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जय सांई राम़।।।
जीवन के लिये श्री सांई के उपदेश
"शिर्डी परम भाग्यशालिनी है, जहां एक अमूल्य हीरा है। जिन्हें तुम इस प्रकार परिश्रम करते हुए देख रहे हो, वे कोई सामान्य पुरुष नहीं हैं। अपितु, यह भूमि बहुत भाग्यशालिनी तथा महान् पुण्यभूमि है, इसी कारण इसे यह रत्न प्राप्त हुआ है।
केवल गत जन्मों के अनेक शुभ संस्कार एकत्रित होने पर ही ऐसा दर्शन प्राप्त होना सुलभ हो सकता है। यदि आप श्री सांई बाबा को एक दृष्टि भर कर देख लेंगे, तो आपको सम्पूर्ण विश्व ही सांईमय दिखलाई पड़ेगा।
यदि श्री सांई बाबा के उपदेशों का, जो कि वैदिक शिक्षा के समान ही मनोरंजक और शिक्षाप्रद है, ध्यानपूर्वक श्रवण एंव मनन किया जाऐ, तो भक्तों को अपने मनोवांछित फल की प्राप्ति हो जाएगीः
आज से मै जीवन के लिये श्री सांई के उपदेश श्रंखला नाम से यह टापिक पेश कर रहा हूँ!
अपने भक्तों के कल्याण का सदैव ध्यान रखने वाले सांई कहते हैः
"जो प्रेमपूर्वक मेरा नामस्मरण करेगा, मैं उसकी समस्त इच्छायें पूर्ण कर दूंगा। उसकी भक्ति मे उतरोत्तर वृद्धि होगी। जो मेरे चरित्र और कृत्यों का श्रध्दापूर्वक गायन करेगा, उसकी मै हर प्रकार से सदैव सहायता करूंगा"
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम़।।।
"मेरे भक्तों को घर, अन्न तथा वस्त्रों का कभी अभाव नही होगा। यह मेरा बेशिष्टय है कि जो भक्त मेरी शरण आ जाते है और अंतकरण से मेरे उपासक है, उनके कल्याणार्थ मै सदैव चिंतित रहता हूँ"
कृष्ण भगवान ने भी गीता में यही समझाया है। इसलिये भोजन तथा वस्त्र के लिये अधिक चिन्ता न करो। यदि कुछ मांगने की अभिलाषा है, तो ईश्वर को ही मांगो। सांसारिक मान व उपाघियों के बदले ईश्वर कृपा तथा अभयदान प्राप्त करो। सदैव मेरे स्मरण में मन को लगाये रखो, तांकि वह देह, सम्पति व ऐश्वर्य की ओर प्रवृत न हो। तब चित स्थिर, शान्त व निर्भय हो जाएगा।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम़।।।
"कर्म पथ अति रहस्यपूर्ण है। यद्यपि मै कुछ भी नही करता, फिर भी लोग मुझे ही कर्मों के लिये दोषी ठहराते है। मैं तो एक दर्शक मात्र ही हूं। केवल ईश्वर ही एक सताधारी और प्रेरणा देने वाले है। वे ही परम दयालु है। मै न तो ईश्वर हूं और न मालिक, केवल उनका एक आज्ञाकारी सेवक ही हूं और सदैव उनका स्मरण किया करता हूं। जो निरभिमान होकर, अपने को कृतज्ञ समझ कर उन पर पूर्ण विश्वास करेगा, उसके कष्ट दूर हो जाएंगे और उसे मुक्ति की प्राप्ति होगी"
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम़।।।
जो मेरा स्मरण करता है, उसका मुझे सदैव ही ध्यान रहता है। मुझे यात्रा के लिए कोई भी साधन - गाड़ी, तांगा या विमान की आवश्यकता नही है। मुझे तो जो प्रेम से पुकारता है, उसके सम्मुख मैं अविलम्ब ही प्रगट हो जाता हूँ।
"मै अपना वचन पूर्ण करने के लिये अपना सर्वस्व निछावर कर दूंगा। मेरे शब्द कभी असत्य न निकलेंगें। "
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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एक दिन दोपहर की आरती के पश्चात भक्तगण अपने घरों को लौट रहे थे, तब बाबा ने निम्नलिखित अति सुन्दर उपदेश दिया –
तुम चाहे कही भी रहो, जो इच्छा हो, सो करो, परंतु यह सदैव स्मरण रखो कि जो कुछ तुम करते हो, वह सब मुझे ज्ञात है । मैं ही समस्त प्राणियों का प्रभु और घट-घट में व्याप्त हूँ । मेरे ही उदर में समस्त जड़ व चेतन प्राणी समाये हुए है । मैं ही समस्त ब्राहांड़ का नियंत्रणकर्ता व संचालक हूँ । मैं ही उत्पत्ति, व संहारकर्ता हूँ । मेरी भक्ति करने वालों को कोई हानि नहीं पहुँचा सकता । मेरे ध्यान की उपेक्षा करने वाला, माया के पाश में फँस जाता है । समस्त जन्तु, चींटियाँ तथा दृश्यमान, परिवर्तनमान और स्थायी विश्व मेरे ही स्वरुप है ।
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एक दिन दोपहर की आरती के पश्चात भक्तगण अपने घरों को लौट रहे थे, तब बाबा ने निम्नलिखित अति सुन्दर उपदेश दिया –
तुम चाहे कही भी रहो, जो इच्छा हो, सो करो, परंतु यह सदैव स्मरण रखो कि जो कुछ तुम करते हो, वह सब मुझे ज्ञात है । मैं ही समस्त प्राणियों का प्रभु और घट-घट में व्याप्त हूँ । मेरे ही उदर में समस्त जड़ व चेतन प्राणी समाये हुए है । मैं ही समस्त ब्राहांड़ का नियंत्रणकर्ता व संचालक हूँ । मैं ही उत्पत्ति, व संहारकर्ता हूँ । मेरी भक्ति करने वालों को कोई हानि नहीं पहुँचा सकता । मेरे ध्यान की उपेक्षा करने वाला, माया के पाश में फँस जाता है । समस्त जन्तु, चींटियाँ तथा दृश्यमान, परिवर्तनमान और स्थायी विश्व मेरे ही स्वरुप है ।
जय सांई राम़।।।
"जो दूसरों को पीड़ा पहुंचाता है, वह मेरे ह्रदय को दुःख देता है तथा मुझे कष्ट पहुंचाता है। इसके विपरीत जो स्वंय कष्ट सहन करता है, वह मुझे अधिक प्रिय है"
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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What Shri Sai Baba preached was actually quite simple. According to him, real sorrow is the cycle of birth and death and the real happiness is liberation. He suggested:
(a) Accept your lot cheerfully. If you acquire wealth, become humble the way a tree laden with fruit bows down. Money is a necessity but don't get obsessed with it. Yet, don't be a miser, be generous.
(b) Perform your duty conscientiously and with detachment, not regarding yourself as the doer.
(c) Surrender the fruit of action to god so that action does not bind
you. It is ties of indebtedness from previous births, which bring humans and other beings together.
(d) Give rein to the negative states (avariciousness, anger, hatred, pride, etc.) only as much as is essential to go through the karma earmarked for this physical existence.
(e) To steady the mind, idol worship is a way, even though the idol is
not God. If you do puja with devotion and emotion, you can concentrate better.
(f) Herculean effort is necessary for god-realization. There are four elements in sadhana: Discrimination between the eternal and the ephemeral: that Brahman alone is true, the world is not. Next, renouncing all desire about this life or the thereafter. The third is to inculcate these qualities: control of the mind, bearing without anguish the fated pain and sorrow, remaining ensnared by maya, knowing that money, wife, children and relatives are all ephemeral. The fourth is an intense desire for liberation.
