कलियुग में श्रीभगवन्नाम की विशेषता
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान्गुण:। कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तबन्ध: परं ब्रजेत्॥
(श्रीमद्भागवत)
राजन्! दोषों के भंडार कलियुग में यहीं एक महान् गुण है कि इस समय श्रीकृष्ण का कीर्तनमात्र करने से मनुष्य बन्धमुक्त हो परमपद को प्राप्त हो जाता है।
यदभ्यर्च्य हरिं भक्त्या कृते क्रतुशतैरपि। फलं प्रापनेत्यविकलं कलौ गोविन्दकीर्तनात्॥
(श्रीविष्णुरहस्य)
सत्ययुग में भक्ति -भाव से सैकड़ों यज्ञों द्वारा भी श्रीहरि की आराधना करके मनुष्य जिस फल को पाता है, वह सारा-का-सारा कलियुग में भगवान् गोविन्द का कीर्तनमात्र करके प्राप्त कर लेता है।
ध्यायन् कृते यजन् यज्ञैस्त्रेतायां द्वापरेऽर्चयन्। यदापनेति दतापनेति कलौ संकीर्त्य केशवम्॥
(विष्णुपुराण)
सत्ययुग में भगवान् का ध्यान, त्रेता में यज्ञों द्वारा यजन और द्वापर में उनका पूजन करके मनुष्य जिस फल को पाता है, उसे वह कलियुग में केशव का कीर्तनमात्र करके प्राप्त कर लेता है।
कृते यद्धयायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै:। द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात्॥
(श्रीमद्भागवत)
सत्युग में भगवान् विष्णु का ध्यान करने वाले को, त्रेता में यज्ञों द्वारा यजन करनेवाले को तथा द्वापर में श्रीहरि की परिचर्या में तत्पर रहनेवाले को जो फल मिलता है, वही कलियुग में श्रीहरि का कीर्तनमात्र करने से प्राप्त हो जाता है।
हरेर्नामैव नामैव नामैव मम जीवनम्। कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥
श्रीहरि का नाम ही, नाम ही, नाम ही मेरा जीवन है। कलियुग में इसके सिवा दूसरी कोई गति नहीं है, नहीं है, नहीं है।
ते सभाग्या मनुष्येषु कृतार्था नृप निश्चितम्। स्मरन्ति ये स्मारयन्ति हरेर्नाम कलौ युगे॥
नरेश्वर! मनुष्यों में वे ही सौभाग्यशाली तथा निश्चय ही कृतार्थ हैं, जो कलियुग में हरिनाम का स्वयं स्मरण करते हैं और दूसरों को भी स्मरण कराते हैं।
कलिकालकुसर्पस्य तीक्ष्णद्रंष्टस्य मा भयम्। गोविन्दनामदावेन दग्धो यास्यति भस्मताम्॥
(स्कन्दपुराण)
तीखी दाढ़वाले कलिकालरूपी दुष्ट सर्प का भय अब दूर हो जाना चाहिये; क्योंकि गोविन्द-नाम के दावानल से दग्ध होकर वह शीघ्र ही राख का ढेर बन जायगा।
हरिनामपरा ये च घोरे कलियुगे नरा:। त एव कृतकृत्याश्च न कलिर्बाधते हि तान्॥
घोर कलियुग में जो मनुष्य हरिनाम की शरण ले चुके हैं, वे ही कृतकृत्य हैं। कलि उन्हें बाधा नहीं देता।
हरे केशव गोविन्द वासुदेव जगन्मय। इतीरयन्ति ये नित्यं नहि तान् बाधते कलि:॥
(बृहन्नारदीय.)
हरे! केशव! गोविन्द! वासुदेव! जगन्मय!- इस प्रकार जो नित्य उच्चारण करते हैं, उन्हें कलियुग कष्ट नहीं देता।
येऽहर्निशं जगद्धातुर्वासुदेवस्य कीर्तनम्। कुर्वन्ति तान् नरव्याघ्र न कलिर्बाधते नरान्॥
(विष्णुधर्मोत्तर)
नरश्रेष्ठ! जो लोग दिन-रात जगदाधार वासुदेव का कीर्तन करते हैं, उन्हें कलियुग नहीं सताता।
ते धन्यास्ते कृतार्थाश्च तैरेव सुकृतं कृतम्। तैराप्तं जन्मन: प्राप्यं ये कलौ कीर्तयन्ति माम्॥
(भगवान् कहते हैं-) जो कलियुग में मेरा कीर्तन करते हैं, वे धन्य हैं, वे कृतार्थ हैं, उन्होंने ही पुण्य-कर्म किया है तथा उन्होंने ही जन्म और जीवन का पाने का योग्य फल पाया है।
सकृदुच्चारयन्त्येतद् दुर्लभं चाकृतात्मनाम्। कलौ युगे हरेर्नाम ते कृतार्था न संशय:॥
जो कलियुग में अपुण्यात्माओं के लिये दुर्लभ इस हरिनाम का एक बार भी उच्चारण कर लेते हैं, वे कृतार्थ हैं-इसमें संशय नहीं है।