जय सांई राम
जो जागत है सो पावत है
यह संसार संघर्षमय है। जड़ तथा चेतन तत्व का संघर्ष ही संघर्षमय जीवन है। संघर्ष ही जीवन, जीवन ही संघर्ष है। जहाँ संघर्ष न हो, वहाँ जीवन नहीं। संघर्ष के कारण ही संसार में उन्नति दृष्टिगोचर होती है। सर्वप्रथम जड़ तत्वों पर ही एक बार दृष्टिपात करें।
जब तक दो काष्ठों में घर्षण न हो, तब तक अग्नि पैदा नहीं होती। जल को एक स्थान में रखा जाए तो वह गल-सड़ जाएगा और वही जल यदि बहता हुआ और गतिशील रहेगा तो स्वच्छ एवं निर्मल बना रहेगा। नदियों का या कुएँ आदि का जल नित्य प्रयोग में आता है। इसलिए वह स्वच्छ और पवित्र होता है। पानी का उपयोग तालाब आदि में नहीं करने से उसमें काई जम जाती है। वायु अपने स्थान पर ही गतिशील है। यदि गतिशील न हो तो वायु की सत्ता समाप्त और संसार का जीवन भी समाप्त हो जाएगा। पृथ्वी अपने स्थान पर गतिशील है। परिभ्रमण करती हुई सूर्य के चारों ओर घूमती है। यदि वह एक स्थान पर स्थित रह जाए तो उसका अस्तित्व भी नष्ट हो जाएगा। आप नित्य प्रति व्यवहार में देखते हैं। जैसे बालक खेलते समय गेंद को आकाश में फेंकता है। जब तक गेंद में गति है, तब तक गेंद आकाश में रहेगी और जहाँ गेंद की गति समाप्त हुई, वहीं वह पुन: पृथ्वी पर आ जाएगी। ब्रह्मांड में इसी प्रकार सूर्य-चंद्र-तारे तथा लोक-लोकांतर अपने-अपने स्थान पर गतिशील हैं। इसी प्रकार मानव-जीवन भी है।
मानव जीवन में जहाँ संघर्ष नहीं है, वहाँ जीवन नहीं है। संघर्ष ही मानव जीवन की सफलता की कुंजी है। संघर्ष के बिना जीवन सफल होना कठिन है। जो मानव शरीर को पाकर भी यदि संसार में संघर्ष या पुरुषार्थ नहीं कर सकता तो उसके जीवन में सफलता और सुख या आनंद कैसे प्राप्त हो सकता है? दुःख और असफलता का कारण पुरुषार्थहीनता या संघर्षहीनता होता है। वेदों में कहा गया है -
कुर्वन्नेवेह कर्मांणि जिजीविषेच्छतं समाः॥ यजुर्वेद 40.2॥
ऐ मानव ! श्रेष्ठ कर्म करता हुआ तू सौ वर्ष तक जीने की इच्छा कर। सचमुच यह संसार एक रणक्षेत्र या समरांगण के रूप में स्थित है। जो विचारशील और मननशील होकर इस रणक्षेत्र में कमर कसकर संघर्ष के लिए, युद्ध के लिए कूदते हैं, वही सुख व आनंद के भागी हो सकते हैं। उस परमपिता परमात्मा ने यह संसार जीवों के कल्याण के लिए ही बनाया है। जो इसमें पुरुषार्थ कर अपने को उन्नत बनाते हैं, वे ही यश को प्राप्त करते हैं। यह भूमि पुरुषार्थियों के लिए है। यह सारी सृष्टि वीरों के लिए है- वीरभोग्या वसुंधरा अर्थात यह धरती वीरों के भोग के लिए है। कायर-डरपोक-भीरु और दीन-हीनों के लिए यह वसुंधरा नहीं है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है -
जिंदगी जिंदादिली का नाम है।
मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं॥।
अतः हे मनुष्यों! उठो, अपने को आलस्य रूपी कीचड़ से बाहर निकालो, ‘आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।' आलस्य ही मनुष्य के शरीर में रहने वाला एक महान शत्रु है। जो मनुष्य अपनी सफलता चाहता है तो उसे इस दुर्गुण से कोसों दूर रहना होगा। आलसी प्रमादी बनकर रहेगा तो असफलता-हीनता-दरिद्रता अपने आप आएगी। इस तन को संघर्षमय ही बनाना होगा। यह मनुष्य देह बार-बार नहीं मिलती। यह पुण्यों की कमाई का फल है। इसे यूं व्यर्थ न करो। प्रत्येक मनुष्य की यह अभिलाषा रहती है कि किसी-न-किसी रूप में वह जीवन में सफल हो। परंतु सफलता की कामना करते हुए भी असफलता मिलती ही है। उसके कई कारण हो सकते हैं, परंतु उसमें संघर्षहीनता अथवा पुरुषार्थहीनता भी एक कारण है। जो उद्योगी हैं, पुरुषार्थी-कर्मठ हैं, उन्हें सुख मिलता ही है।
ऐ मनुष्य, तू जाग ! जागने से ही जीवन का कल्याण हो सकता है। जो जागता है, सावधान होकर इस जीवन नैया को चलाता है, वही जीवन में आनंद पाता है। जीवन प्रांगण में जिन महापुरुषों ने अपने अनंत चक्षु खोलकर जीवन-पथ का अवलोकन किया है, उनका जीवन धन्य है। जागृति ही जीवन का मूलाधार है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम, योगीराज श्रीकृष्ण, आचार्य चाणक्य, महर्षि दयानंद, स्वामी श्रद्धानंद, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ, योगी अरविंद आदि अनेकों महापुरुषों का जीवन हमारे लिए अवलोकनीय तथा अनुकरणीय है। अतः हे मनुष्यों! मानव जीवन की सफलता के लिए जागृत एवं पुरुषार्थी बनना अनिवार्य है। जीवन में जागना ही रत्नों को पाना है। कवि के शब्दों में - जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है, सो खोवत है।