Join Sai Baba Announcement List


DOWNLOAD SAMARPAN - Nov 2018





Author Topic: जैसा खाए अन्न वैसा बने मन  (Read 3920 times)

0 Members and 1 Guest are viewing this topic.

Offline JR

  • Member
  • Posts: 4611
  • Blessings 35
  • सांई की मीरा
    • Sai Baba
जैसा खाए अन्न वैसा बने मन

- डॉ. देवेंद्र जोशी
 
तपस्या का मूल आधार है मित आहार। मित आहार का मतलब है अत्यंत सीमित मात्रा में जितना आवश्यक हो उतना ही भोजन ग्रहण करना। भोजन में स्वाद की बजाए सात्विकता, शुचिता और पवित्रता का होना साधक की सफलता का अनिवार्य तत्व है। भारतीय शास्त्रों में आहार शुद्धि पर अत्यधिक बल दिया गया है। शास्त्र कहते हैं- 'जैसा खाए अन्ना वैसा बने मन।' अर्थात मनुष्य का मन और आचरण उसके आहार के अनुसार ही चलता है। जीवन में सफलता, यश, कीर्ति, वैभव, महानता, उच्चता और भगवत्प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति का आहार शुद्ध, सात्विक, संतुलितऔर चित्त पर अनुकूल प्रभाव डालने वाला हो।

भोजन केवल जिह्वा की स्वाद संतुष्टि का साधन मात्र नहीं है। यह महज उदरपूर्ति का उपक्रम भी नहीं है। यह साधक की साधना का एक अभिन्ना अंग है। सच कहा जाए तो साधक की साधना का प्रथम सोपान ही आहार शुद्धि है। शास्त्रों में जिसे मित आहार कहा गया है, उसका मतलब केवलआहार की अल्पता ही नहीं वरन उसकी पवित्रता और शुचिता है। साधक का मन साधना में तभी लग सकता है, जबकि उसका आहार सात्विक एवं चित्त को एकाग्रता प्रदान करने वाला हो। घंटों एकांत में बैठकर तप करने वाले या ईश्वरोपासना में दीर्घकाल तक रत रहने वाला व्यक्तिअगर यह सोचे कि इतनी लंबी पूजा-तपस्या करने के बाद अब मैं कुछ भी भोजन करूँ और कितनी भी मात्रा में ग्रहण करूँ इससे तपस्या या पूजा पर क्या असर पड़ने वाला है, लेकिन साधक का ऐसा सोचना गलत है। आहार की शुद्धि के बिना साधक की साधना की पूर्णता संभव नहीं है।

मनुष्य का कर्म, आचरण और जीवन उसके द्वारा ग्रहण किए जाने वाले आहार पर निर्भर करता है। न केवल आहार शुद्ध हो अपितु उसे बनाने वाले हाथ, परोसने वाले और उसमें उपयोग लाए जाने वाले पदार्थ तथा आहार जहाँ तैयार किया जा रहा है वहाँ का वातावरण भी शुद्ध होना चाहिए। शास्त्र तो यहाँ तक कहते हैं कि आहार ग्रहण करने के पूर्व उसे ईश्वर को समर्पित किया जाना चाहिए। सच्चे अर्थों में जिसे आप भोजन मानकर ग्रहण करते हैं, वह प्रभु प्रसाद है। उसे उसी रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए। हमारे यहाँ अन्ना को देवता माना गया है। अतः उसे जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल करना और झूठा छोड़ना दोनों ही गलत है। मनुष्य को मित आहारी बनकर भोजन को प्रभु प्रसाद मानकर ग्रहण करना चाहिए तभी उसमें मनसा, वाचा, कर्मणा, एकरूपता और आचरण में पवित्रता, और उच्चता का गुण विकसित हो सकता है।
 
