साईं इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय
युधिष्ठिर लाल कक्कड़
संतोष, अपरिग्रह के मार्ग का एक प्रमुख सोपान है। जिसकी आवश्यकता जितनी कम है, वह उतना ही सुखी है। अत: जो मनुष्य सुखी जीवन की कामना रखता हो, उसे धीरे-धीरे अपनी आवश्यकताएं कम करनी चाहिए। तुलसी ने इसी के बारे में लिखा है -यथालाभ संतोष सुख। वास्तविक धन तो संतोष ही है। इसके सामने बाकी सब धन तुच्छ है। जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान।
नीति शास्त्र में कहा गया है कि दरिद्र वह होता है जिसकी तृष्णा बड़ी होती है। मन के संतुष्ट हो जाने पर कौन धनवान और कौन दरिद्र। भोगों के भोग में तो चित व्यग्र ही रहता है। पतंजलि योगदर्शन में कहा है कि यदि अप्रतिम सुख पाना हो तो संतोष की वृत्ति को धारण करना चाहिए।
समस्या यह है कि हर व्यक्ति की लालसा होती है कि उसका जीवन स्तर ऊंचा हो। सादा जीवन उच्च विचार का आदर्श उलट गया है। भौतिक उन्नति को प्रतिष्ठा का मानदंड मान लिया गया है। यह भी मान लिया गया है कि इतनी सुविधाएं तो होनी ही चाहिए। सुशीलता और पांडित्य आदि जैसे सभी गुण धन के आश्रय में चले गए हैं।
यदि व्याकुलता सिर्फ इस बात की होती कि जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए तो कोई समस्या नहीं थी। यह एक स्वस्थ्य चिंतन है। पशु-पक्षी भी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं, तो मनुष्य जैसा बुद्विमान प्राणी क्यों नहीं करेगा। किंतु 'स्टैंडर्ड ऑफ लिविंग' की धारणा ने प्राथमिक आवश्यकताओं को गौण कर दिया तथा अनावश्यक वस्तुओं के प्रति आकर्षण पैदा किया। उपभोक्तावाद को जो हवा आज मिल रही है, उसके मूल में अधिक उत्पादन है और फिर उसका आकर्षक विज्ञापन- ये ऐसी बातें हैं जो लोगों की 'महापरिग्रही मनोवृत्ति' को उभार रही है।
भोगवाद की दृष्टि में धन साध्य है। अपरिग्रह की दृष्टि से धन साधन है। जब धन साध्य बन जाता है, तब साधन-शुद्धि पर बल नहीं रहता है। तब येन-केन-प्रकारेण धनार्जन हीं लक्ष्य हो जाता है। इसी से अनेक समस्याएं जन्म लेती हैं।
धन के बिना जीवन निर्वाह न पहले संभव था और न अब है, इसीजिए अर्थ को पुरुषार्थ बताया गया है। किंतु उसकी प्राप्ति सन्मार्ग से होनी चाहिए। अधर्म से अर्जित धन चाहे कितना ही रम्य लगे, किंतु वह है विष से भरे हुए स्वर्ण के घड़े जैसा- विषरस भरा कनक घट जैसे। धन को जब साघ्य या जीवन का ध्येय मान लिया जाता है- तब सारा चिंतन धन के ही निमित्त होता है और धन के सिवाय दूसरी कोई वस्तु अच्छी लगती ही नहीं।
धन ही जिनका ध्येय है, वे इस जगत को धन संग्रह के साधन के रूप में देखते हैं। कामुक पुरूष जगत को स्त्री प्राप्ति के साधन के रूप में तथा ज्ञानी पुरुष जगत को नारायण प्राप्ति के साधन के रूप में देखता है।
जो धन, अपने अर्जन के समय दुख देता है, जो विपत्ति यानी युद्ध क्रांति, बाढ़ और अग्नि आदि के प्रकोप के समय संतप्त करता है और समृद्वि के समय व्यक्ति को मूर्छित करता है, उसको सुखदायी और जीवन का साघ्य कैसे माना जा सकता है? अत: धन का सेवन केवल जीवन निर्वाह हेतु साधन के रूप में ही होना चाहिए।
योगवासिष्ठ में जीवन निर्वाह का तरीका बताया गया है। उसके अनुसार आहार (शरीर निर्वाह) के लिए शुभ कर्म करने चाहिए। प्राण धारण (जीवन रक्षा) के लिए आहार करना चाहिए (जीने के लिए खाना, न कि खाने के लिए जीना), तत्वज्ञान के लिए जीवन रक्षा करनी चाहिए और पुन: जीवन -मरण रूपी दुख न हो, इसके लिए तत्व ज्ञान करना चाहिए।
जैन दर्शन में परिग्रह का कारण आसक्ति को बताया गया है। आसक्ति ही परिग्रह है। जब तक आसक्ति है, कितना ही धन संचय हो जाए, पर मानसिक गरीबी नहीं जाती। किंतु अपरिग्रही वृत्ति वाले व्यक्ति के पास कितना ही अभाव क्यों न हो, वह कभी दुखी नहीं होता। अपरिग्रही होने का अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य के पास अर्थ-परार्थ नहीं हो। यदि ऐसा होता तो भिखारी सबसे बड़े अपरिग्रही होते। अपरिग्रह वस्तुत: एक मनोदशा है। यह मनोदशा जैसे-जैसे विकसित होगी, वैसे-वैसे समस्याओं का भी समाधान होता जाएगा। इसीलिए कहा है-
साईं इतना दीजिए जामे जामे कुटुंब समाय।
मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाय।।