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जय सांई राम।।।
"जो मुझे अत्यधिक प्रेम करता है, वह सदैव मेरा दर्शन पाता है उसके लिए मेरे बिना सारा संसार ही सूना है। वह केवल मेरा ही लीलागान करता है। वह सतत् मेरा ही ध्यान करता है और सदैव मेरा ही नाम जपता है। जो पूर्ण रूप से मेरी ही शरण मे आ जाता है और सदा मेरा ही स्मरण करता है, अपने ऊपर उसका यह ऋण मै उसे मुक्ति (आत्मोपलब्धि) प्रदान करके चुका दूंगा। जो मेरा ही चिंतन करता है, और मेरा प्रेम ही जिसकी भूख-प्यास है और जो पहले मुझे अर्पित किये बिना कुछ भी नही खाता, मैं उसके अधीन हूं। जो इस प्रकार मेरी शरण मे आता है, बह मुझसे मिल कर उसी तरह एकाकार हो जाता है, जिस तरह नदियां समुंद्र से मिल कर तदाकार हो जाती है। अतएव महत्ता और अहंकार का सर्वथा परित्याग करके तुम्हें मेरे प्रति, जो तुम्हारे ह्रदय मे आसीन है, पूर्ण रूप से समर्पित हो जाना चाहिए"
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम़।।।
"'तुम कहीं भी रहो, कुछ भी करो पर याद रखो कि तुम जो भी करते हो वह मुझे मालूम है। मैँ प्रत्येक के हृदय में हूँ और सबका आन्तरिक शासक हूँ। चराचर सृष्टि मुझसे ही आच्छादित है। मैं नियामक, नियंत्रक और दृश्य सृष्टि का सूत्रधार हूँ। मैं माता हूँ, समस्त प्राणियों का उद्गम हूँ। मैं सत्व, रज, तम तीनों गुणों का समत्व हूँ, इन्द्रयों तथा बुद्धि का संचालक हूँ और सृष्टि का रचयिता, पालक और संहारक हूँ। जो मुझमें अपना ध्यान केन्द्रित करेगा उसे कोई भी, कुछ भी नुकसान नहीं पहुँचावेगा किन्तु जो मुझे भूलेगा, माया उसे आघात पहुँचावेगी। सभी जीव जन्तु तथा समस्त दृश्यमान सचराचर जगत मेरा ही शरीर और रूप है।' ठीक ऐसी ही घोषणा भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवतगीता के दसवें अध्याय में "विभूति योग" के अन्तर्गत की है।
परब्रह्म के अवतार साईं बाबा की यही स्तुति कर हम कृतार्थ हो जावें कि -
"ब्रह्मा दक्षः कुबेरो यम वरुनमरुद्रह्नि महेन्द्र रुद्राः
शैला जद्यः समुद्रा ग्रहगण मनुजा दैत्य गन्धर्व नागाः।
द्वीपा नक्षत्र तारा रवि वसु मुनयो व्योम भूरश्विनौ च
संलीना यस्य वपुषि स भगवान् पातु यो विश्वरूपः॥"
अर्थात् "जिनके शरीर में ब्रह्मा, दक्ष, कुबेर, यम, वरुण, वायु, अग्नि, चन्द्र, इन्द्र, शिव, पर्वत, नदी, समुद्र, ग्रह, मनुष्य, दैत्य, गन्धर्व, नाग द्वीप, नक्षत्र, तारे, सूर्य, वसु, मुनि, आकाश, पृथ्वी और अश्वनीकुमार आदि सभी लीन हैं, वे विश्वरूप भगवान हमारा कल्याण करे।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम़।।।
"मैं अपने गुरु के पास बारह वर्ष रहा। उन्होंने मेरा पालन पोषण किया। उनके पास भोजन और वस्त्र की कोई कमी नहीं थी। वे प्रेम से परिपूर्ण थे। यही नहीं वे प्रेम के अवतार थे। वे मुझे सबसे अधिक चाहते थे। मेरे गुरु के समान कोई दूसरा गुरु नही होगा। जब भी मैं उनकी ओर देखता था वे ध्यान मग्न ही जान पड़ते थे। उस समय हम दोनों परमानन्द से भर जाते थे। भूख-प्यास भूल कर मैं रात-दिन अपने गुरु को ही अपलक देखता रहता था। उनके बिना मैं बेचैनी का अनुभव करता था। मेरे लिये ध्यान करने के लिये अपने गुरु के सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं था। वे मेरे एकमात्र आश्राय थे। मेरा मन हमेशा ही मेरे गुरु में रमा रहता था। यही 'एक पैसे' की दक्षिणा थी और धीरज रखना 'दूसरे पैसे' की। धीरज और गुरु के प्रति निष्ठा दोनों जुड़वा सन्तानें हैं।
"मेरे गुरु ने मुझसे कभी कोई आशा नहीं की बल्कि सब समय मेरी रक्षा करते रहे। मैं उनके साथ रहता था और कभी कभी उनसे दूर भी चला जाता था। पर मैंने उनके प्रति अपने प्रेम में कभी कमी का अनुभव नहीं किया। इस मस्जिद में बैठ कर मैं सच कह रहा हूँ। मेरे गुरु ने जब मुझे कोई मंत्र या उपदेश नहीं दिया तब मैं तुम्हें कैसे दे सकता हूँ। मुझसे इसकी आशा मत करो। अपने गुरु में विश्वास रखो। मुझे अपने हृदय के नेत्र से देखो, तुम्हें परमार्थ अवश्य मिलेगा।" साईं बाबा की बातें सुन कर राधा बाई देशमुख को पूर्ण रूप से तृप्ति मिली और उसने अपना उपवास तोड़ दिया।
इस घटना से ऐसा जान पड़ता है कि राधा बाई देशमुख की आड़ से अपने गुरु के विषय में संसार को बताना साईं बाबा की एक लीला ही थी। इसके माध्यम से उन्होंने गुरु के प्रति प्रेम, भक्ति, श्रद्धा, विश्वास और निष्ठा रखने का उपदेश दिया है। गुरु, मंत्र दे कर शिष्य को साधना में लगा देते हैं पर साईं बाबा तो सदगुरू थे जिन्होंने अपने प्रति भक्ति रखने वाले लाखों भक्तों को मुक्त किया और आज भी करते हैं।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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कर्म पथ अति रहस्यपूर्ण है । यघपि मैं कुछ भी नहीं करता, फिर भी लोग मुझे ही कर्मों के लिये दोषी ठहराते है । मैं तो एक दर्शक मात्र ही हूँ । केवल ईश्वर ही एक सत्ताधारी और प्रेरणा देने वाले है । वे ही परम दयालु है । मैं न तो ईश्वर हूँ और न मालिक, केवल उनका एक आज्ञाकारी सेवक ही हूँ और सदैव उनका स्मरणकिया करता हूँ । जो निरभिमान होकर अपने को कृतज्ञ समझ कर उन पर पूर्ण विश्वास करेगा, उसके कष्ट दूर हो जायेंगे और उसे मुक्ति की प्राप्ति होगी ।
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जय सांई राम़।।।
"इस विश्व में असंख्य सन्त हैं, परन्तु अपना पिता (गुरू) ही सच्चा पिता (सच्चा गुरू) है। दूसरे चाहे कितने ही मधुर वचन क्यों न कहते हों, परन्तु अपना गुरू-उपदेश कभी नही भूलना चाहिये। संक्षेप मे सार यही है कि शुद्ध ह्रदय से अपने गुरू से प्रेम कर, उनकी शरण जाओ और उन्हें श्रद्धापूर्वक साष्टांग नमस्कार करो। तभी तुम देखोगे कि तुम्हारे सम्मुख भवसागर का अस्तित्व वैसा ही है, जैसा सूर्य के समक्ष अंधेरे का"
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
"मेरे पास आओ, खुद को समर्पित करो, फिर देखो"....'सबको प्यार करो, क्योंकि मैं सब में हूं। अगर तुम पशुओं और सभी मनुष्यों को प्रेम करोगे, तो मुझे पाने में कभी असफल नहीं होगे।' 'एक बार शिरडी की धरती छू लो, हर कष्ट छूट जाएगा।' कितने सरल सूत्र दिये है ना अपने बाबा सांई ने। कितना मुश्किल बना दिया है ना हमनें है ना?