सबका मालिक एक - Sabka Malik Ek

Sai Baba | प्यारे से सांई बाबा कि सुन्दर सी वेबसाईट : http://www.shirdi-sai-baba.com
Spiritual India | आध्य़ात्मिक भारत : http://www.spiritualindia.org
Send Sai Baba eCard and Photos: http://gallery.spiritualindia.org
Listen Sai Baba Bhajan: http://gallery.spiritualindia.org/audio/
Spirituality: http://www.spiritualindia.org/wiki

Offline Dipika

  • Member
  • Posts: 13574
  • Blessings 9
जैसा खाए अन्न वैसा बने मन

- डॉ. देवेंद्र जोशी
 
तपस्या का मूल आधार है मित आहार। मित आहार का मतलब है अत्यंत सीमित मात्रा में जितना आवश्यक हो उतना ही भोजन ग्रहण करना। भोजन में स्वाद की बजाए सात्विकता, शुचिता और पवित्रता का होना साधक की सफलता का अनिवार्य तत्व है। भारतीय शास्त्रों में आहार शुद्धि पर अत्यधिक बल दिया गया है। शास्त्र कहते हैं- 'जैसा खाए अन्ना वैसा बने मन।' अर्थात मनुष्य का मन और आचरण उसके आहार के अनुसार ही चलता है। जीवन में सफलता, यश, कीर्ति, वैभव, महानता, उच्चता और भगवत्प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति का आहार शुद्ध, सात्विक, संतुलितऔर चित्त पर अनुकूल प्रभाव डालने वाला हो।

भोजन केवल जिह्वा की स्वाद संतुष्टि का साधन मात्र नहीं है। यह महज उदरपूर्ति का उपक्रम भी नहीं है। यह साधक की साधना का एक अभिन्ना अंग है। सच कहा जाए तो साधक की साधना का प्रथम सोपान ही आहार शुद्धि है। शास्त्रों में जिसे मित आहार कहा गया है, उसका मतलब केवलआहार की अल्पता ही नहीं वरन उसकी पवित्रता और शुचिता है। साधक का मन साधना में तभी लग सकता है, जबकि उसका आहार सात्विक एवं चित्त को एकाग्रता प्रदान करने वाला हो। घंटों एकांत में बैठकर तप करने वाले या ईश्वरोपासना में दीर्घकाल तक रत रहने वाला व्यक्तिअगर यह सोचे कि इतनी लंबी पूजा-तपस्या करने के बाद अब मैं कुछ भी भोजन करूँ और कितनी भी मात्रा में ग्रहण करूँ इससे तपस्या या पूजा पर क्या असर पड़ने वाला है, लेकिन साधक का ऐसा सोचना गलत है। आहार की शुद्धि के बिना साधक की साधना की पूर्णता संभव नहीं है।

मनुष्य का कर्म, आचरण और जीवन उसके द्वारा ग्रहण किए जाने वाले आहार पर निर्भर करता है। न केवल आहार शुद्ध हो अपितु उसे बनाने वाले हाथ, परोसने वाले और उसमें उपयोग लाए जाने वाले पदार्थ तथा आहार जहाँ तैयार किया जा रहा है वहाँ का वातावरण भी शुद्ध होना चाहिए। शास्त्र तो यहाँ तक कहते हैं कि आहार ग्रहण करने के पूर्व उसे ईश्वर को समर्पित किया जाना चाहिए। सच्चे अर्थों में जिसे आप भोजन मानकर ग्रहण करते हैं, वह प्रभु प्रसाद है। उसे उसी रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए। हमारे यहाँ अन्ना को देवता माना गया है। अतः उसे जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल करना और झूठा छोड़ना दोनों ही गलत है। मनुष्य को मित आहारी बनकर भोजन को प्रभु प्रसाद मानकर ग्रहण करना चाहिए तभी उसमें मनसा, वाचा, कर्मणा, एकरूपता और आचरण में पवित्रता, और उच्चता का गुण विकसित हो सकता है।
 

साईं बाबा अपने पवित्र चरणकमल ही हमारी एकमात्र शरण रहने दो.ॐ साईं राम


Dipika Duggal

 


Facebook Comments