जीव आत्मा और प्राण,ये तीन शब्द हर पुराण और वेद मे मिलते है,इनके भेद को जानने के लिये कितने ही इस संसार मे आये और चले गये,भेद न तो आज तक किसी को मिला है,और न ही मिलेगा,कोई आत्मा को पर्मात्मा मानता है,अगर कोई कहे कि आत्मा को कष्ट भोगना पडता है तो क्या पर्मात्मा कष्ट भोगता है,यह तो हरगिज नही हो सकता है कि जगत पिता परमात्मा ही कष्ट भोगे,तो आत्मा परमात्मा के अन्दर है या आत्मा मे परमात्मा है,मतलब तो साफ़ नही होता है,तो जिसको कष्ट मिलता है,वह कौन है ? शायद जीव हो सकता है,मगर जीव कभी जीव को कष्ट दे ही नही सकता है,जीव अगर जीव को कष्ट देगा,तो उसे भी तो कष्ट होगा,कोई नही चाहता है कि खुद को ही कष्ट दिया जावे,तो कष्ट प्राण को मिलता होगा ? मगर प्राण तो शरीर को जिन्दा रखता है,प्राण तो हवा है,आती है जाती है,हवा तो हर जगह है,तो इसका मतलब हुआ कि हर जगह प्राण है,और हर जगह प्राण है तो फिर मरता कौन है ? गीता मे भी कहा कि जिस प्रकार से पुराने कपडे को बदला जाता है उसी प्रकार से आत्मा शरीर को बदल देती है,और नया शरीर धारण कर लेती है,मतलब शरीर मे आत्मा का ही राज है,आत्मा का ही राज है तो,जीव क्या है,जीव ही अत्मा है तो प्राण क्या है,आत्मा और जीव और प्राण मिलकर एक ही है तो मरता कौन है ? कोई कह रहा था कि प्राण का अर्थ है मनुष्य की वायु क्रिया,और शरीर का संचालन,प्राण शरीर को गति शील रखता है,तो जो शरीर को सौ साल तक गति शील रख सकता है,वह हजार साल तक भी गति शील रख सकता है, मतलब शरीर को प्राण गतिशील नही रखता है,जीव को स्वर्ग और नर्क मे फल भोगना पडता है,और वह जैसा करता है उसको वैसा हीफल मिलता है,तो जीव क्या है,किसने भेजा,इसे और क्या जीव अपने आप ही सब काम कर लेता है,अगर कर लेता तो पैदा होने के बाद माता की जरूरत नही पडती,खुद ही भोजन कर लेता,और खुद ही सब काम कर लेता,इसका मतलब जीव भी अकेला नही है,कहीं न कही किसी न किसी से जुडा हुआ है,और मेरे अपने ख्याल से मनुष्य भी एक पेड की तरह से जो चलता फिरता है,उसका जीवन किसी न किसी प्रकार दूसरो पर निरभर है,वह वही करता है जो दूसरे लोग चाहते है,वे दूसरे लोग ही आसमानी ग्रह है,जो दूर से बैठ कर अपने रिमोट से मन चाहा चैनल देखने के लिये बटन दबाते रहते है,फिर आप अपनी आत्मा मे आनद की विभूति किस प्रकार से प्राप्त कर सकते है,उसको भी तो देने बाला कोई दूसरा ही है,कोई न काहू सुख दुख कर दाता,निज क्रत करम भोगु फल भ्राता ।