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
"व्यर्थ में किसी से उपदेश प्राप्त करने का प्रयत्न न करो। मुझे ही अपने विचारों तथा कर्मों का मुख्य ध्येय बना लो और तब तुम्हे निस्संदेह ही परमार्थ की प्राप्ति हो जाएगी। मेरी ओर अनन्य भाव से देखो, तो मैं भी तुम्हारी ओर वैसे ही देखूंगा। इस मस्ज़िद में बैठ कर मै सत्य ही बोलूंगा कि किन्ही साधनाओं या शास्त्रों के अध्यन की आवश्याकता नहीं, वरन् केवल गुरू में विश्वास ही पर्याप्त है। पूर्ण विश्वास रखो कि गुरू ही कर्ता है और वह धन्य है, जो गुरू की महानता से परिचित हो, उसे हरि, हर और ब्रह्मा (त्रिमूर्ति) का अवतार समझता है।"
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
"रहम नज़र करो अब मोरे सांई
तुम बिन नही मुझे माँ-बाप-भाई"
अपने गुरू के प्रति शिष्य के मन में विशेष आस्था, श्रद्धा एवम् समर्पण भाव होना चाहिए। फिर आपकी जीवन नैया श्री गुरू भवसागर पार कराते है। पूरी श्रद्धा एवम् समर्पण से हमें श्री गुरू पर सब कुछ छोड़ देना चाहिए। फिर देखिए, बाबा सांई आपके साहिल है, बाबा सांई आपके मांझी। और श्री सांई ही आपकी मंजिल है। फिर कुछ पाने की चाह नही रहेगी।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
मां-बेटे की भक्ति - विशेष लगन
बायजा बाई और उसके बेटे तात्या कोते पाटिल का उल्लेख पहले भी कई बार आ चुका है। दोनों मां-बेटे के मन में साईं बाबा के प्रथम दर्शन करने के साथ ही उनके प्रति अगाध श्रद्धा, अटूट प्रेम और अनन्य भक्ति हो गई थी। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि शिरडी में साईं बाबा के जितने भक्त थे उन सबमें बायजा बाई और उसके बेटे तात्य कोते पाटिल का सर्व प्रथम स्थान था। परिणाम यह हुआ कि साईं बाबा की उन दोनों पर सबसे अधिक कृपा थी। अन्तर्यामी साईं बाबा तो स्वयं भगवान थे और भगवान कभी पक्षपात नहीं करते। उनकी कृपा तो सब पर समान रूप से बरसती है। वर्षा का जल तो समान रूप से बरसता है पर जिसका पात्र जितना बड़ा होता है उसे उतना ही अधिक जल मिलता है। इसमें वर्षा का कोई पक्षपात नहीं। इसी तरह जिसकी जितनी अधिक भक्ति होती है वह प्रभु का उतना ही अधिक कृपा-पात्र हो जाता है।
तात्या कोते हमेशा साईं बाबा के साथ रहता था और बायजा मां प्रतिदिन मस्जिद में जा कर साईं को भोजन कराती थी।
बायजा के परिवार की स्थिति
बायजा बाई और तात्या कोते पाटिल की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। उनके जीविकोपार्जन का कोई विशेष साधन नहीं था। तात्या कोते वन से लकड़ी बटोर कर ले आता और गट्ठा बना कर बेच देता था। बस यही उनकी थोड़ी सी आमदनी थी जिससे वे कठिनाई से जीवन-निर्वाह कर रहे थे। अब साईं बाबा की कृपा से उनकी दशा सुधरती जा रही थी।
उनके जीवन में एक आश्चर्य हो रहा था। जब से साईं बाबा शिरडी आये थे तब से तात्या कोते की लकड़ी का गट्ठा रास्ते में ही बिक जाता था, घर तक लाने की जरूरत ही नहीं पड़ती थे। कोई न कोई ग्राहक अवश्य ही मिल जाता और पूछता, "ओ लकड़ी वाले, लकड़ी कितने की है?" तात्या कहता, "भाई जो मर्जी हो दे दे, साईं तेरा भला करे।" वह ग्राहक एक रुपया दे कर खरीद लेता जब कि लकड़ी चार आने की ही होती थी।
एक दिन तात्या लकड़ी लाने के लिये जंगल में गया। वह लकड़ी इकट्ठी कर ही रहा था कि आकाश में काले काले बादल छा गये और गर्जना होने लगी। तात्या कोते चिन्तित हो गया कि अब क्या होगा! उसने थोड़ी ही लकड़ी इकट्ठी की थी जिसे गट्ठे में बांधा और गाँव की ओर चला। गाँव की सीमा पर पहुचते ही तात्या को आवाज सुनाई दी, "ए लकड़ी वाले।" वह रुक गया। खरीददार की आवाज थी। वह बोला, "लकड़ी चाहिये।" तात्या ने गट्ठर उसकी ओर बढ़ा दिया। उस ग्राहक ने बिना कुछ कहे उसके हाथ पर एक रुपया रख दिया। तात्य के मुँह से आश्चर्य के साथ निकाल गया, "एक रुपया!"
"कम है तो और लो भाई" कह कर ग्राहक ने एक रुपया और उसकी हथेली पर रख दिया। एकदम कम लकड़ी के लिये दो रुपये देने वाला उदार दाता कौन है - यह देखने के लिये तात्या ने आँखें ऊपर कीं तो वहाँ कोई नहीं था - न लकड़ी न ग्राहक। दो रुपये ले कर वह घर आ गया और मां बायजा बाई के हाथ में रुपये दे कर उसे जो कुछ हुआ था वह सब बता दिया।
मां-बेटे की आँखों से आनन्द के आँसू बहने लगे। वह सब कुछ समझ गई और बोली, "बेटा यह सब साईं बाबा की करामात मालूम होती है। साईं तो भगवान के अवतार और अन्तर्यामी हैं।" तात्या बोला, "मुझे भी ऐसा ही लगता है मां। इस बारे में मैं साईं बाबा से जरूर पूछूँगा।" तात्या कोते पाटिल उत्सुकता लिये साईं बाबा के निवास स्थान द्वारका माई मस्जिद की ओर चला। वहाँ पहुँच कर उसने साईं बाबा को दण्डवत प्रणाम किया और इसके पहले कि वह कुछ कहता, अन्तर्यामी सर्वज्ञ साईं बाबा बोल उठे, "तात्या, तुझे तो तेरी मेहनत की कमाई मिलती है। फिर शंका क्यों? तेरे भाग्य में जो कुछ है वही तुझे मिलता है। तू तो मेरा भाई है। बायजा मां मेरे मां है।" कह कर साईं बाबा ने तात्या को अपने हृदय से लगा लिया।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
बायजा बाई का भाग्य
बायजा बाई हमेशा साईं बाबा का ध्यान रखती थी। वह हर दिन मस्जिद में जाती और बाबा को खिलाती थी। समय के साथ वह शिथिल होती जा रही थी और बीमार भी रहती थी। एक दिन बायजा मां साईं को भोजन करा रही थी। साईं बाबा उससे बोले, "मां, मेरा एक कहना मान लो। कल से तुम खाना ले कर मत आया करो। कमजोर हो गई हो।"
"तो बेटा तुम्हें खिलायेगा कौन?"
"मैं खुद ही तुम्हारे घर पहुँच जाया करूंगा।"
कहने को तो बाबा ने कह दिया लेकिन वे तो थे अनतर्यामी। उन्हें मालूम था कि बायजा मां का अन्त एकदम निकट ही है। दूसरे दिन ही एकदम सबेरे तात्या मस्जिद में रोता हुआ आया लेकिन यह देख कर उसका दिल धक्- सा रह गया कि बाबा समाधिस्थ थे। उनका चेहरे लाल-सुर्ख किन्तु चित्त शान्त था। बाबा ने धीरे धीरे आँखें खोलीं। उनके नेत्र लाल और चेहरा भयंकर था।
"बाबा तुम्हें क्या हो गया है?" रोना भूल कर तात्या ने पूछा। साईं बाबा का चेहरा शान्त हो गया। वे बोले, "तात्या, तुम मेरे भाई हो और हमेशा रहोगे। मैंने बायजा मां को वचन दिया है।"
परन्तु बाबा, मां तो तुम्हें याद करते करते मर गई।" कहते कहते तात्या सिसकने लगा।
"मुझे सब मालूम है भाई। धीरज रखो।" कह कर बाबा उठे और तात्या के साथ उसके घर चले। घर पहुँच कर "मां" कहते हुये बायजा मां के चरणों में श्रद्धा अर्पित की और उसके निकट बैठ कर समाधिस्थ हो गये। कुछ क्षणों में एकाएक बायजा बाई के शव में कम्पन हुआ। शरीर चैतन्य हुआ और जीवित हो कर उसने आँखें खोल दीं और साईं बाबा तथा तात्या को आँखें भर कर देखती हुई बोली, "बेटा साईं, बेटा तात्या, मेरे पास आवो।" दोनों उसके निकट आ गये वह कहने लगी, "बेटा साईं, मेरा अन्त समय आ गया है। तात्या का ध्यान रखना।"
"तू फिकर मत कर मां, मेरे जीते जी तात्या को कुछ नहीं होगा" कह कर साईं बाबा ने अपना दाहिना हाथ हवा में उठाया और देखते देखते बायजा बाई फिर मृत्यु को प्राप्त हो गई।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जो, प्रेमपूर्वक मेरा नामस्मरण करेगा, मैं उसकी समस्त इच्छायें पूर्ण कर दूँगा । उसकी भक्ति में उत्तरोत्तर वृदिृ होगी । जो मेरे चरित्र और कृत्यों का श्रदृापूर्वक गायन करेगा, उसकी मैं हर प्रकार से सदैव सहायता करुँगा । जो भक्तगण हृदय और प्राणों से मुझे चाहते है, उन्हें मेरी कथाऐं श्रवण कर स्वभावतः प्रसन्नता होगी । विश्वास रखो कि जो कोई मेरी लीलाओं का कीर्तन करेगा, उसे परमानन्द और चिरसन्तोष की उपलबि्ध हो जायेगी । यह मेरा वैशिष्टय है कि जो कोई अनन्य भाव से मेरी शरण आता है, जो श्रदृापूर्वक मेरा पूजन, निरन्तर स्मरण और मेरा ही ध्यान किया करता है, उसको मैं मुक्ति प्रदान कर देता हूँ ।
जो नित्यप्रति मेरा नामस्मरण और पूजन कर मेरी कथाओं और लीलाओं का प्रेमपूर्वक मनन करते है, ऐसे भक्तों में सांसारिक वासनाएँ और अज्ञानरुपी प्रवृत्तियाँ कैसे ठहर सकती है । मैं उन्हें मृत्यु के मुख से बचा लेता हूँ ।
मेरी कथाऐं श्रवण करने से मूक्ति हो जायेगी । अतः मेरी कथाओं श्रदृापूर्वक सुनो, मनन करो । सुख और सन्तोष-प्राप्ति का सरल मार्ग ही यही है । इससे श्रोताओं के चित्त को शांति प्राप्त होगी और जब ध्यान प्रगाढ़ और विश्वास दृढ़ हो जायगा, तब अखोड चैतन्यघन से अभिन्नता प्राप्त हो जाएगी । केवल साई साई के उच्चारणमात्र से ही उनके समस्त पाप नष्ट हो जाएगें ।
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True Service is Service done with a Pure Loving Heart and can be to
anything anyone be it Man Animal or even plant. It is a selfless
service which is done without expecting any reward in turn. There
should not be any ego while doing the service. If there is any
element of ego while doing the service, even the person receiving the seva will not be comfortable. The opportunities for doing the service, the financial position we are in, the job we have are all given by Sai.
