काशी में गोस्वामी तुलसीदास
काशी में स्थायी रूप से निवास करने से पूर्व गोस्वामी तुलसीदास जी तीर्थाटन क्रम में यहां कई बार आए थे। यहां उन्होंने प्रकाण्ड वैयाकरण आचार्य शेष सनातन से व्याकरण का अध्ययन किया। बाद में स्थायी निवास के लिए गोस्वामी जी अयोध्या से काशी आए। काशी आने के पूर्व अयोध्या में ही उन्होंने संवत् 1631 में रामनवमी के दिन रामचरित मानस की रचना प्रारम्भ की। अयोध्या में उन्होंने मानस के तीन काण्डों (बाल, अयोध्या एवं अरण्य) की रचना की। इसके बाद दैवी प्रेरणा से वे अयोध्या से काशी आए। यहां सर्वप्रथम गोस्वामी जी प्रह्लाद घाट पर गंगाराम जोशी के आवास पर रुके। जोशी जी गोस्वामी जी के परम शुभेच्छु थे। यहीं पर रहकर गोस्वामी जी ने 'रामशलाका' की रचना की। सम्पूर्ण मानस की रचना में दो वर्ष सात महीने छब्बीस दिन लगे। संवत् 1633 में मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष में राम विवाह के दिन सातो काण्ड पूर्ण हो गए। मानस की रचना तो गोस्वामी जी ने अयोध्या में प्रारम्भ की पर यह ग्रन्थ अपने सम्पूर्ण रूप में काशी के प्रह्लाद घाट पर सम्पन्न हुआ। यहां रहकर गोस्वामी जी ने मानस में चार काण्ड जोड़े। ये काण्ड हैं, किष्किन्धा, सुंदर, लंका एवं उत्तर। ज्ञातव्य है कि मानस की रचना मुगल सम्राट अकबर के मध्योत्तर शासन-काल में हुई। जब मानस की रचना पूर्ण हो गई तो काशी के विद्वत् समाज ने इसका उग्र विरोध किया। संस्कृतज्ञों का कहना था कि रामकथा का वर्णन संस्कृत भाषा में होता आया है। लोकभाषा हिंदी में रामकथा की प्रस्तुति से कथा के गौरव में ह्रास आता है। विद्वत् समाज के विरोध का प्रत्युत्तर देना गोस्वामी जी ने उचित नहीं समझा; सारी आपत्तियों का उत्तर उन्होंने अपने 'मौन' से दिया। प्रह्लाद घाट पर निवास की अवधि में गोस्वामी जी कर्णघण्टा पर प्राय: आते थे। जब विरोध का स्वर अधिक उग्र हो गया तो गोस्वामी जी प्रह्लाद घाट से गोपाल मंदिर चले आए। यह मंदिर वर्तमान में ठठेरी गली के पूर्वी छोर पर स्थित है। यहां एक गुफा है, उसी में बैठकर गोस्वामी जी ने 'विनय पत्रिका' की रचना की। विनय पत्रिका में भक्त (गोस्वामी जी) और भगवान् (राम) के बीच सीधा संवाद है। इस रचना के माध्यम से गोस्वामी जी ने भगवान् के सम्मुख अपनी मनोव्यथा की अभिव्यक्ति की है। इस स्थान पर गोस्वामी जी की स्मृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए गुफा के पास एक शिलापट्ट लगाया गया है। इस शिलापट्ट पर लिखा है:-\
श्री मुकुन्दगोपालौ जयत:
श्रीमद्गोस्वामितुलसीदासानां स्थलम्
अस्मिन्नेव स्थाने तुलसीदासैर्विनयपत्रिका रचिता आसीत्।
(इसी स्थान पर गोस्वामी तुलसीदास ने विनय पत्रिका की रचना की)
