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Sai Literature => सांई बाबा के हिन्दी मै लेख => Topic started by: Osho on December 09, 2009, 03:18:34 AM

Title: ओशो वाणी
Post by: Osho on December 09, 2009, 03:18:34 AM
व्यक्ति, जितना बुद्धिमान होगा, उतना स्वयं के ढंग से जीना चाहेगा। सिर्फ बुद्धिहीन व्यक्ति पर ऊपर से थोपे गए नियम प्रतिक्रिया, रिएक्शन पैदा नहीं करेंगे। तो, दुनिया जितनी बुद्धिहीन थी, उतनी ऊपर से थोपे गए नियमों के खिलाफ बगावत न थी। जब दुनिया बुद्धिमान होती चली जा रही है, बगावत शुरू हो गई है। सब तरफ नियम तोड़े जा रहे हैं। मनुष्य का बढ़ता हुआ विवेक स्वतंत्रता चाहता है।

PRस्वतंत्रता का अर्थ स्वच्‍छंदता नहीं है, लेकिन स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि मैं अपने व्यक्तित्व की स्वतंत्रता पूर्ण निर्णय करने की स्वयं व्यवस्था चाहता हूँ, अपनी व्यवस्था चाहता हूँ। तो अनुशासन की पुरानी सारी परंपरा एकदम आकर गड्‍ढे में खड़ी हो गई है। वह टूटेगी नहीं। उसे आगे नहीं बढ़ाया जा सकता, उसे चलाने की कोशिश नहीं ही करें, क्योंकि जितना हम उसे चलाना चाहेंगे, उतनी ही तीव्रता से मनोप्रेरणा उसे तोड़ने को आतुर हो जाएगी। और उसे तोड़ने की आतुरता बिल्कुल स्वाभाविक, उचित है।

गलत भी नहीं है। तो अब एक नये अनुशासन के विषय में सोचना जरूरी हो गया है, जो व्यक्ति के विवेक के विकास से सहज फलित होता है। एक तो यह नियम है कि दरवाजे से निकलना चाहिए, दीवार से नहीं निकलना चाहिए। यह नियम है। जिस व्यक्ति को यह नियम दिया गया है, उसके विवेक में कहीं भी यह समझ में नहीं आया है कि दीवार से निकलना, सिर तोड़ लेना है। और दरवाजे से निकलने के अतिरिकत कोई मार्ग नहीं है। उसकी समझ में यह बात नहीं आई है। उसके विवेक में यह बात आ जाए तो हमें कहना पड़ेगा कि दरवाजे से निकलो।

वह दरवाजे से निकलेगा। निकलने की यह जो व्यवस्था है उसके भीतर से आएगी, बाहर से नहीं। अब तक शुभ क्या है, अशुभ क्या है, अच्छा क्या है, बुरा क्या है, यह हमने तय कर लिया था, वह हमने सुनिश्चित कर लिया था। उसे मानकर चलना ही सज्जन व्यक्ति का कर्तव्य था। अब यह नहीं हो सकेगा, नहीं हो रहा है, नहीं होना चाहिए।

मैं जो कह रहा हूँ, वह यह है कि एक-एक व्यक्ति के भीतर उतना सोचना, उतना विचार, उतना विवेक जगा सकते हैं। उसे यह दिखाई पड़ सके कि क्या करना ठीक है, और क्या करना गलत है। निश्चित ही अगर विवेक जगेगा, तो करीब-करीब हमारा विवेक एक से उत्तर देगा, लेकिन उन उत्तरों का एक सा होना बाहर से निर्धारित नहीं होगा, भीतर से निर्धारित होगा। प्रत्येक व्यक्ति के विवेक को जगाने की कोशिश की जानी चाहिए और विवेक से जो अनुशासन आएगा, वह शुभ है। फिर सबसे बड़ा फायदा यह है कि विवेक से आए हुए, अनुशासन में व्यक्ति को कभी परतंत्रता नहीं मालूम पड़ती है।

दूसरे के द्वारा लादा गया सिद्धांत परतंत्रता लाता है। और यह भी ध्यान रहे, परतंत्रता के खिलाफ हमारे मन में विद्रोह पैदा होता है। विद्रोह से नियम तोड़े जाते हैं, और अगर व्यक्ति स्वतंत्र हो, अपने ढंग से जीने की कोशिश से अनुशासन आ जाए, तो कभी विद्रोह पैदा नहीं होगा। इस सारी दुनिया में नए बच्चे जो विद्रोह कर रहे हैं, वह उनकी परतंत्रता के खिलाफ है। उन्हें सब ओर से परतंत्रता मालूम पड़ रही है।

