सुसंस्कार से ही धर्म पुष्ट होता है
परमात्मा ने उपहारस्वरूप मानव को कंचन-सा शरीर तो दिया ही है, इसकी अद्भुत क्षमता से स्वयं मानव भी अनभिज्ञ है। रूप सौंदर्य की आसक्ति में वह प्राचीन (पुरातन) सनातन-शाश्वत संस्कृति और संस्कारों की अनदेखी जन्म से ही करता आ रहा है। नश्वर शरीर के प्रति उसे इतना लगाव हो गया है कि वह गर्भ में किए गए वादे भी विस्मृत कर चुका है। परमात्मा से किए वादे नहीं निर्वाह करने के कारण वह पृथ्वी पर नाना प्रकार के दुःखों से त्रस्त है। अज्ञानांधकार में भटकते हुए जीवन के अमूल्य क्षणों को माया-मोह में पड़कर व्यर्थ खो रहा है।
प्राचीन शाश्वत संस्कृति और संस्कारों को पश्चिमी संस्कृति के रंग में रंगकर धर्मस्थली पावन भारत भूमि को तहस-नहस करने में लगा हुआ है। वह अपनी वैदिक परंपरा से दूर चला जा रहा है। उसे खुद को परखने की कोई जरूरत नहीं महसूस होती है। वह असार संसार की चकाचौंध में इतना डूब गया है कि उसके बाहर निकलना असंभव है। कहने का तात्पर्य यह हैं कि संस्कृति और सुसंस्कार से ही धर्म पुष्ट होता है। अन्यथा धर्म, धर्म न रहकर अधर्म का स्वरूप ग्रहण कर लेता है।
श्रीमद् भगवत गीता में स्वयं श्रीकृष्ण परब्रह्म परमात्मा ने अपने सखा अर्जुन को जो उपदेश महाभारत के रणक्षेत्र में दिए, यदि शिक्षा के क्षेत्र में इन्हें पुनर्जीवित कर दिए जाए तो समूची पुरातन-शाश्वत संस्कृति का पृथ्वी पर पुनरागमन होकर 'सत्यम् शिवम् सुंदरम्' की पुनर्स्थापना हो जाएगी।
अखिल सृष्टि पुनः संस्कृति और संस्कारमय होकर दुःखों से मुक्त हो जाएगी। अतः पृथ्वी के सारे मानव जागो। अज्ञानांधकार से प्रकाश में आओ। अपने शरीर में स्थित ज्ञानेन्द्रियों का समुचित प्रयोग कर अन्तर्निहित संशयों को मिटाओ। कर्म-फलों से अपनी आसक्ति हटाओ। उसपरम सत्ता के प्रति अपने कर्तव्यों, अधिकारों को समर्पित करते जाओ। फिर देखना उस परब्रह्म परमात्मा की कृपा की ऐसी बरखा होगी कि सारी सृष्टि से काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद के समस्त विकारों का लोप हो जाएगा, हर मानव में पुरुषोत्तम जैसे गुणों का विकास हो जाएगा। यह मृत्युलोक एक दिन स्वर्ग-सा बन जाएगा। शिक्षा से ज्ञान और ज्ञान से विज्ञान से साक्षात्कार हो जाएगा।