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Author Topic: जीवन के लिये श्री सांई के उपदेश  (Read 135111 times)

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Offline Ramesh Ramnani

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    • Sai Baba
जय सांई राम।।।

जिन्होंने हमे जन्म दिया हमसे उन्हें कभी ग़म नही मिलना चाहिए
उनकी खुशी के लिए हमे नामुमकिन को भी मुमकिन बना देना चाहिए
माँ बाप से छीन कर खुशियाँ हासिल की तो बेकार हैं खुशियाँ
उन्हें दर्द में देखकर भी दिल न रोया तो बेकार है बेताबियाँ
जो अपने माँ बाप का नही वो किसी और का कैसे होगा
उन्हें खुश रखना ही ज़िंदगी में है सबसे बड़ी कामयाबियाँ
माँ बाप के क़दमों में जन्नत है माँ बाप से शुरू हर मन्नत है
ज़िन्दगी में सच्चा कामयाब वो ही है जिसके दिल में हमेशा उनकी इज़्ज़त है।

अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

Offline Ramesh Ramnani

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जय सांई राम।।।


जो भी सहजता से जीता है, जिसका कोई आदर्श नहीं है, जो अपने स्वभाव से जीता है-किसी घारणा के अनुसार नही; जो किसी तरह का आचरण नही बनाता, अपने अंतस से जीता है्-उसके जीवन में पाखंड नही होता


अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

ॐ सांई राम।।।
अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

Offline saiguru

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Re:baba ka chuna huva marag
« Reply #47 on: September 03, 2009, 01:05:43 PM »
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  • :)  :)jaisairamsree saibaba ka jivan  me teen mahan  tatva he.samnvay,sarvabhuti,samta,ekata.koi bhi  dharm ke ho vo manav he. saibaba  pas koi bhi gaya ho ,baba ni kabhi bedbhav nahi rakha. hindu ho,muslim ho,parsi ho, crichyan ho, sabhi ka kalyan baba karta. sree baba avtari tha.jivan me samnvya kese sadhna,sab me sukhi kese hona,sab ko sukhi kese karna ye bat baba ne batai.baba ni sikhaman kesi majboot thi,aur uajjval thi.baba kon sa dharm ka tha ye bat kisi ko batai na thikisi ko unki koi jankari nahi thi.isavar ke darbar me sabhi log ek saman he ye bat batai, sab ka malik ek he. saibaba tumhari jay jay kar ho. jaisairam

    Offline Sai Meera

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    साईं इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय
    युधिष्ठिर लाल कक्क
    ड़

    संतोष, अपरिग्रह के मार्ग का एक प्रमुख सोपान है। जिसकी आवश्यकता जितनी कम है, वह उतना ही सुखी है। अत: जो मनुष्य सुखी जीवन की कामना रखता हो, उसे धीरे-धीरे अपनी आवश्यकताएं कम करनी चाहिए। तुलसी ने इसी के बारे में लिखा है -यथालाभ संतोष सुख। वास्तविक धन तो संतोष ही है। इसके सामने बाकी सब धन तुच्छ है। जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान।

    नीति शास्त्र में कहा गया है कि दरिद्र वह होता है जिसकी तृष्णा बड़ी होती है। मन के संतुष्ट हो जाने पर कौन धनवान और कौन दरिद्र। भोगों के भोग में तो चित व्यग्र ही रहता है। पतंजलि योगदर्शन में कहा है कि यदि अप्रतिम सुख पाना हो तो संतोष की वृत्ति को धारण करना चाहिए।

    समस्या यह है कि हर व्यक्ति की लालसा होती है कि उसका जीवन स्तर ऊंचा हो। सादा जीवन उच्च विचार का आदर्श उलट गया है। भौतिक उन्नति को प्रतिष्ठा का मानदंड मान लिया गया है। यह भी मान लिया गया है कि इतनी सुविधाएं तो होनी ही चाहिए। सुशीलता और पांडित्य आदि जैसे सभी गुण धन के आश्रय में चले गए हैं।

    यदि व्याकुलता सिर्फ इस बात की होती कि जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए तो कोई समस्या नहीं थी। यह एक स्वस्थ्य चिंतन है। पशु-पक्षी भी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं, तो मनुष्य जैसा बुद्विमान प्राणी क्यों नहीं करेगा। किंतु 'स्टैंडर्ड ऑफ लिविंग' की धारणा ने प्राथमिक आवश्यकताओं को गौण कर दिया तथा अनावश्यक वस्तुओं के प्रति आकर्षण पैदा किया। उपभोक्तावाद को जो हवा आज मिल रही है, उसके मूल में अधिक उत्पादन है और फिर उसका आकर्षक विज्ञापन- ये ऐसी बातें हैं जो लोगों की 'महापरिग्रही मनोवृत्ति' को उभार रही है।

    भोगवाद की दृष्टि में धन साध्य है। अपरिग्रह की दृष्टि से धन साधन है। जब धन साध्य बन जाता है, तब साधन-शुद्धि पर बल नहीं रहता है। तब येन-केन-प्रकारेण धनार्जन हीं लक्ष्य हो जाता है। इसी से अनेक समस्याएं जन्म लेती हैं।

    धन के बिना जीवन निर्वाह न पहले संभव था और न अब है, इसीजिए अर्थ को पुरुषार्थ बताया गया है। किंतु उसकी प्राप्ति सन्मार्ग से होनी चाहिए। अधर्म से अर्जित धन चाहे कितना ही रम्य लगे, किंतु वह है विष से भरे हुए स्वर्ण के घड़े जैसा- विषरस भरा कनक घट जैसे। धन को जब साघ्य या जीवन का ध्येय मान लिया जाता है- तब सारा चिंतन धन के ही निमित्त होता है और धन के सिवाय दूसरी कोई वस्तु अच्छी लगती ही नहीं।