By doing ego less service we are trying to give it back to Sai. We must try to see Sai in all the living beings and while doing service, think that we are doing service to none other than Sai.
Love All Serve All. Any Action performed with faith in god, to the
benefit of others, without expecting any materialistic reward to
thyself, but only expecting Gods grace, can be called as true Service.
In this service, if thought, word and deed harmonize the service becomes an offering.
To help someone who is in trouble, someone who cannot afford for his wellbeing, to share whatever we have with God by doing so. We should not be unkind to all human beings or should not hurt anybody whether mentally or physically.
True Service Means
S : Selflessness
E : Experience of Divinity
R : Rati i.e Love
V : Vision of Lord in those being served
I : Integrity of Thought, Word & Action
C : Compassion
E : Excitement
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जय सांई राम।।।
धूनी और भभूत या ऊदी
साईं बाबा अपने निवास स्थान द्वारकामाई मस्जिद में हमेशा धूनी जलाया करते थे। वह धूनी दिन-रात जलती रहती थी। साधु-सन्तों में से कुछ धूनी जलाते हैं किन्तु साईं बाबा के द्वारा जलाई गई धूनी अद्भुत और दिव्य थी। शिरडी में वही धूनी निरन्तर और अनवरत रूप से जलायी जा रही है। धूनी जलाना, अग्नि में हवन करना अग्निहोत्री ब्राह्मण का कर्तव्य और कर्म है। साईं बाबा के द्वारा प्रज्वलित धूनी से यह स्पष्ट और प्रमाणित है कि वे अवश्य ही अग्निहोत्री ब्राह्मण थे।
साईं बाबा दक्षिणा लेते थे। दक्षिणा से जो मिलता था उसका बहुत बड़ा हिस्सा दान में दे देते थे। दक्षिणा के पैसे से ही वे लकड़ी खरीदते थे जिसको धूनी में जलाते थे। लकड़ी जल जाने के बाद धूनी में भभूत या ऊदी रह जाती थी। धूनी की वह भभूत बहुत लाभदायक होती थी। वह भभूत लोगों के शारीरिक कष्ट और मानसिक बीमारियों को दूर कर देती थी। साईं बाबा के दर्शन करने के लिये कई भक्त आते थे। जब कोई भक्त साईं बाबा से विदा ले कर जाने लगता था तब बाबा उसे प्रसाद के रूप में भभूत देते थे। किसी भक्त के माथे पर वे भभूत लगा कर उसके सिर पर अपने वरद हस्त रख कर आशीर्वाद देते थे। साईं बाबा कभी प्रसन्न मन से अत्यन्त मधुर स्वर में गाते थे। उनके गीत की प्रथम पंक्ति होती थी - "रमते राम आओ जी आओ जी, उदिया की गोनिया लाओ जी।" भभूत से कई भयानक बीमारियाँ ठीक हो जाती थीं। आज भी उनकी धूनी की भभूत बीमारों को स्वस्थ कर देती है।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
मेरे बाबा सांई आज अवकाश पर है इसलिये मन्दिर की घंटी न बजाइये,
जो बैठा है बूढा अकेला पार्क में, हो सके तो साथ समय उसके बिताइये ,
मेरे बाबा सांई है पीड़ित परिवार के साथ, जो अस्पताल में परेशान है,
उस पीड़ित परिवार की मदद कर आइये,
जो मर गया हो किसी के परिवार में कोई,
उस परिवार को सांत्वना दे आइये,
एक चौराहे पर खड़ा युवक काम की तलाश में,
उसे रोजगार के अवसर दिलाइये,
मेरे बाबा सांई आज अवकाश पर है इसलिये आज मन्दिर की घंटी न बजाइये ,
मेरे बाबा सांई है चाय कि दुकान पर उस अनाथ बच्चे के साथ,
जो कप प्लेट धो रहा है, पाल सकते हैं, पढ़ा सकते हैं, तो पढाइये,
एक बूढी औरत है जो दर - दर भटक रही है,
एक अच्छा सा लिबास दिलाइये,
हो सके तो नारी आश्रम छोड़ आईये,
मेरे बाबा सांई आज अवकाश पर है,
इसलिये आज मन्दिर की घंटी न बजाइये।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
सन्त भगवान के अवतार होते हैं। उन्हें संसार की किसी भी वस्तु में तिल भर भी मोह नहीं रहता। यहाँ तक कि वे अपने शरीर से भी अलग रहते हैं। उनके शरीर तो "निज इच्छा निर्मित तनु" होते हैं। वे स्वेच्छा से शरीर धारण करते और बिना कष्ट के उसे त्याग देते हैं। साईं बाबा ने भी यही किया था।
महा समाधि लेने के दो वर्ष पूर्व सन् 1916 ई. में दशहरे (सीमोल्लंघन) के दिन साईं बाबा अपने भक्तों से धिरे हुये मस्जिद में बैठे थे। शाम का समय था। अचानक साईं बाबा को सीमा-रहित क्रोध आ गया। उन्होंने अपने सिर का कपड़ा, कफनी, लंगोट आदि को उतार कर अपने शरीर से अलग कर दिया और पूरी तरह से निर्वस्त्र हो कर सबके सामने धूनी के साने क्रोध में विकराल बने खड़े रहे। यह देख कर वहाँ उपस्थित सभी लोग डर से थर थर काँपने लगे। साईं बाबा ने अपने शरीर से निकाले हुये अपने सभी कपड़ों को जलती हुई धूनी में डाल दिया। जब कपड़े जलने लगे तब धूनी की आग की लपटें बहुत तेज और प्रकाशपूर्ण हो गई। उनकी आँखें लाल हो गईं और वे क्रोध में चिल्लाये, "तुम लोग गौर से देखो कि मैं हिन्दू हूँ कि मुसलमान।"
वहाँ उपस्थित भक्त लोग काँप रहे थे। बाबा के समीप जाने का साहस किसी में नहीं था। कुछ समय बाद साईं बाबा का कुष्ठ रोगी भक्त भागो जी शिन्दे हिम्मत करे बाबा के नजदीक गया और उनकी कमर में एक लंगोट बांधने में सफल हो गया और बोला, "बाबा यह सब क्या है? आज दशहरा का त्यौहार है।" अपने सटके (लकड़ी) से जमीन को पीटते हुये बाबा ने कहा, "यह मेरा सीमोल्लंघन का दिन है।" इस तरह साईं बाबा ने दो साल पहले अपने 'सीमोल्लंघन' अथवा दशहरे के दिन अपने महासमाधि की पूर्वसूचना दे दी थी पर किसी ने नहीं समझा और ध्यान नहीं दिया।
साईं बाबा का क्रोध शान्त हो ही नहीं रहा था। कम से कम ग्यारह बजे रात तक बाबा शान्त नहीं हुये और लोगों को सन्देह होने लगा कि आज बाबा की चावड़ी यात्रा का जुलूस निकलेगा या नहीं। एक घण्टे के बाद साईं बाबा की स्थिति शान्त और सामान्य हो गई और वे चावड़ी जाने के लिये कपड़े पहन कर तैयार हो गये।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
एक दिन शाम के समय जब साईं बाबा तात्या के साथ बैठे थे तब वहाँ लक्ष्मी बाई आई और बाबा को प्रणाम किया। साईं बाबा ने उससे कहा, "लक्ष्मी, मैं बहुत भूखा हूँ।" लक्ष्मी बोली, "बाबा थोड़ा ठहरिये, मैं अभी आपके लिये रोटी ले कर वापस आती हूँ।" वह कुछ ही देर में साईं बाबा के लिये रोटी और सब्जी बना कर लाई और साईं बाबा के सामने रख दिया। बाबा ने रोटी और सब्जी को उठाया और एक कुत्ते को दे दिया। तब लक्ष्मी ने पूछा, "यह क्या है बाबा? मैं जल्दी से दौड़ कर रसोई घर में गई और आपके लिये रोटी-सब्जी बना कर लाई। आपने एक कौर भी नहीं खाया और सब एक कुत्ते को दे दिया।" साईं बाबा ने उत्तर दिया, "तुम व्यर्थ में क्यों दुःखी हो रही हो। कुत्ते की क्षुधा शान्त होना ही मेरी ही भूख की तृप्ति होना है। कुत्ता भले ही दूसरा प्राणी दिखता हो पर उसमें भी तो आत्मा है। भूख तो सबको समान रूप में लगती है। जिसके पास वाणी है वह बता सकता है पर जिसके पस वाक् शक्ति नहीं है वह चुप रह जाता है। निश्चित रूप से याद रखौ कि जो भूखे को भोजन देता है वह यथार्थ में उस भोजन से मेरी ही सेवा करता है। इसे स्वयं सिद्ध जानो। स्वयं न खा कर भूखे कुत्ते को रोटी-सब्जी दे देना तो तुच्छ बात है। इसके लिये तुम दुःखी क्यों होती हो?"
