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Author Topic: दुख के समय भगवान और धर्म क्यों याद आता है  (Read 3072 times)

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Offline Sai Meera

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गीता में कृष्ण कहते हैं- 'चार प्रकार से व्यक्ति मेरी भक्ति करते हैं- आर्त, जिज्ञासु, ज्ञानी और अर्थार्थी। मनुष्य जब
दुखी होता है, तब मेरी भक्ति करता है। जब तक उसे कोई पीड़ा नहीं सताती, वह मुझे कभी याद नहीं करता।

आम्रपाली अपने समय की प्रसिद्ध नर्तकी थी। उसने एक बार बुद्ध से कहा- 'भंते! आप मेरे पास कभी नहीं आते।' बुद्ध बोले- 'अभी जरूरत नहीं है, जिस दिन जरूरत होगी, मैं अवश्य आऊंगा।' वह बूढ़ी हो गई। उसका शारीरिक लावण्य मिट गया। अब उसके पास कोई नहीं आता था। तब बुद्ध पहुंचे और बोले- 'प्रिय! मैं आ गया।' आम्रपाली ने कहा- 'भंते! अब समय बीत गया। अब मुझ में बचा ही क्या है? वह शारीरिक सौंदर्य अब नहीं रहा। आप आज क्यों आए?' बुद्ध ने कहा- 'प्रिये! यही तो समय है आने का। पहले तुझे मेरी आवश्यकता भी नहीं थी। धर्म की आवश्यकता तुझे अब महसूस हो रही है। मैं उसकी पूर्ति करने आया हूं।'

पीड़ा और दुख के समय भगवान और धर्म को याद किया जाता है। जब व्यक्ति महसूस करता है कि उसकी उपेक्षा हो रही है, सब उसको सता रहे हैं, वह बूढ़ा और शिथिल हो गया है, व्याकुलता बढ़ गई है, मन बेचैन है- तब उसे भगवान याद आते हैं, धर्म की बात याद आ जाती है।

पर ज्यादा श्रेयस्कर यह होगा कि व्यक्ति भगवान और धर्म की याद जिज्ञासु होकर, ज्ञानी होकर या अर्थार्थी होकर करे। जिज्ञासु होकर मनुष्य ईश्वर को तब याद करता है, जब उसके मन में यह जिज्ञासा जाग जाती है कि मैं सत्य का साक्षात्कार करूं। मैं यह जानूं कि आत्मा क्या है? चैतन्य क्या है? मोक्ष क्या है? उस जिज्ञासु अवस्था में व्यक्ति की जिज्ञासा की उपासना कर अपने को समाहित करना चाहता है। जिज्ञासा सत्य तक पहुंचाने वाला मार्ग है।

तीसरी अवस्था ज्ञानी की है। यह वह अवस्था है, जिसमें ज्ञानी व्यक्ति परम की उपासना करता है, ईश्वर और सत्य के प्रति समर्पित हो जाता है। ज्ञान की आराधना सत्य की आराधना है। ज्ञानी जान जाता है कि संसार में सार क्या है और निस्सार क्या है। वह जानता है कि सत्य का मार्ग कौन-सा है।

चौथी स्थिति में अर्थार्थी व्यक्ति भगवान की उपासना करता है। जब व्यक्ति के मन में पदार्थ की आकांक्षा उभर जाती है, वह उसकी पूर्ति के लिए भगवान की उपासना करता है, धर्म की आराधना करता है।

ध्यान रहे कि धार्मिकता का एक अर्थ अंत:करण की पवित्रता से है। वह धर्म की रुचि होने मात्र से प्राप्त नहीं होती, बल्कि उसकी साधना से प्राप्त होती है। संसार में साधना करने वाले धार्मिक बहुत कम है। ज्यादातर तो धार्मिक सिद्धि चाहने वाले लोग हैं। वे धर्म को इसलिए नहीं चाहते कि उससे जीवन पवित्र बने, किंतु वे उसे इसलिए चाहते हैं कि उससे भोग मिलें। आज का धर्म भोग से इतना आच्छन्न है कि त्याग और भोग के बीच कोई विभाजक रेखा ही नहीं जान पड़ती। धर्म का क्रांतिकारी रूप तब होता है, जब वह जन-मानस को भोग-त्याग की ओर अग्रसर करे।