    धन ही जिनका ध्येय है, वे इस जगत को धन संग्रह के साधन के रूप में देखते हैं। कामुक पुरूष जगत को स्त्री प्राप्ति के साधन के रूप में तथा ज्ञानी पुरुष जगत को नारायण प्राप्ति के साधन के रूप में देखता है।

    जो धन, अपने अर्जन के समय दुख देता है, जो विपत्ति यानी युद्ध क्रांति, बाढ़ और अग्नि आदि के प्रकोप के समय संतप्त करता है और समृद्वि के समय व्यक्ति को मूर्छित करता है, उसको सुखदायी और जीवन का साघ्य कैसे माना जा सकता है? अत: धन का सेवन केवल जीवन निर्वाह हेतु साधन के रूप में ही होना चाहिए।

    योगवासिष्ठ में जीवन निर्वाह का तरीका बताया गया है। उसके अनुसार आहार (शरीर निर्वाह) के लिए शुभ कर्म करने चाहिए। प्राण धारण (जीवन रक्षा) के लिए आहार करना चाहिए (जीने के लिए खाना, न कि खाने के लिए जीना), तत्वज्ञान के लिए जीवन रक्षा करनी चाहिए और पुन: जीवन -मरण रूपी दुख न हो, इसके लिए तत्व ज्ञान करना चाहिए।

    जैन दर्शन में परिग्रह का कारण आसक्ति को बताया गया है। आसक्ति ही परिग्रह है। जब तक आसक्ति है, कितना ही धन संचय हो जाए, पर मानसिक गरीबी नहीं जाती। किंतु अपरिग्रही वृत्ति वाले व्यक्ति के पास कितना ही अभाव क्यों न हो, वह कभी दुखी नहीं होता। अपरिग्रही होने का अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य के पास अर्थ-परार्थ नहीं हो। यदि ऐसा होता तो भिखारी सबसे बड़े अपरिग्रही होते। अपरिग्रह वस्तुत: एक मनोदशा है। यह मनोदशा जैसे-जैसे विकसित होगी, वैसे-वैसे समस्याओं का भी समाधान होता जाएगा। इसीलिए कहा है-

    साईं इतना दीजिए जामे जामे कुटुंब समाय।
    मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाय।।

    मैं साईं की मीरा और साईं मेरे घनश्याम है, किसी जनम मोहे दूर न कीजो सुन मेरे घनश्याम तू

    Offline Sai Meera

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    जीवन का रहस्य

    यह घटना उस समय की है जब मानव का जन्म नहीं हुआ था। विधाता जब सूनी पृथ्वी को देखता तो उसे कुछ न कुछ कमी नजर आती और वह इस कमी की पूर्ति के लिए दिन-रात सोच में पड़ा रहता। आखिर विधाता ने चंद्रमा की मुस्कान, गुलाब की सुगंध, अमृत की माधुरी, जल की शीतलता, अग्नि की तपिश, पृथ्वी की कठोरता से मिट्टी का एक पुतला बनाकर उसमें प्राण फूंक दिए।

    मिट्टी के पुतले में प्राण का संचार होते ही सब ओर चहचहाट व रौनक हो गई और घरौंदे महकने लगे। देवदूतों ने विधाता की इस अद्भुत रचना को देखा तो आश्चर्यचकित रह गए और विधाता से बोले, ‘यह क्या है?’ विधाता ने कहा, ‘यह जीवन की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव है। अब इसी से जीवन चलेगा और वक्त आगे बढ़ेगा।’ विधाता की बात पूरी भी न हो पाई थी कि एक देवदूत बीच में ही बोल पड़ा, ‘क्षमा कीजिए प्रभु। लेकिन यह बात हमारी समझ से परे है कि आपने इतनी मेहनत कर एक मिट्टी को आकार दे दिया। उसमें प्राण फूंक दिए। मिट्टी तो तुच्छ से तुच्छ है, जड़ से भी जड़ है। मिट्टी की बजाय अगर आप सोने अथवा चांदी के आकार में यह सब करते तो ज्यादा अच्छा रहता।’

    देवदूत की बात पर विधाता मुस्करा कर बोले, ‘यही तो जीवन का रहस्य है। मिट्टी के शरीर में मैंने संसार का सारा सुख-सौंदर्य, सारा वैभव उड़ेल दिया है। जड़ में आनंद का चैतन्य फूंक दिया है। इसका जैसे चाहे उपयोग करो। जो मानव मिट्टी के इस शरीर को महत्व देगा वह मिट्टी की जड़ता भोगेगा; जो इससे ऊपर उठेगा, उसे आनंद के परत-दर-परत मिलेंगे। लेकिन ये सब मिट्टी के घरौंदे की तरह क्षणिक हैं। इसलिए जीवन का प्रत्येक क्षण मूल्यवान है। तुम मिट्टी के अवगुणों को देखते हो उसके गुणों को नहीं। मिट्टी में ही अंकुर फूटते हैं और मेहनत से फसल लहलहाती है। सोने अथवा चांदी में कभी भी अंकुर नहीं फूट सकते। इसलिए मैंने मिट्टी के शरीर को कर्मक्षेत्र बनाया है।’

    संकलन: रेनू सैनी
    नवभारत टाइम्स में प्रकाशित
    मैं साईं की मीरा और साईं मेरे घनश्याम है, किसी जनम मोहे दूर न कीजो सुन मेरे घनश्याम तू

     


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