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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ॐ सांई राम~~~
बाबा कहना था कि चातुर्य त्याग कर सदैव साई साई यही स्मरण करो । इस प्रकार आचरण करने से समस्त बन्धन छूट जायेंगे और तुम्हें मुक्ति प्राप्त हो जायेगी ।
जय सांई राम~~~
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ॐ सांई राम~~~
बाब शिरड़ी में 60 वर्षों तक रहे और इस दीर्घ काल में उन्होंने आटा पीसने का कार्य प्रायः प्रतिदिन ही किया । पीसने का अभिप्राय गेहूँ से नहीं, वरन् अपने भक्तों के पापो, दुर्भागयों, मानसिक तथा शाशीरिक तापों से था ।उनकी चक्की के दो पाटों में ऊपर का पाट भक्ति तथा नीचे का कर्म था । चक्की का मुठिया जिससे कि वे पीसते थे, वह था ज्ञान । बाबा का दृढ़ विश्वास था कि जब तक मनुष्य के हृदय से प्रवृत्तियाँ, आसक्ति, घृणा तथा अहंकार नष्ट नहीं हो जाते, जिनका नष्ट होना अत्यन्त दुष्कर है, तब तक ज्ञान तथा आत्मानुभूति संभव नहीं हैं ।
जय सांई राम~~~
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ॐ सांई राम~~~
बाबा के अमूल्य वचन सर्वसाधारण भक्तों के लिये है और यदि उन्हें ध्यान में रखकर आचरण में लाया गया तो सदैव ही कल्याण होगा । जब तक किसी से कोई पूर्व नाता या सम्बन्ध न हो, तब तक कोई किसी के समीप नहीं जाता । यदि कोई मनुष्य या प्राणी तुम्हारे समीप आये तो उसे असभ्यता से न ठुकराओ । उसका स्वागत कर आदरपूर्वक बर्ताव करो । यदि तृषित को जल, क्षुधा-पीड़ित को भोजन, नंगे को वस्त्र और आगन्तुक को अपना दालान विश्राम करने को दोगे तो भगवान श्री हरि तुमसे निस्सन्देह प्रसन्न होंगे । यदि कोई तुमसे द्रव्य-याचना करे और तुम्हारी इच्छा देने की न हो तो न दो, परन्तु उसके साथ कुत्ते के समान ही व्यवहार न करो । तुम्हारी कोई कितनी ही निंदा क्यों न करे, फिर भी कटु उत्तर देकर तुम उस पर क्रोध न करो । यदि इस प्रकार ऐसे प्रसंगों से सदैव बचते रहे तो यह निश्चित ही है कि तुम सुखी रहोगे । संसार चाहे उलट-पलट हो जाये, परन्तु तुम्हें स्थिर रहना चाहिये । सदा अपने स्थान पर दृढ़ रहकर गतिमान दरृरश्य को शान्तिपूर्वक देखो । एक को दूसरे से अलग रखने वाली भेद (द्घैत) की दीवार नष्ट कर दो, जिससे अपना मिलन-पथ सुगम हो जाये । द्घैत भाव (अर्थात मैं और तू) ही भेद-वृति है, जो शिष्य को अपने गुरु से पृथक कर देती है । इसलिये जब तक इसका नाश न हो जाये, तब तक अभिन्नता प्राप्त करना सम्भव नही हैं । अल्लाह मालिक अर्थात ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है और उसके सिवा अन्य कोई संरक्षणकर्ता नहीं है । उनकी कार्यप्रणाली अलौकिक, अनमोन और कल्पना से परे है । उनकी इच्छा से ही सब कार्य होते है । वे ही मार्ग-प्रददर्शन कर सभी इच्छाएँ पूर्ण करते है । ऋणानुबन्ध के कारण ही हमारा संगम होता है, इसलनये हमें परस्पर प्रेम कर एक दूसरे की सेवा कर सदैव सन्तुष्ट रहना चाहिये । जिसने अपने जीवन का ध्येय (ईश्वर दर्शन) पा लिया है, वही धन्य औ सुखी है । दूसरे तो केवल कहने को ही जब तक प्राण है, तब तक जीवित हैं ।
जय सांई राम~~~
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ॐ सांई राम~~~
उपवास और श्रीमती गोखले~~~
बाबा ने स्वयं कभी उपवास नहीं किया, न ही उन्होंने दूसरों को करने दिया । उपवास करने वालों का मन कभी शांत नहीं रहता, तब उन्हें परमार्थ की प्राप्ति कैसे संभव है । प्रथम आत्मा की तृप्ति होना आवश्यक है भूखे रहकर ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती । यदि पेट में कुछ अन्न की शीतलता न हो तो हम कौनसी आँख से ईश्वर को देखेंगे, किस जिहा से उनकी महानता का वर्णन करेंगे और किन कानों से उनका श्रवण करेंगे । सारांश यह कि जब सम्त इंद्रियों को यथेष्ठ भोजन व शांति मिलती है तथा जब वे बलिष्ठ रहती है, तब ही हम भक्ति और ईश्वर-प्राप्ति की अन्य साधनाएँ कर सकते है, इसलिये न तो हमें उपवास करना चाहिये और न ही अधिक भोजन । भोजन में संयम रखना शरीर और मन दोनों के लिये उत्तम है ।
श्री मती काशीबाई काननिटकर (श्रीसाईबाबा की एक भक्त) से परिचयपत्र लेकर श्रीमती गोखले, दादा केलकर के समीप शिरडी को आई । वे यह दृढ़ निश्चय कर के आई थीं कि बाबा के श्री चरणों में बैठकर तीन दिन उपवास करुँगी । उनके शिरडी पहुँचने के एक दिन पूर्व ही बाबा ने दादा केलकर से कहा कि मैं शिमगा (होली) के दिनों में अपने बच्चों को भूखा नहीं देख सकता है । यदि उन्हें भूखे रहना पड़ा तो मेरे यहाँ वर्तमान होने का लाभ ही क्या है । दूसरे दिन जब वह महिला दादा केलकर के साथ मसजिद में जाकर बाबा के चरण-कमलों के समीप बैठी तो तुरंत बाबा ने कहा, उपवास की आवश्यकता ही क्या है । दादा भट के घर जाकर पूरनपोली तैयार करो । अपने बच्चों को खिलाओ और स्वयं खाओ । वे होली के दिन थे और इस समय श्रीमती केलकर मासिक धर्म से थी। दादा भट के घर में रसोई बनाने कि लिये कोई न था और इसलिये बाबा की युक्ति बड़ी सामयिक थी । श्री मती गोखले ने दादा भट के घर जाकर भोजन तैयार किया और दूसरों को भोजन कराकर स्वयं भी खाया । कितनी सुंदर कथा है और कितनी सुन्दर उसकी शिक्षा ।
जय सांई राम~~~
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ॐ सांई राम~~~
बाबा के विचार~~
एक भक्त मुक्ताराम कहने लगा कि चलो, अच्छा ही हुआ, जो एक जीव बेचारा बच गया । श्री. हेमाडपंत ने उसकी अवहेलना कर कहा कि साँप को मारना ही उचित है । इस कारण इस विषय पर वादविवाद होने लगा । एक का मत था कि साँप तथा उसके सदृश जन्तुओं को मार डालना ही उचित है, किन्तु दूसरे का इसके विपरीत मत था । रात्रि अधिक हो जाने के कारण किसी निष्कर्ष पर पहुँचे बिना ही ही उन्हें विवाद स्थगित करना पड़ा । दूसरे दिन यह प्रश्न बाबा के समक्ष लाया गया । तब बाबा निर्णयात्मक वचन बोले कि सब जीवों में और सम्स्त प्राणियों में ईश्वर का निवास है, चाहे वह साँप हो या बिच्छू । वे ही इस विश्व के नियंत्रणकर्ता है और सब प्राणी साँप, बिच्छू इत्यादि उनकी आज्ञा का ही पालन किया करते है । उनकी इच्छा के बिना कोई भी दूसरों को नहीं पहुँचा सकता । समस्त विश्व उनके अधीन है तथा स्वतंत्र कोई भी नहीं है । इसलिये हमें सब प्राणियों से दया और स्नेह करना चाहिए । संघर्ष एवं बैमनस्य या संहार करना छोड़कर शान्त चित्त से जरीवन व्यतीत करना चाहिए । ईश्वर सबका ही रक्षक है ।
जय सांई राम~~~
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जय सांई राम।।।
जैसा बोओगे बैसा ही काटोगे
मैं कभी मूक नहीं होता,
उपेक्षा नहीं करता किसी की,
तुम्हारी वाणी में बोलता रहता हूँ,
जब कोई मुझे पुकारता है प्रेम से,
मैं दौड़ा आता हूँ,
जब भी कभी कोई द्रोपदी या गजराज पुकारेंगे,
मैं आऊँगा।
जो तुम्हें मिलता है इस संसार में,
वह फल है तुम्हारे कर्मों का,
पिछले जन्मों में किए थे तुमने जो,
जैसा बोया है बैसा ही काट पाओगे,
यह नियम है,
जिसे तुम क्या,
मैं भी नहीं तोड़ सकता.
