आग में बाग
बाग में आग लगाना तो आसान है, पर आग में बाग लगाना कठिन है। यह कार्य चुनौतीपूर्ण है। जहाँ आग लगी हो, वहाँ जाकर उसे बुझाना और फिर नए जीवन की शुरुआत करना वाकई मुश्किल है। पर इस कार्य को भी अंजाम देते हैं कुछ साहसी मनस्वी, जो महान होते हैं। जिसका आग में सर्वस्व जल गया हो, जो जीवन में निराश हो चुका हो, सर्वप्रथम तो उसे सांत्वना देने की आवश्यकता रहती है। इस तर्ज पर- 'दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा, जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा।' जीने की आस बराबर बनी रहती है।
बड़े-बड़े भूकम्प आते हैं, तबाही होती है, लेकिन फिर नई बस्ती बस जाती है।
सबसे पहला कार्य तो यह कि आग लगाने वालों को रोकना है। कोई किसी की दुनिया में आग क्यों लगाता है। या तो बदले की भावना से या अपनी नई दुनिया बसाने के लिए। हमारा अपना व्यवहार ही उस हेतु दोषी है। लगातार अन्याय, शोषण, उत्पीड़न कोई भी अधिक समय तक सहन नहीं कर सकता है। जिसे जितना दबाकर रखा जाए, उतना ही सिर उठाता है। समाज का एक ऐसा वर्ग जो सदियों से दलित रहा, उपेक्षित रहा सवर्णों से, आज उठ खड़ा हुआ है। आग लगाने में सक्षम है। मेहनत करने पर भी उसका फल न मिले तो असंतोष होना स्वाभाविक है।
अपने अधिकारों के लिए लड़ने में कोई बुराई नहीं है, पर कारखाने में आग लगा देने में है। राष्ट्रीय संपत्ति को नुकसान पहुँचाकर हम क्या हासिल करना चाहते हैं? अपना आक्रोश हम दूसरों को बरबाद कर क्यों व्यक्त करना चाहते हैं, विचारणीय है।