असंतुष्टि की आग
धन-वैभव, मान-सम्मान से परिपूर्ण जीवन वास्तविक सुख की अनुभूति कराए, यह आवश्यक नहीं है। दरअसल जब तक अंतर्मन में लालसा है, और अधिक-और अधिक का भाव है तब तक मनुष्य दरिद्र है। यह असंतुष्टि का स्वभाव मानवमात्र के वर्तमान स्वरूप को निरंतर विकृत स्थिति में बनाए रखने में मुख्य भूमिका निभाता है। यह धर्म-सार जानते सभी हैं किंतु अनजान से बने रहकर आजीवन संग्रह...संग्रह... और भी संग्रह में जीवन का अर्थ भूल जाते हैं। संतजनों की धर्ममय वाणी सुनने को धर्म-धारण मानना और उसे आत्मसात नहीं करना धार्मिक होने का प्रमाण कदापि नहीं है।
संतुष्ट रहना, हर हाल में चित्त में प्रसन्नता और धर्मों के सिद्धांतों का अनुकरण जीवन जीने की सार्थकता सिद्ध करता है। हम जब अपने आसपास जीवन-यापन के माध्यम में, शोषण कर्म में लिप्त महानुभावों की क्रिया देखते हैं तो तत्काल प्रतिक्रिया दे देते हैं। लेकिन अपनी अंतरात्मा में स्वकर्म को किसी भी दृष्टि से तुलनात्मक तौर पर नहीं देख सकते। यह प्रवृत्ति एक परंपरा के रूप में व्याप्त है कि हम सभी का मूल्यांकन करते हैं किंतु स्वयं अपवाद ही रहना चाहते हैं।
बेशक यह परिवर्तन का दौर है और नई पीढ़ी को बाँधकर परंपरावादी बनाना दुष्कर ही नहीं, काफी हद तक असंभव है। यह भी सच है कि नई पौध को खुली हवा में साँस लेने से कैसे रोका जा सकता है? समाधान सरल है। हम अपने आप में परिवर्तन कर नई पीढ़ी के समक्ष आदर्श उपस्थित कर सकते हैं। यह परिवर्तन यथास्थितिवादी के रूप में नहीं, अपितु अपनी वर्तमान शक्ति के अनुरूप प्रगति की आकांक्षाओं की पूर्ति के संदर्भ में होना चाहिए।
बिना किसी भूमिका के यदि आज के युवा वर्ग को असंतुष्ट कहा जाए तो यह अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा। असंतुष्टि वर्तमान व्यवस्था के प्रति, असंतुष्टि अपनी वर्तमान स्थिति के प्रति व असंतुष्टि उपभोग के दिनोंदिन ईजाद होते भौतिक साधनों का संग्रह न कर पाने के प्रति।दरअसल असंतुष्टि में लिपटी कच्ची या यूँ कहें अधकचरी मानसिकता के चलते युवाओं ने विभिन्न स्तर व श्रेणी के पेशेवर कलाकारों को आदर्श के रूप में अपना रखा है। ऐसे में समाज का वर्तमान स्वरूप भविष्य में निरंतर विकृत होते-होते अंततः हमें लूटमार की आदिकालीन संस्कृति की ओर ले जा रहा है।