गोपाल मंदिर की निवास-अवधि में भी गोस्वामी जी उपेक्षित ही रहे। इसी बीच उन्हें राजा टोडरमल की ओर से गंगा के किनारे अस्सी घाट पर रहने का निमंत्रण मिला। गोस्वामी जी गोपाल मंदिर से अस्सी घाट चले आए। यहां उन्हें राजा टोडरमल की ओर से नियमित रूप से सीधा (दाल, आटा, चावल, नमक, घी) आता था। अस्सी घाट पर रहते हुए गोस्वामी जी ने अपने आराध्य देव भगवान् राम विषयक कई काव्यग्रन्थों की रचना की, जिनमें 'कवितावली' और 'गीतावली' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जीवन के सान्ध्य काल में गोस्वामी जी के दाहिने हाथ में चर्म-रोग हो गया था। इसके कारण उन्हें तीव्र दैहिक वेदना होती थी। देह-पीड़ा से मुक्ति के लिए उन्होंने 'हनुमान बाहुक' नामक अंतिम ग्रंथ लिखा। कहा जाता है कि इस ग्रंथ की रचना के बाद उन्हें बाहु-रोग से मुक्ति मिली। काशी में रहते हुए गोस्वामी जी ने बारह स्थानों पर हनुमान जी की मूर्तियां स्थापित कीं। इनमें एक मूर्ति वह भी है जो उनके अस्सी स्थित निवास-स्थान पर है। गोस्वामी जी द्वारा स्थापित दूसरा हनुमान मंदिर संकटमोचन है। बताया जाता है कि अस्सी से गोस्वामी जी संकटमोचन स्थित हनुमान जी की दैनिक पूजा-अर्चा के लिए यहां आते थे। इन दोनों मंदिरों के अतिरिक्त काशी में विभिन्न स्थानों पर गोस्वामी जी ने दस हनुमान मंदिर और बनवाए। ऐसी भी मान्यता है कि काशी में रामलीला की परम्परा गोस्वामी जी द्वारा ही प्रारम्भ की गई। इतना ही नहीं, अस्सी घाट पर 'नागनथैया' (कृष्णलीला) गोस्वामी जी द्वारा ही चलाई गई है। अस्सी घाट पर नागनथैया आज भी सोत्साह आयोजित की जाती है। अपने आराध्य देव भगवान् राम का गुणगान करते-करते गोस्वामी जी क्रमश: जीवन के सान्ध्य काल की ओर बढ़ते गए। धीरे-धीरे देहत्याग का समय निकट आने लगा। काशी में अस्सी घाट पर गोस्वामी जी ने सम्वत् 1680 में देह-त्याग किया। इस सम्बंध में एक दोहा प्रचलित है।
संवत सोलह सौ असी असी गंग के तीर/ श्रावण श्यामा तीज शनि तुलसी तज्यो शरीर।
गोस्वामी जी के विषय में ऐसा भी कहा जाता है कि जीवन के अंतिम क्षण तक उनमें पूर्ण चेतना रही। मृत्युजनित दैहिक कष्ट उन्हें बिल्कुल नहीं हुआ। दूसरे शब्दों में, उन्होंने मृत्यु का आलिंगन किया। चलते-चलते उनके मुख से यह दोहा काव्यायित हुआ-
राम नाम जस बरनि कै भयउ चहत अब मौन/ तुलसी के मुख दीजिए अब तौ तुलसी सोन।
देहान्त के पश्चात् गोस्वामी जी के शिष्यों एवं भक्तों ने उनके शव को गंगा में अस्सी घाट के सामने प्रवाहित किया। गोस्वामी जी के जाने के बाद काशीवासियों को यह बात अखरी कि वे जिस सम्मान के अधिकारी थे, उससे उन्हें वंचित किया गया। जो भी हो, तत्कालीन लोक की उपेक्षा की क्षतिपूर्ति आज का लोक कर रहा है, यह संतोष और गर्व का विषय है।
वंशीधर त्रिपाठी