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Sai Literature => सांई बाबा के हिन्दी मै लेख => Topic started by: JR on April 16, 2007, 09:01:05 PM

Title: प्राण जाए पर वचन न जाई
Post by: JR on April 16, 2007, 09:01:05 PM
प्राण जाए पर वचन न जाई
 
महाराज रघु अयोध्या के सम्राट थे। वे भगवान श्रीराम के प्रपितामह थे। उनके नाम से ही उनके वंश के क्षत्रिय रघुवंशी कहे जाते हैं। एक बार महाराज रघु ने एक बड़ा भारी यज्ञ किया। जब यज्ञ पूरा हो गया, तब महाराज ने ब्राह्मणों और दीन-दुखियों को अपना सब धन दान कर दिया। महाराज इतने बड़े दानी थे कि उन्होंने अपने आभूषण, सुंदर वस्त्र और सब बर्तन तक दान कर दिए। महाराज के पास साधारण वस्त्र रह गया और वे मिट्टी के बर्तनों से काम चलाने लगे। यज्ञ में जब महाराज सर्वस्व दान कर चुके, तब उनके पास 'वरतंतु ऋषि' के शिष्य 'कौत्स'नाम के एक ब्राह्मण कुमार आए। महाराज ने उनको प्रणाम किया तथा आसन पर बैठाया और मिट्टी के गडुवे से उनके पैर धोए। स्वागत-सत्कार हो जाने पर महाराज ने पूछा- 'आप मेरे पास कैसे पधारे हैं? मैं क्या सेवा करूँ?'

कौत्स ने कहा- 'महाराज! मैं आया तो किसी काम से ही था, किन्तु आपने तो सर्वस्व दान कर दिया है। मैं आप जैसे महादानी उदार पुरुष को संकोच में नहीं डालूँगा।' महाराज रघु ने नम्रता से प्रार्थना की 'आप अपने आने का उद्देश्य तो बता दें।'

कौत्स ने बताया कि उनका अध्ययन पूरा हो गया है। अपने गुरुदेव के आश्रम से घर जाने से पहले गुरुदेव से उन्होंने गुरुदक्षिणा माँगने की प्रार्थना की। गुरुदेव ने बड़े स्नेह से कहा- बेटा! तूने यहाँ रहकर जो मेरी सेवा की है, उससे मैं बहुत प्रसन्ना हूँ। मेरी गुरुदक्षिणा तो हो गई। तू संकोच मत कर। प्रसन्नाता से घर जा। लेकिन कौत्स ने जब गुरुदक्षिणा देने का हठ कर लिया, तब गुरुदेव को कुछ क्रोध आ गया। वे बोले- 'तूने मुझसे चौदह विद्याएँ पढ़ी हैं, अतः प्रत्येक विद्या के लिए एक करोड़ सोने की मोहरें लाकर दे।' अतः गुरुदक्षिणा के लिए चौदह करोड़ सोने की मोहरें लेने के लिए मैं अयोध्या आया हूँ॥

इस पर धन का प्रबंध करने के लिए महाराज रघु ने अगले दिन सुबह कुबेर पर चढ़ाई का निश्चय किया। अगले दिन बड़े सबेरे कोषाध्यक्ष उनके पास दौड़ा आया और कहने लगा- 'रात में मोहरों की वर्षा हुई है।' तब महाराज रघु ने सब मोहरों का ढेर लगवा दिया और कौत्ससे बोले कि आप इस धन को ले जाएँ। कौत्स ने कहा कि मुझे तो गुरुदक्षिणा के लिए चौदह करोड़ मोहरें चाहिए। उससे अधिक एक मोहर भी नहीं लूँगा।' और वे चौदह करोड़ मोहरें लेकर चले गए। शेष मोहरें महाराज रघु ने दूसरे ब्राह्मणों को दान कर दीं।

ये थे हमारे प्राचीन युग के मूल्य, जहाँ भौतिकतावाद का लेशमात्र भी नहीं दिखाई देता। अपने शुभ संकल्प और प्रण पूरे करने के लिए चाहे कुछ भी क्यों न करना पड़े, परंतु पीछे नहीं हटते थे। इसीलिए श्रीराम जैसी यशस्वी और पराक्रमी संतान उनके कुल में पैदा हुई, जिन्होंने वंश को भी यश दिलवाया। हमारे किए सद्कर्मों का फल अनंत गुना होकर किसी न किसी रूप में अवश्य मिलता है और उत्तम व श्रेष्ठ गुणों से युक्त संतानें कुल में पैदा होती हैं। वहीं बुरे कर्म ले डूबते हैं पूरे वंश को ही और अपयश पल्ले पड़ता है। रघुकुल प्रसिद्ध हुआ तथा दोहा प्रसिद्ध हुआ-
'रघुकुल रीत सदा चली आई
प्राण जाए पर वचन न जाई।'