आज त्याग भोग के लिए अग्रसर हो रहा है। यह वह कीटाणु है जो धर्म के स्वरूप को विकृत बना डालता है। धर्म तो जीवन की अनिवार्य जरूरत है। जब धर्म की पूर्ति नहीं होगी, तो जीवन में मानसिक संतुलन का अभाव तो अवश्य पैदा होगा। मानसिक संतुलन का अभाव अर्थात शांति का अभाव। शांति का अभाव अर्थात सुखानुभूति का अभाव। पदार्थ सुख के कारण तो जरूर हैं, पर उनसे सुख की अनुभूति नहीं होती। सुख की अनुभूति तो मन और मन से जुड़ी हुई इंद्रियों को होती है। वह तभी होती है, जब मन संतुलित और शांत होता है।

जहां त्याग और भोग की रेखाएं आस-पास आती हैं, धर्म अर्थ से संयुक्त होता है, वहां धर्म अधर्म से अधिक भयंकर बन जाता है। यदि हम चाहते हैं कि धर्म पुन: प्रतिष्ठित हो तो हम उसके विशुद्ध रूप का अध्ययन करें। आज ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जो बुद्धि से प्रताड़ित न हो और शक्ति से हीन न हो।

आचार्य महाप्रज्ञ
मैं साईं की मीरा और साईं मेरे घनश्याम है, किसी जनम मोहे दूर न कीजो सुन मेरे घनश्याम तू

Offline Sai Meera

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बांसुरी वाले की कहानी और जिंदगी के वायदे
संत राजिंदर सिंह जी महाराज

हरेक इंसान की जिंदगी में ऊँच-नीच आता है। हर एक की जिंदगी में कुछ ऐसे मौके आते हैं, जिनमें की तकलीफें बढ़ जाती हैं। महापुरुष हमें समझाते हैं कि हर मौके पर धैर्य रखना है, प्रेम से काम करना है। ध्यान रखना है कि हम अपने छोटे से फायदे के लिए सिद्धांतों को न छोड़ दें।

एक बाँसुरी वाले की रोचक कहानी है। एक शहर में चूहे बहुत हो गए। लोग सड़कों पर जाएँ, तो वहाँ चूहे देखें और घरों में भी चूहे धमाचौकड़ी मचाते दिखें। जिधर देखो, चूहे ही चूहे। वहाँ बीमारी शुरू हो गई। एक दिन शहर के लोग मिल कर मेयर के पास गए और उससे कहा कि आप कुछ करिए। उसने भी अपनी तरफ से बड़ी तरकीबें कीं, पर चूहों की संख्या बढ़ती चली गई।

फिर मेयर ने घोषणा करवाई कि अगर कोई आदमी हमें वह नुस्खा बताए, जिससे चूहे यहाँ से चले जाएँ, तो हम उसे एक हजार फ्लोरेंस देंगे। वहाँ की मुदा का नाम फ्लोरेंस था। ऐलान के अगले ही दिन वहाँ एक आदमी कहीं बाहर से आया। उसने अजीब से कपड़े पहने हुए थे। उसने मेयर से पूछा कि अगर मैं इन चूहों को यहाँ से बाहर ले जाऊँगा, तो घोषणा के अनुसार क्या आप मुझे एक हजार फ्लोरेंस देंगे? मेयर ने कहा, हाँ, अगर सब चूहे चले गए, तो तुझे हजार फ्लोरेंस जरूर दे देंगे।

अगले दिन सुबह, वह आदमी पूरे शहर में घूम-घूम कर बाँसुरी बजाने लगा। उसकी आवाज चूहों को ऐसी लगी, जैसे खाने के डिब्बे खुल रहे हों। तो सारे चूहे उस आवाज के पीछे-पीछे जाने लगे। चलता-चलता वह शहर के बाहर आ गया। बाहर एक नदी बहती थी। बाँसुरी बजाता हुआ वह नदी के अंदर चला गया। तो उसके पीछे-पीछे सारे के सारे चूहे भी नदी के अंदर चले गए और डूब गए।

जब सारे चूहे डूब गए, तो वह वापस शहर आया और अपना मेहनताना माँगा। मेयर ने कहा, तुमने तो कुछ किया ही नहीं, सिर्फ बाँसुरी बजाई है। बाँसुरी बजाने के लिए हजार फ्लोरेंस कौन देता है?

