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Author Topic: साईबाबा के दोहे  (Read 5534 times)

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Offline rajiv uppal

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साईबाबा के दोहे
« on: January 15, 2008, 10:37:48 AM »
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  • अहं से बुरा कोई नहीं


    अहं अग्नि हिरदै जरै, गुरु सों चाहै मान।
    तिनको जम न्योता दिया, हो हमरे मेहमान॥

    जहां आपा तहं आपदा, जहं संसै तहं सोग।
    कहै साई कैसे मिटै, चारों दीरघ रोग॥

    साई गर्व न कीजिए, रंक न हंसिए कोय।
    अजहूं नाव समुद्र में, ना जानौं क्या होय॥

    दीप को झेला पवन है, नर को झोला नारि।
    ज्ञानी झोला गर्व है, कहैं साई पुकारि॥

    अभिमानी कुंजर भये, निज सिर लीन्हा भार।
    जम द्वारे जम कूट ही, लोहा गढ़ै लुहार॥

    तद अभिमान न कीजिए, कहैं साई समुझाय।
    जा सिर अहं जु संचरे, पड़ै चौरासी जाय॥

     
     
    ..तन है तेरा मन है तेरा प्राण हैं तेरे जीवन तेरा,सब हैं तेरे सब है तेरा मैं हूं तेरा तू है मेरा..

    Offline rajiv uppal

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    Re: साईबाबा के दोहे
    « Reply #1 on: January 15, 2008, 10:39:45 AM »
  • Publish
  • मोह भावना साईं के शब्दों में


    मोह फन्द सब फन्दिया, कोय न सकै निवार।
    कोई साधू जन पारखी बिरला तत्व विचार॥

    जब घट मोह समाइया, सबै भया अंधियार।
    निर्मोह ज्ञान विचारी के, साधू उतरे पार॥

    जहंलगि सब संसार है, मिरग सबन को मोह।
    सुर नर नाग पताल अरू, ऋषि मुनिवर सब जोह॥

    सुर नर ऋषि मुनि सब फंसे, मृग त्रिस्ना जग मोह।
    मोह रूप संसार है, गिरे मोह निधि जोह॥

    अष्ट सिद्धि नौ सिद्धि लौ, सबहि मोह की खान।
    त्याग मोह की वासना, कहैं साईं सुजान॥

    अपना तो कोई नहीं, हम काहू के नाहिं।
    पार पहुंची नाव जब, मिलि सब बिछुड़े जाहिं॥

    अपना तो कोई नहीं, देखा ठोकि बजाय।
    अपना-अपना क्या करे, मोह भरम लपटाय॥

    मोह नदी विकराल है, कोई न उतरे पार।
    सतगुरु केवट साथ ले, हंस होय उस न्यार॥

    एक मोह के कारने, भरत धरी दुइ देह।
    ते नर कैसे छूटि हैं, जिनके बहुत सनेह॥
    ..तन है तेरा मन है तेरा प्राण हैं तेरे जीवन तेरा,सब हैं तेरे सब है तेरा मैं हूं तेरा तू है मेरा..

     


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