झांको अपने अन्दर प्रेम और विश्वास से,
मैं नजर आऊँगा तुम्हें,
मैं तुम में हूँ, तुम मुझसे हो,
जब अलग महसूस करते हो ख़ुद को,
तभी आस्था डगमगाती है तुम्हारी,
आ जाओ मेरी शरण में जैसे अर्जुन आया था,
मैं तुम्हें भय और दुःख से मुक्त कर दूँगा.
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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एक दिन दोपहर की आरती के पश्चात भक्तगण अपने घरों को लौट रहे थे, तब बाबा ने निम्नलिखित अति सुन्दर उपदेश दिया –
तुम चाहे कही भी रहो, जो इच्छा हो, सो करो, परंतु यह सदैव स्मरण रखो कि जो कुछ तुम करते हो, वह सब मुझे ज्ञात है । मैं ही समस्त प्राणियों का प्रभु और घट-घट में व्याप्त हूँ । मेरे ही उदर में समस्त जड़ व चेतन प्राणी समाये हुए है । मैं ही समस्त ब्राहांड़ का नियंत्रणकर्ता व संचालक हूँ । मैं ही उत्पत्ति, व संहारकर्ता हूँ । मेरी भक्ति करने वालों को कोई हानि नहीं पहुँचा सकता । मेरे ध्यान की उपेक्षा करने वाला, माया के पाश में फँस जाता है । समस्त जन्तु, चींटियाँ तथा दृश्यमान, परिवर्तनमान और स्थायी विश्व मेरे ही स्वरुप है ।
जय सांई राम़।।।
"जो दूसरों को पीड़ा पहुंचाता है, वह मेरे ह्रदय को दुःख देता है तथा मुझे कष्ट पहुंचाता है। इसके विपरीत जो स्वंय कष्ट सहन करता है, वह मुझे अधिक प्रिय है"
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
baba hamari dasha kab sudharegi??.baba mujhe aapne sab kuchh diya hai mujhe man ki shanti do baba
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ॐ सांई राम~~~
बम्बई के पास बान्द्रा में एक तेंडुलकर कुटुम्ब रहता था, जो बाबा का पूरा भक्त था |उनका ज्येष्ठ पुत्र बाबू डाँक्टरी परीक्षा में बैठने के लिये अनवरत अभ्यास कर रहा था । उसने कई ज्योतिषियों को अपनी जन्म-कुंडली दिखाई, परन्तु सभी ने बतलाया कि इस वर्ष उसके ग्रह उत्तम नहीं है किन्तु अग्रिम वर्ष परीक्षा में बैठने से उसे अवश्य सफलता प्राप्त होगी । इससे उसे बड़ी निराशा हुई और वह अशांत हो गया । थोड़े दिनों के पश्चात् उसकी माँ शिरडी गई और उसने वहाँ बाबा के दर्शन किये । अन्य बातों के साथ उसने अपने पुत्र की निराशा तथा अशान्ति की बात भी बाबा से कही । उनके पुत्र को कुछ दिनों के पश्चात् ही परीक्षा में बैठना था । बाबा कहने लगे कि अपने पुत्र से कहो कि मुझ पर विश्वास रखे । सब भविष्यकथन तथा ज्योतिषियों द्घारा बनाई कुंडलियों को एक कोने में फेंक दे और अपना अभ्यास-क्रम चालू रख शान्तचित्त से परीक्षा में बैठे । वह अवश्य ही इस वर्ष उत्तीर्ण हो जायेगा । उससे कहना कि निराश होने की कोई बात नहीं है । माँ ने घर आकर बाब का सन्देश पुत्र को सुना दिया । उसने घोर परिश्रम किया और परीक्षा में बैठ गया । सब परचों के जवाब बहुत अच्छे लिखे थे । परन्तु फिर भी संशयग्रस्त होकर उसने सोचा कि सम्भव है कि उत्तीर्ण होने योग्य अंक मुझे प्राप्त न हो सकें । इसीलिये उसने मौखिक परीक्षा में बैठने का विचार त्याग दिया । परीक्षक तो उसके पीछे ही लगा था । उसने एक विघार्थी द्घारा सूचना भेजी कि उसे लिखित परीक्षा में तो उत्तीर्ण होने लायक अंक प्राप्त है । अब उसे मौखिक परीक्षा में अवश्य ही बैठना चाहिये । इस प्रकार प्रोत्साहन पाकर वह उसमें भी बैठ गया तथा दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो गया । उस वर्ष उसकी ग्रह-दशा विपरीत होते हुए भी बाबा की कृपा से उसने सफलता पायी । यहाँ केवल इतनी ही बात ध्यान देने योग्य है कि कष्ट और संशय की उत्पत्ति अन्त में दृढ़ विश्वास में परिणत हो जाती है । जैसी भी हो, परीक्षा तो होती ही है, परन्तु यदि हम बाबा पर दरृढ़ विश्वास और श्रद्घा रखकर प्रयत्न करते रहे तो हमें सफलता अवश्य ही मिलेगी ।
जय सांई राम~~~
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जय सांई राम़।।।
जीवन से अंधकार हटाना व्यर्थ है, क्योंकि अंधकार हटाया नहीं जा सकता। जो जानते हैं, वे अंधकार को नहीं हटाते, वरन् प्रकाश को जलाते हैं।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
मैं मिट्टी के कण-कण में हूँ,
मैं जीवन के क्षण-क्षण में हूँ!
झांके हैं नभ से तारे जो,
उन तारों की टिम-टिम में हूँ!
मैं ही तो हवाओं का वेग हूँ,
मैं ही तो घटाओं का मेघ हूँ!
अहसास करो तुम खुद में ही,
मैं तो हर इक के मन में हूँ!
क्यों फिरता है दर-दर पर तू?
मुझको पाने की चाहत में?
क्यों जलता है पल-पल में तू?
मैं तेरी हर हलचल में हूँ!
कर पलभर तो तू याद मुझे,
ना रहने दूंगा उदास तुझे!
आऊंगा जब पुकारोगे मुझे,
में जन-जन की सुमिरन में हूँ!
मैं मिट्टी के कण-कण में हूँ,
मैं जीवन के क्षण-क्षण में हूँ...
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
"मैं खुशी हूँ तुम्हारी.....एक बार फिर आ गई हूँ"
"तुम्हारे आँगन में
रोज आता हूँ मैं
....कभी प्रातः की स्वर्णिम धूप बनकर
....कभी बारिश की मुस्कुराती बूंदे बनकर
....कभी अदृश्य बयार में समाया
मधुर सुवास बनकर
....कभी रमणीय निशा में
चाँद की चांदनी बनकर
....और भी
न जाने कितने रूपों में
रहता हूँ तुम्हारे आस-पास
हमेशा....
....कितने करीब हूँ मैं तुम्हारे
....लेकिन....!
तुम्हारी नजरें
जाने क्या-क्या ढूंढती रहती है
दिन-रात
मुझे नजर अंदाज करके
....शायद....
तुम नहीं जानते
....और ना पहचान पाते हो मैं कौन हूँ...?
"मैं बाबा के रूप में खुशी हूँ "
तुम्हारे अंतरमन की खुशी....."
