मनुष्य मानव और दिव्य प्राणी दोनों है
गरिमा
अक्सर जब हम धर्म शास्त्रों का अध्ययन करते हैं, तो यह देखने की कोशिश करते हैं कि उनमें ईश्वर, आत्मा, जीवन, मृत्यु और लोक-परलोक के बारे में क्या लिखा है। उनमें हम यह भी देखते हैं कि हमारे लिए धर्म सम्मत आचरण क्या है। पिछले दिनों ओ. पी. घई की एक पुरानी किताब हमारे हाथ लगी, जिसका शीर्षक है 'अनेकता में एकता।' इस किताब के एक अध्याय में यह दिया गया है कि अलग-अलग धर्मों में मनुष्य के बारे में क्या लिखा गया है। यह पाठ दिलचस्प है।
हिंदू धर्म में अनेक तरह की व्याख्याएँ हैं, लेकिन उपनिषदों के अनुसार मनुष्य पशुओं में सबसे बड़ा है। वह एक ऐसा पशु है जिसमें अनश्वर आत्मा का वास है, जिसे संसार द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता। इसलिए मानवता से महान कुछ भी नहीं है। सिख धर्म में तो मनुष्य के शरीर को ईश्वर का निवास स्थान कहा गया है।
बौद्ध और जैन धर्म भी भारत भूमि से विकसित दर्शन की ही शाखाएँ हैं। जैन धर्म कहता है कि मनुष्य को ईश्वर ने बनाया है, वह जिस रूप में भी है, उसकी इच्छा के अनुसार ही बना है। वह देवत्व से थोड़ा ही कम है। ध्यान दीजिए कि जैन दर्शन में भी हिंदू उपनिषदों की तरह मनुष्य योनि को देवत्व के काफी निकट माना गया है।
लेकिन किताब के मुताबिक बौद्ध दर्शन कर्मवादी है। वह ईश्वर की तुलना में मनुष्यता को ज्यादा महत्व देता है। बौद्ध धर्म कहता है कि मनुष्य अपने ही विचारों के अनुरूप बनता है। जो कुछ भी वह है, उसके सभी आदर्श, पसंद और नापसंद, उसका अपना अहम उसके अपने विचारों का ही परिणाम हैं। इसलिए यदि हम अपने जीवन और अपनी परिस्थितियों में बदलाव चाहते हैं तो हमें पहले अपने आप को ही बदलना होगा।
किताब में इस्लाम और सिख मान्यताएँ भी संकलित हैं। इस्लाम कहता है कि ईश्वर ने पृथ्वी पर अपने सिंहासन पर बैठने के लिए मनुष्य का निर्माण किया। मनुष्य पृथ्वी पर भगवान का वायसराय है। ईश्वर ने हमारे ही लिए यह जमीन, पेड़-पौधे और ये दिन-रात बनाए हैं। हमारे ही लिए मीठे फल और ठंडे चश्मे पैदा किए हैं।
ईसाई धर्म मानता है कि मनुष्य फरिश्तों से थोड़ा ही कम है। वह सभी मूल्यों का माप है। ध्यान दें कि इस्लाम की तरह ईसाई धर्म भी यही कहता है कि मनुष्य के लिए ही इस संसार की उत्पत्ति हुई है। वे भी कहते हैं कि उसी के लिए ईसा मसीह पृथ्वी पर आए और सूली पर चढ़े। मनुष्य पृथ्वी पर ईश्वर का कारिन्दा है। यदि मनुष्य असफल होता है तो सब कुछ असफल हो जाता है।
भारत में पारसी धर्म का पदार्पण बहुत पहले हो चुका था। संभवत: इस वजह से भी उसके दर्शन का हिंदू धर्म से एक साम्य नजर आता है। पारसी धर्म मानता है कि ज्ञानी पुरुष (ईश्वर) ने मनुष्य को अपने जैसा ही बनाया। शरीर में बंद मनुष्य का मस्तिष्क दिव्यता से मिला है। इसलिए मनुष्य को केवल अच्छाई पर चलना चाहिए और जो कुछ भी बुरा है उससे दूर रहना चाहिए।
कन्फ्युशियस का कोई धर्म नहीं था, वे एक दार्शनिक विचारक थे। लेकिन वे कहते थे कि ईश्वर ने मनुष्य को अच्छा बनाया। उसकी मूल प्रकृति अच्छी है, परन्तु बहुत से लोग इस अच्छाई से दूर हट जाते हैं। मनुष्य की सांसारिकता उसे नीचे की ओर खींच कर ले जाती है और भगवान से दूर कर देती है। इसलिए जो अपने अंदर विद्यमान ईश्वरीय तत्व का अनुसरण करते हैं, वे महान हैं, और जो सांसारिक तत्व का अनुसरण करते हैं, वे निकृष्ट हैं।
कन्फ्युशियस की तरह यहूदी धर्माचार्य भी यही मानते हैं कि अधिकांश व्यक्ति सांसारिक सुखों में लिप्त रहते हैं, इसलिए वे मनुष्य के लिए संभव नैतिक ऊंचाइयों तक नहीं पहुंच पाते। अहंकार महानता का बड़ा शत्रु है और वह क्रोध तथा लालच की ही तरह खतरनाक है।
इस दिव्यता की बात ताओ ने भी की है। ताओ धर्म कहता है कि मनुष्य मानव और दिव्य प्राणी दोनों है। उसके अंदर की दिव्यता अनन्त और अनमोल है। मनुष्य की मृत्यु हो जाती है, परंतु दिव्यता सदैव रहती है। उसमें अच्छाई ईश्वर से आती है।