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Sai Literature => सांई बाबा के हिन्दी मै लेख => Topic started by: JR on April 26, 2007, 12:58:15 AM

Title: परहित सरिस धर्म नहीं भाई
Post by: JR on April 26, 2007, 12:58:15 AM
परहित सरिस धर्म नहीं भाई

- प्रस्तुति- दिनेश तिवारी
 
मनुष्य एक सामाजिक जीव है। समाज ही उसका कर्मक्षेत्र है। अतः उसे स्वयं को समाज के लिए उपयोगी बनाना पड़ता है। वास्तव में परोपकार और सहानुभूति पर ही समाज स्थापित है। सब अपने-अपने स्वार्थ का थोड़ा-बहुत त्याग करके ही समाज को स्थिर रखते हैं। यदि ऐसा न होतो सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो सकती। अपनी मनमानी करते हुए भी हमें समाज के नैतिक आदर्शों के सामने सिर झुकाना पड़ता है।

लोक सेवा से समाज में जहाँ अपना स्वार्थ सिद्ध होता है, वहीं समाज में प्रधानता प्राप्त होती है। वस्तुतः सेवा निःस्वार्थ भाव से होनी चाहिए। जो व्यक्ति निःस्वार्थ भाव से दुखियों की सेवा करता है, वह लोकप्रिय बन जाता है। ईसा ने कहा है- 'जो तुम में सबसे बड़ा होगा वह तुम्हारा सेवक होगा।'

समाज की प्रवृत्ति ऐसी है कि यदि आप दूसरों के काम आएँगे तो समय पड़ने पर दूसरे भी आपका साथ देंगे। जो व्यक्ति समाज के लिए आत्म-बलिदान देता है, समाज उसे अमर बना देता है। अतः लोक सेवा से मनुष्य की एक सबसे बड़ी आकांक्षा पूर्ण होती है, वह है यश पाने की कामना। विद्वानों के अनुसार जो कीर्तिवान होता है, वही जीवित होता है। पंचतंत्र में कहा गया है, 'जो व्यक्ति अपने जीवन से दूसरों के जीवन को जीने योग्य बनाता है, वह तो बहुत दिन जिए। नहीं तो कौए भी बहुत दिन जी जाते हैं और ज्यों-त्यों अपना पेट भर लेते हैं।' जो व्यक्ति जीवन में किसी की सहायता या मदद नहीं करता, उसका जीवन आनंदमय कतई नहीं हो सकता। जो मनुष्य दूसरों के दुःख दूर करके प्रसन्नता बिखेरता है, उसके मन में सौ गुना प्रसन्नता और सौ गुना उत्साह का संचार होता है।