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
संसार को जोड़ने की चीज है - त्याग, संसार को तोड़ने की चीज है - स्वार्थ, अपना अपना स्वार्थ लेकर चलोगे सम्बन्ध टूटेंगे, जीवन बिखरेगा, एक दूसरे के प्रति त्याग करके देखीऐ प्यार बढेगा, सम्बन्ध सुधरेंगे
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
शब्दों से नहीं कर्म से जाने जाओगे...
बोल कर नहीं कर के दिखाओगे...
तब मैं मानूगा कि तुम मेरे उपदेश सुनते ही
नही बल्कि अमल में भी लाते हो।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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mujhe kuch samajh me nahi aata ko mujhe ye batye ki main kya karu
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he mere sai, aapke charno main mera pranam
baba mere aur dolly ke upper jo mushibat aayee hai, ushe jaldi door kar do, taaki hum dono ek dushre ke saath kush rahe sake, mere baba dolly ki saari bimari door kardo aur ushe mere jaisa banado, aur samajhdaar kar do, taaki wo bhi duniya ki har khushi jee sake,
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जय सांई राम।।।
प्रेम अपने में न बंधन है, न मुक्ति है। प्रेम तो ऐसा समझो कि राह के बीच मे पड़ा हुआ एक पत्थर है। चाहो तो इसकी वजह से रुक जाओ, और चाहो तो इस पर चढ़ जाओ, इसकी सीढ़ी बना लो। प्रेम को सीढ़ी बनाओगे तो "मुझ" तक पंहुच जाओगे।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
इस जगत में इससे बड़ी और कोई सौभाग्य की घड़ी नही है जब तुम किसी आदमी की अंधेरी ज़िंदगी में दीया जलाने में सफल हो जाओ। तुम्हारे हाथ से अगर किसी की ज़िन्दगी में एक फूल भी खिल जाए तो इससे बड़ी और कोई धन्य घड़ी नही है।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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मनुष्य को हमेशा अच्छा और गुणी का प्रयास करना चाहिए। केवल जब कोई मनुष्य अच्छे विचारों और भावनाओं से भर जायेगा और अच्छे कर्म करेगा तब उसका जीवन सार्थक हो जाएगा। आपको हमेशा ऐसे गतिविधि में अपने आप को व्यस्त रखना चाहिए जिससे आपके समय और कौशल का उपयोग करके सर्वोत्तम लाभ लिया जा सकता हो। यही आपका कर्तव्य है , और कर्तव्य ही भगवान। हर मनुष्य को इस बात को समझना होगा कि शरीर उसे दूसरों की सेवा करने के लिए दिया गया है। आपको अपने शरीर का उपयोग समाज के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए करना चाहिए। ऐसा मन जो दुसरो को आनंद प्रदान करने में नहीं होता और ऐसा शरीर जो दूसरों की सेवा में इस्तेमाल नहीं होता है, पूरी तरह से व्यर्थ है। सभी से प्रेम और सेवा द्वारा ही भगवन से प्रेम किया जा सकता है। ~ बाबा
विश्व भर के सभी मनुष्य ईश्वर के ओर तीर्थयात्रा के रूप में बढ़ रहे हैं। प्रत्येक व्यक्ति की प्रगति उनके द्वारा अपनाई गई अनुशासन
, चरित्र निर्माण, आदर्श के प्रति ध्यान, चुने गए नेतृत्व तथा मन में बढे विश्वास पर निर्भर करता है। जिस प्रकार अलग अलग जगह के पेड़ और पौधे, पक्षियों और जानवरों में अंतर होता है, उसी प्रकार एक समुदाय से दुसरे समुदाय में रीती रिवाज, प्रथा, आदर्श, अनुशासन अलग हो सकते है, जो उस क्षेत्र के लिए और उसके विकास के स्तर के लिए अच्छा होता है। आप किसी को एक समुदाय से दुसरे समुदाय में बदल नहीं सकते हैं। आप जिस माहौल में बड़े हुए हैं वही आपके लिए सबसे अनुकूल है।
~ बाबा
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he sainath tumhari jay jay kar ho,sradha,saburi dedo hame sad bhudhi dedo.sairam
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जय सांई राम।।।
ध्यान रहे, धृणा और प्रेम एक साथ भीतर नही हो सकते। और जब तक धृणा है तब तक प्रेम नही। फिर चाहे धृणा को तुम कोई भी रंग दो, कोई भी रूप दो। और जब प्रेम आता है तो यूँ आता है जैसे प्रकाश आता है। प्रकाश के आगमन पर अंधेरा नही रह सकता।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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OM SAI NATHAYA NAMAH...
SAI BABA KEHTE HAIN KI MAIN KAN KAN MEIN BASTA HOON..TUM JAHA B HO JAISE B HO...MAIN TUMHARE SATH SADEV HE REHTA HOON..MUJHE KISI B VASTU KA LALACH NAHI ..MAIN TOH BAS SHRDA AUR PREM KA HE BHOOKHA HOON...JO BAKHT MUJHE PREM AUR SACHE VISHWAS SE EK NAMASKAR KARTA HAIN..MAIN SADEV KE LIYE USSI KA HO JATA HOON...WOH KAHI B RAHE ..KITNI B DOOR RAHE..JAB B WOH MUJHE SACHE MANN SE YAAD KAREGA ,MAIN USKE SAMEEP DOUDA DOUDA CHALA AAOGA..MERE LIYE SAB EK JAISE..KOI GAREEB YA AMEER NAHI...BADA YA CHHOTA NAHI...SAB EK SAMAAN HAIN......MAIN USS KE ADDEN HO JATA HOON JO MUJHE SACHE MANN SE YAAD KARTA HAIN...
AISE BAKHT VATSAL SHRI SAI DADA KO HUM KAISE BHOOL SAKTE HAIN..JO BAS EK SADARAN SA NAMASKAAR KARNE PAR HAMARE SATH HO LETE HAIN...HUM KAHI B RAHE KITNA B DOOR RAHE....JAB B UNKO PUKARTE HAIN WOH DOUDE DOUDE AATE HAIN..KYA HUMEIN AISE KARUNA AVTAAR BABA JI KO BHOOL NA CHAHIIYE...AGAR HUM KITNE B JANAM LE .. TAB B BABA JI KA YEH RINN NAHI CHUKA SAKTE.....AISE SAI BABA KO HAMARA LAKH LAKH PRANAAM......
HUM YAHI VINTI KARTE HAIN BABA JI SE KI WOH HUMEIN KABHI APNE SHRI KAMAL CHARNO SE DOOR NA KARE...JO KABHI HUM GALTI SE BATAK JAYE..HUEMIN SAHI RAH PE LE AAYE..AUR SADEV HE HAMARE SATH RAHE...HUM SAB BABA JI KE KAHE HUE RASTE PE CHALTE RAHE AUR SADEV UNKA HE SAMARAN KARTE RAHE..HAMARE JEVEN KI YEH YATRA SHRI SAI BABA JI KE NAAM SE CHALTI RAHE AUR AANT KAAL MEIN B HUM UNKA NAAM LE KE HE ISS DEH KO UNKE CHARNI MEIN SAMARPIT KAR DE...........
BABA JI HUM SAB PE APNE AASHIRWAD KA HATH RAKHE SADA HE RAKHE....HUM HAMEHSA UNKE SHRI CHARAN KAMLO KA DIYAAN KARTE RAHE.....
OM SAI NATHAYA NAMAH....