बाँसुरी वाले ने कहा, देखो, अभी मुझे उस शहर में जाना है, वहाँ पर बिल्लियों को हटाना है। उसके बाद एक अन्य शहर में जा कर वहाँ से बिच्छुओं को हटाना है। तो आप जल्दी से मुझे पूरे पैसे दे दीजिए। पर मेयर ने कहा कि ये 50 फ्लोरेंस ले जाओ, तुमने तो खाली बाँसुरी बजाई है, और कुछ किया नहीं। हम तो मजाक में बोल रहे थे कि हजार फ्लोरेंस देंगे। यह सुनकर बाँसुरी वाला बड़ा दुखी हुआ।

अगले दिन उसने फिर से बाँसुरी बजानी शुरू की, किसी अलग तरह से और ऐसी बाँसुरी बजाई कि शहर में जितने भी बच्चे थे, सब खुश हो कर उसके पीछे-पीछे चलने लगे। फिर वह शहर से बाहर निकला और एक पहाड़ की गुफा में चला गया और सारे बच्चे उसके पीछे चले गए और उसके बाद गुफा का दरवाजा बंद हो गया।

इस कहानी से हमें कई चीजें समझने को मिलती हैं। एक तो यह है कि जब हम किसी से कुछ वादा करें, तो वह हमें अवश्य पूरा करना चाहिए, उसे निभाना चाहिए। हम सोचते हैं, हमारा काम हो गया, हम चालाकी कर लेते हैं। पर प्रभु की निगाह में किसी की कोई चालाकी नहीं चलती। हरेक बोल, हरेक कार्य, हरेक सोच का हमें भुगतान करना है। हम लोग काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से घिरे हुए हैं; हमारी आत्मा सिकुड़ती जाती है और हम असलियत को नहीं जान पाते हैं। काल के दायरे में इतने फँस चुके हैं कि उसमें धँसते चले जाते हैं। वे लोग, जो अपनी जिंदगी में सदगुणों को ढालते हैं, वे अपनी मंजिल तक पहुँच जाते हैं।

जैसे बाँसुरी वाले ने बाँसुरी बजाई, ऐसे ही महापुरुष हमारे अंदर शब्द को शुरू कर देते हैं। प्रभु का 'शब्द' हम सबके अंदर चल रहा है, उसे सुन कर ,उसका प्रसाद ग्रहण कर हम आनंदित तो होते हैं, लेकिन उस आनंद को भोगने के लिए किया गया वाद नहीं निभाते।
मैं साईं की मीरा और साईं मेरे घनश्याम है, किसी जनम मोहे दूर न कीजो सुन मेरे घनश्याम तू

Offline Sai Meera

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स्वामी विवेकानंद जी कहते है -
 
 बोध वाक्य "तुम्‍हारे भविष्‍य को निश्चित करने का यही समय है। इस लिये मै कहता हूँ, कि तभी इस भरी जवानी मे, नये जोश के जमाने मे ही काम करों। काम करने का यही समय है इसलिये अभी अपने भाग्‍य का निर्णय कर लो और काम में जुट जाओं क्‍योकिं जो फूल बिल्‍कुल ताजा है, जो हाथों से मसला भी नही गया और जिसे सूँघा ही नहीं गया, वही भगवान के चरणों मे चढ़ाया जाता है, उसे ही भगवान ग्रहण करते हैं। इसलिये आओं ! एक महान ध्‍येय कों अपनाएँ और उसके लिये अपना जीवन समर्पित कर दें "
मैं साईं की मीरा और साईं मेरे घनश्याम है, किसी जनम मोहे दूर न कीजो सुन मेरे घनश्याम तू

 


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