऊँचाइयों को स्पर्श कर पाता है। गुरु महाराज का कथन है कि- 'भक्त विभक्त न हो और जो विभक्त है वह भक्त न हो।'

गुरु शिष्यों के दुःखों के प्रति सदैव सचेत रहता है, उसे कभी शिष्यों से कोई अपेक्षा नहीं होती, सिवाय समर्पण के-

'मैं तुम्हारे पहाड़ों के समान कष्टों को राई के समान कर दूँगा आवश्यकता मात्र तुम्हारे संपूर्ण समर्पण की है।'

जो जल का सामीप्य पाते हैं वही उसका तारल्य महसूस करते हैं। जो गहरे सागर उतरने का प्रयास करते हैं, वहीं सीपों से मोती पाने में सफलता हासिल करते हैं और जो भास्कर से आमुख होते हैं, वही उसकी उज्ज्वल दीप्त रश्मियों का प्रसाद पाते हैं और यही तारल्य, यही मोती तथा यही ओज समाहित है, श्री अमृतफले गुरु महाराज में। 


Title: Re: जो विभक्त है वह भक्त नहीं
Post by: Ramesh Ramnani on April 16, 2007, 08:30:19 AM
जय सांई राम।।।

सुख-दुख मनुष्य के कर्मो का फल

भक्तों के जीवन में विपत्तियां आती रहती हैं, क्योंकि भगवान अपने भक्तों की परीक्षा लेते रहते हैं। इसलिए मनुष्य को विपत्तियों में हार न मानते हुए अपने कर्म पर ध्यान देना चाहिए।

जीवन का दु:ख उस व्यक्ति के कर्म की उत्पत्ति होती है, लेकिन जो विपत्ति उसे भगवान की ओर ले जाए, वह ईश्वर की उसके लिए परीक्षा होती है। जिस प्रकार भक्त प्रहलाद के जीवन में ऐसी कई विपत्तियां आई थीं, लेकिन उन्होंने किसी भी विपत्ति में भय को महसूस नहीं किया, क्योंकि उन्हें तो संसार की हर वस्तु में भगवान के साक्षात दर्शन होते थे। उन्होंने ज्ञानी भक्त को परिभाषित किया और कहा कि ज्ञानी भक्त वह होता है, जिसे हर ओर ईश्वर ही ईश्वर दिखाई दे।

भगवान का अवतार भक्त की रक्षा के लिए होता है। भक्त की रक्षा का अभिप्राय उनके प्राणों की रक्षा या जीविकोपार्जन से नहीं, बल्कि जब भक्त उनके विरह की वेदना से छटपटाने लगता है, तो वह उनके मार्गदर्शन के लिए आते हैं। ईश्वर दर्शन की तीन स्थितियां होती हैं-आयोग, संयोग और वियोग। ईश्वर के साथ जब तक मनुष्य का मिलन नहीं होता, उस स्थिति को आयोग कहते हैं। जब उनकी कृपा से भक्त को उनके दर्शन हो जाएं, तो उसे संयोग कहते हैं और जब ईश्वर दर्शन देने के बाद बिछड़ जाते हैं, तो वह स्थिति वियोग कहलाती है। वियोग बड़ा ही दु:खद होता है, क्योंकि उसके बाद भक्त ईश्वर से मिलने के लिए हमेशा बेचैन रहता है।

ईश्वर भक्त को किसी भी परिस्थिति से उबार सकते हैं, लेकिन वे चाहते हैं कि उनके भक्त का हृदय स्वच्छ हो जाए और सभी विकार नष्ट होकर सद्गुणों का समावेश हो जाएं। वह उन्हें गर्व से अपना सके। इसलिए वे कठिन तप की परीक्षा लेते हैं। प्रभु के दर्शन उसी को हो सकते हैं, जो सच्चे मन से उनकी आराधना करता है। मनुष्य का शरीर भले ही कहीं पर हो, लेकिन उसका ध्यान परमात्मा की ओर होगा, तो वह प्रभु को जरूर प्राप्त करेगा। 

अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई


ॐ सांई राम।।।
Title: Re: जो विभक्त है वह भक्त नहीं
Post by: Ramesh Ramnani on April 17, 2007, 11:06:36 PM
जय सांई राम

ऋषि वेदव्यास के पुत्र शुक्रदेव महाज्ञानी थे। उनके हृदय में ज्ञान की लौ गर्भ से ही अलोकित हो उठी थी। कहीं मायावी संसार में आकर वह अपना ज्ञान खो न दें, यह सोच उनको भयभीत करने लगी और उन्होंने जन्म न लेने का प्रण कर लिया। जब देवलोक में यह बात पहुंची तो देवताओं को भी चिंता होने लगी। शुकदेव को गर्भ से बाहर लाने के लिए उन्होंने ब्रह्माजी से प्रार्थना की। ब्रह्माजी ने कुछ समय के लिए सांसारिक माया को अपनी शक्ति से अदृश्य कर दिया। शुक्रदेव ने धरती पर जन्म लिया पर उनकी दिव्यात्मा को ब्रह्माजी भी भ्रमित न कर सके। अत: शुकदेव कपटी मायाजाल से बचने के लिए पांच साल के शैशव काल में ही जंगलों की ओर प्रस्थान कर गए। और इस तरह उन्होंने त्याग और तपश्चर्या का एक अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया।

अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई


ॐ सांई राम।।।