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Sai Literature => सांई बाबा के हिन्दी मै लेख => Topic started by: JR on June 29, 2007, 12:14:31 AM

Title: संतोष : सभी सुखों का दाता
Post by: JR on June 29, 2007, 12:14:31 AM
संतोष : सभी सुखों का दाता
- पूजा दीक्षित

संतोष अर्थात सभी सुखों का दाता। संतोष का गुण ही जीवन में सुख-शांति लाने की उत्तम औषधि है, और कहा भी जाता है जिस मनुष्य के पास संतोषरूपी गुण है, उसे पानी की बूँद भी समुद्र के समान प्रतीत होती है और जिसके पास यह गुण नहीं उसे समुद्र भी बूँद के समान प्रतीत होता है। कबीरदासजी कहते हैं-

चींटी चावल ले चली/ बीच में मिल गई दाल।
कहत कबीरा दो ना मिले/ इक ले दूजी डाल॥


अर्थात- एक चींटी अपने मुँह में चावल लेकर जा रही थी, चलते-चलते उसको रास्ते में दाल मिल गई।

उसे भी लेने की इच्छा हुई, लेकिन चावल मुँह में रखने पर दाल कैसे मिलेगी? दाल लेने को जाती तो चावल नहीं मिलता। चींटी का दोनों को लेना का प्रयत्न था। 'चींटी' का यह दृष्टांत हमारे जीवन का एक उत्तम उदाहरण है। हमारी स्थिति भी उसी चींटी जैसी है। हम भी संसार के विषय-भोगों में फँसकर अतृप्त ही रहते हैं, एक चीज मिलती हैं तो चाहते हैं कि दूसरी भी मिल जाए, दूसरी मिलती हैं तो चाहते हैं कि तीसरी मिल जाए। यह परंपरा बंद नहीं होती और हमारे जाने का समय आ जाता है।

यह हमारे मन का असंतोष ही तो है, हम को लोहा मिलता है, किन्तु हम सोने के पीछे भागने लगते हैं। पारस की खोज करते हैं, ताकि लोहे को सोना बना सकें। और असंतोष रूपी लोभ से ग्रसित होकर पारस रूपी संतोष को भूल जाते हैं, जिसके लिए हमें कहीं जाना नहीं पड़ता बल्कि वह तो हमारे पास ही रहता है। बस आवश्यकता है तो उसे पहचानने की।

प्रारब्ध से जो कुछ प्राप्त है, उसी में संतोष करना चाहिए, क्योंकि जो प्राप्त होने वाला नहीं है उसके लिए श्रम करना व्यर्थ ही है।

यह समझना चाहिए कि हमारे कल्याण के लिए प्रभु ने जैसी स्थिति में हमको रखा है, वही हमारे लिए सर्वोत्तम है, उसी में हमारी भलाई है। हाँ, हमें यह चाहिए कि हम प्राप्त परिस्थिति और साधन का समुचित उपयोग कर अपने जीवन को सफल बनाएँ। मन के अनुसार न किसी को कभी कोई वस्तु मिली है और न ही मिलने वाली है। क्योंकि हमारा मन भी दलदल में फँसे हाथी जैसा ही है, जो बाहर निकलने के प्रयास में और अधिक धँसता जाता है। ऐसे ही यह करूँ, वह करूँ, इतना कर लूँ, इतना पा लूँ, करते-करते मनुष्य संसार में और फँसता चला जाता है। इसलिए हमारे ग्रंथों में कहा गया है-

गोधन, गजधन, वाजिधन, और रतन धन खान।
जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान॥

Title: Re: संतोष : सभी सुखों का दाता
Post by: astrobhadauria on July 21, 2007, 01:05:39 PM
गोधन,गजधन,बाजिधन,और रतनधन खान ।
जब आवे संतोष धन,सब धन धूरि समान ॥
Title: Re: संतोष : सभी सुखों का दाता
Post by: Ramesh Ramnani on September 10, 2007, 03:48:51 AM
दूसरों का हित  

पुराने जमाने की बात है। किसी गांव में एक बुढ़िया रहती थी। उसने अपनी जमीन का एक हिस्सा बेच दिया और जो धन मिला उससे अपने लिए सोने की चूड़ियां बनवा लीं। उसने बड़ी खुशी से चूड़ियां पहनीं और सड़क पर अभिमान के साथ घूमने लगी। लेकिन वह बहुत निराश हुई, क्योंकि गांव में किसी ने भी उसकी चूड़ियों पर ध्यान नहीं दिया। उसने कई तरीके से लोगों का ध्यान अपनी चूड़ियों की ओर आकर्षित करने का प्रयत्न किया, लेकिन वह असफल रही। अत्यधिक निराशा के कारण एक दिन उसे रात में नींद तक नहीं आई। अंत में उसे एक युक्ति सूझी।

सुबह उठते ही उसने अपने घर में आग लगा दी। जब आग की लपटें ऊंची उठीं और हाहाकार मच गया तो गांव वाले उसके घर की ओर दौड़े। वह जलते हुए घर के आगे विलाप कर रही थी। वह भयभीत गांव वालों के मुंह के सामने चूड़ियां खनकाकर जोर-जोर से रो-रोकर हाथ पीट रही थी, जिससे आग की रोशनी में चूड़ियां चमकें। वह रोती हुई बोली, 'हाय, मेरा भाग्य, हे भगवान, क्या आप मेरी दशा नहीं देख रहे?' हर बार चिल्लाते हुए वह अपनी बांह किसी-न-किसी पर जोर से रख रही थी, ताकि कोई भी स्त्री-पुरुष उसकी चूड़ियां देखने से न रह जाए। उसे उम्मीद थी कि लोग उसकी चूड़ियों के बारे में पूछेंगे पर किसी ने उन पर ध्यान नहीं दिया, बल्कि सब उसके घर के बारे में बात कर रहे थे और उसके प्रति सहानुभूति व्यक्त कर रहे थे। आखिरकार घर की आग बुझाई गई। बाद में बुढ़िया को अपनी चूड़ियां बेचकर घर की मरम्मत करानी पड़ी।

कुछ दिनों बाद अपने मन की शांति के लिए वह एक महात्मा के पास गई। उसने महात्मा को सारी बात कह सुनाई। महात्मा ने मुस्कराते हुए कहा, 'तुम मिथ्याभिमान में पड़ी हुई हो। तुमने उस चीज के जरिए अपनी पहचान बनाने की कोशिश की जिसका सिर्फ तुम्हारे लिए महत्व है दूसरों के लिए नहीं। दूसरों के हित में काम करो तभी लोग तुम्हारा नाम लेंगे।'