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he sainath tumhari jay jay kar ho,sradha,saburi dedo hame sad bhudhi dedo.sairam
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जय सांई राम।।।
जिन्होंने हमे जन्म दिया हमसे उन्हें कभी ग़म नही मिलना चाहिए
उनकी खुशी के लिए हमे नामुमकिन को भी मुमकिन बना देना चाहिए
माँ बाप से छीन कर खुशियाँ हासिल की तो बेकार हैं खुशियाँ
उन्हें दर्द में देखकर भी दिल न रोया तो बेकार है बेताबियाँ
जो अपने माँ बाप का नही वो किसी और का कैसे होगा
उन्हें खुश रखना ही ज़िंदगी में है सबसे बड़ी कामयाबियाँ
माँ बाप के क़दमों में जन्नत है माँ बाप से शुरू हर मन्नत है
ज़िन्दगी में सच्चा कामयाब वो ही है जिसके दिल में हमेशा उनकी इज़्ज़त है।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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जय सांई राम।।।
जो भी सहजता से जीता है, जिसका कोई आदर्श नहीं है, जो अपने स्वभाव से जीता है-किसी घारणा के अनुसार नही; जो किसी तरह का आचरण नही बनाता, अपने अंतस से जीता है्-उसके जीवन में पाखंड नही होता
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।
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:) :)jaisairamsree saibaba ka jivan me teen mahan tatva he.samnvay,sarvabhuti,samta,ekata.koi bhi dharm ke ho vo manav he. saibaba pas koi bhi gaya ho ,baba ni kabhi bedbhav nahi rakha. hindu ho,muslim ho,parsi ho, crichyan ho, sabhi ka kalyan baba karta. sree baba avtari tha.jivan me samnvya kese sadhna,sab me sukhi kese hona,sab ko sukhi kese karna ye bat baba ne batai.baba ni sikhaman kesi majboot thi,aur uajjval thi.baba kon sa dharm ka tha ye bat kisi ko batai na thikisi ko unki koi jankari nahi thi.isavar ke darbar me sabhi log ek saman he ye bat batai, sab ka malik ek he. saibaba tumhari jay jay kar ho. jaisairam
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साईं इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय
युधिष्ठिर लाल कक्कड़
संतोष, अपरिग्रह के मार्ग का एक प्रमुख सोपान है। जिसकी आवश्यकता जितनी कम है, वह उतना ही सुखी है। अत: जो मनुष्य सुखी जीवन की कामना रखता हो, उसे धीरे-धीरे अपनी आवश्यकताएं कम करनी चाहिए। तुलसी ने इसी के बारे में लिखा है -यथालाभ संतोष सुख। वास्तविक धन तो संतोष ही है। इसके सामने बाकी सब धन तुच्छ है। जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान।
नीति शास्त्र में कहा गया है कि दरिद्र वह होता है जिसकी तृष्णा बड़ी होती है। मन के संतुष्ट हो जाने पर कौन धनवान और कौन दरिद्र। भोगों के भोग में तो चित व्यग्र ही रहता है। पतंजलि योगदर्शन में कहा है कि यदि अप्रतिम सुख पाना हो तो संतोष की वृत्ति को धारण करना चाहिए।
समस्या यह है कि हर व्यक्ति की लालसा होती है कि उसका जीवन स्तर ऊंचा हो। सादा जीवन उच्च विचार का आदर्श उलट गया है। भौतिक उन्नति को प्रतिष्ठा का मानदंड मान लिया गया है। यह भी मान लिया गया है कि इतनी सुविधाएं तो होनी ही चाहिए। सुशीलता और पांडित्य आदि जैसे सभी गुण धन के आश्रय में चले गए हैं।
यदि व्याकुलता सिर्फ इस बात की होती कि जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए तो कोई समस्या नहीं थी। यह एक स्वस्थ्य चिंतन है। पशु-पक्षी भी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं, तो मनुष्य जैसा बुद्विमान प्राणी क्यों नहीं करेगा। किंतु 'स्टैंडर्ड ऑफ लिविंग' की धारणा ने प्राथमिक आवश्यकताओं को गौण कर दिया तथा अनावश्यक वस्तुओं के प्रति आकर्षण पैदा किया। उपभोक्तावाद को जो हवा आज मिल रही है, उसके मूल में अधिक उत्पादन है और फिर उसका आकर्षक विज्ञापन- ये ऐसी बातें हैं जो लोगों की 'महापरिग्रही मनोवृत्ति' को उभार रही है।
भोगवाद की दृष्टि में धन साध्य है। अपरिग्रह की दृष्टि से धन साधन है। जब धन साध्य बन जाता है, तब साधन-शुद्धि पर बल नहीं रहता है। तब येन-केन-प्रकारेण धनार्जन हीं लक्ष्य हो जाता है। इसी से अनेक समस्याएं जन्म लेती हैं।
धन के बिना जीवन निर्वाह न पहले संभव था और न अब है, इसीजिए अर्थ को पुरुषार्थ बताया गया है। किंतु उसकी प्राप्ति सन्मार्ग से होनी चाहिए। अधर्म से अर्जित धन चाहे कितना ही रम्य लगे, किंतु वह है विष से भरे हुए स्वर्ण के घड़े जैसा- विषरस भरा कनक घट जैसे। धन को जब साघ्य या जीवन का ध्येय मान लिया जाता है- तब सारा चिंतन धन के ही निमित्त होता है और धन के सिवाय दूसरी कोई वस्तु अच्छी लगती ही नहीं।
धन ही जिनका ध्येय है, वे इस जगत को धन संग्रह के साधन के रूप में देखते हैं। कामुक पुरूष जगत को स्त्री प्राप्ति के साधन के रूप में तथा ज्ञानी पुरुष जगत को नारायण प्राप्ति के साधन के रूप में देखता है।
जो धन, अपने अर्जन के समय दुख देता है, जो विपत्ति यानी युद्ध क्रांति, बाढ़ और अग्नि आदि के प्रकोप के समय संतप्त करता है और समृद्वि के समय व्यक्ति को मूर्छित करता है, उसको सुखदायी और जीवन का साघ्य कैसे माना जा सकता है? अत: धन का सेवन केवल जीवन निर्वाह हेतु साधन के रूप में ही होना चाहिए।
योगवासिष्ठ में जीवन निर्वाह का तरीका बताया गया है। उसके अनुसार आहार (शरीर निर्वाह) के लिए शुभ कर्म करने चाहिए। प्राण धारण (जीवन रक्षा) के लिए आहार करना चाहिए (जीने के लिए खाना, न कि खाने के लिए जीना), तत्वज्ञान के लिए जीवन रक्षा करनी चाहिए और पुन: जीवन -मरण रूपी दुख न हो, इसके लिए तत्व ज्ञान करना चाहिए।
जैन दर्शन में परिग्रह का कारण आसक्ति को बताया गया है। आसक्ति ही परिग्रह है। जब तक आसक्ति है, कितना ही धन संचय हो जाए, पर मानसिक गरीबी नहीं जाती। किंतु अपरिग्रही वृत्ति वाले व्यक्ति के पास कितना ही अभाव क्यों न हो, वह कभी दुखी नहीं होता। अपरिग्रही होने का अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य के पास अर्थ-परार्थ नहीं हो। यदि ऐसा होता तो भिखारी सबसे बड़े अपरिग्रही होते। अपरिग्रह वस्तुत: एक मनोदशा है। यह मनोदशा जैसे-जैसे विकसित होगी, वैसे-वैसे समस्याओं का भी समाधान होता जाएगा। इसीलिए कहा है-
साईं इतना दीजिए जामे जामे कुटुंब समाय।
मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाय।।
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जीवन का रहस्य
यह घटना उस समय की है जब मानव का जन्म नहीं हुआ था। विधाता जब सूनी पृथ्वी को देखता तो उसे कुछ न कुछ कमी नजर आती और वह इस कमी की पूर्ति के लिए दिन-रात सोच में पड़ा रहता। आखिर विधाता ने चंद्रमा की मुस्कान, गुलाब की सुगंध, अमृत की माधुरी, जल की शीतलता, अग्नि की तपिश, पृथ्वी की कठोरता से मिट्टी का एक पुतला बनाकर उसमें प्राण फूंक दिए।
मिट्टी के पुतले में प्राण का संचार होते ही सब ओर चहचहाट व रौनक हो गई और घरौंदे महकने लगे। देवदूतों ने विधाता की इस अद्भुत रचना को देखा तो आश्चर्यचकित रह गए और विधाता से बोले, ‘यह क्या है?’ विधाता ने कहा, ‘यह जीवन की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव है। अब इसी से जीवन चलेगा और वक्त आगे बढ़ेगा।’ विधाता की बात पूरी भी न हो पाई थी कि एक देवदूत बीच में ही बोल पड़ा, ‘क्षमा कीजिए प्रभु। लेकिन यह बात हमारी समझ से परे है कि आपने इतनी मेहनत कर एक मिट्टी को आकार दे दिया। उसमें प्राण फूंक दिए। मिट्टी तो तुच्छ से तुच्छ है, जड़ से भी जड़ है। मिट्टी की बजाय अगर आप सोने अथवा चांदी के आकार में यह सब करते तो ज्यादा अच्छा रहता।’
देवदूत की बात पर विधाता मुस्करा कर बोले, ‘यही तो जीवन का रहस्य है। मिट्टी के शरीर में मैंने संसार का सारा सुख-सौंदर्य, सारा वैभव उड़ेल दिया है। जड़ में आनंद का चैतन्य फूंक दिया है। इसका जैसे चाहे उपयोग करो। जो मानव मिट्टी के इस शरीर को महत्व देगा वह मिट्टी की जड़ता भोगेगा; जो इससे ऊपर उठेगा, उसे आनंद के परत-दर-परत मिलेंगे। लेकिन ये सब मिट्टी के घरौंदे की तरह क्षणिक हैं। इसलिए जीवन का प्रत्येक क्षण मूल्यवान है। तुम मिट्टी के अवगुणों को देखते हो उसके गुणों को नहीं। मिट्टी में ही अंकुर फूटते हैं और मेहनत से फसल लहलहाती है। सोने अथवा चांदी में कभी भी अंकुर नहीं फूट सकते। इसलिए मैंने मिट्टी के शरीर को कर्मक्षेत्र बनाया है।’
संकलन: रेनू सैनी
नवभारत टाइम्स में प्रकाशित