मेरी दृष्टि यह है कि अच्छी चीज के साथ परतंत्रता जोड़ना बहुत महँगा काम है। अच्छी चीज के साथ परतंत्रता जोड़ना बहुत खतरनाक बात है। क्योंकि परतंत्रता तोड़ने की आतुरता बढ़ेगी, साथ में अच्‍छी चीज भी टूटेगी। क्योंकि आपने अच्छी चीज के साथ स्वतंत्रता जोड़ी है। अच्छी चीज के साथ स्वतंत्रता हो ही सकती है क्योंकि अच्छी चीज होने के भीतर स्वतंत्रता का स्वप्न ही अनिवार्य है; अन्यथा हम उसके विवेक को जगा सकते हैं। शिक्षा बढ़ी है, संस्कृति बढ़ी है, सभ्यता बढ़ी है, ज्ञान बढ़ा है। आदमी के विवेक को अब जगाया जा सकता है। अब उसका ऊपर से थोपना ‍अनिवार्य नहीं रह गया है।

मेरा कहना यह है कि विवेक विकसित करने की बात है एक-एक चीज के संबंध में। लंबी ‍प्रक्रिया है। किसी को बँधे-बँधाए नियम देना बहुत सरल है कि झूठ मत बोलो, सत्य बोलना धर्म है। पर नियम देने से कुछ होता है? नियम देने से कुछ भी नहीं होता। पुराना अनुशासन गया, आखिरी साँसें गिन रहा है। और पुराने मस्तिष्क उस अनुशासन को जबरदस्ती रोकने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि अगर अनुशासन चला गया, तो क्या होगा? क्योंकि उनका अनुभव यह है कि अनुशासन के रहते भी आदमी अच्छा नहीं था, और अगर अनुशासन चला जाए तो मुश्किल हो जाएगी।

उनका अनुभव यह है कि अनुशासन था, तो भी आदमी अच्छा नहीं था तो अनुशासन नहीं रहेगा, तो आदमी का क्या होगा? उन्हें पता नहीं है कि आदमी के बुरे होने में उनके अनुशासन का नब्बे प्रतिशत हाथ था। गलत अनुशासन था- अज्ञानपूर्ण था, थोपा हुआ था, जबरदस्ती का था।

एक नया अनुशासन पैदा करना पड़ेगा। और वह अनुशासन ऐसा नहीं होगा कि बँधे हुए नियम दे दें। ऐसा होगा‍ कि उसके विवेक को बढ़ाने के मौके दें, और उसके विवेक को बढ़ने दें, और अपने अनुभव बता दें जीवन के, और हट जाएँ रास्ते से बच्चों के। एकदम रास्ते पर खड़े न रहें उनके। सब चीजों में उनके बाँधने की, जंजीरों में कसने की कोशिश न करें। वे जंजीरें तोड़ने को उत्सुक हो गए हैं।

अब जंजीरें बर्दाश्त न करेंगे। अगर भगवान भी जंजीर मालूम पड़ेगा तो टूटेगा, बच नहीं सकता। अब तोड़ने की भी जंजीर बचेगी नहीं, क्योंकि जंजीर के खिलाफ मामला खड़ा हो गया है। अब पूरा जाना होगा, जंजीर बचनी नहीं चाहिए।

लेकिन मनुष्य चेतना के विकास का क्रम है। एक क्रम था जब चेतना इतनी विकसित नहीं थी, नियम थोपे गए थे, सिवाय इसके कोई उपाय नहीं था। अब नियम थोपने की जरूरत नहीं रह गई है। अब नियम बाधा बन गए हैं। अब हमें समझ, अंडरस्टैंडिंग ही बढ़ाने की दिशा में श्रम करना पड़ेगा। तो मैं कहना चाहता हूँ कि समझ, विवेक, एकमात्र अनुशासन है। पूरी प्रक्रिया बिल्कुल अलग होगी। नियम थोपने की प्रक्रिया बिल्कुल अलग थी।, बायोलॉजिकल अपोजिट है, दोनों बिल्कुल विरोधी हैं। खतरे इसमें उठाने पड़ेंगे। खतरे पुरानी प्रक्रिया में भी बहुत उठाए।

सबसे बड़ा खतरा यह उठाया कि आदमी जड़ हो गया। जिसने नियम माना, वह जड़ हो गया, जिसने नियम नहीं माना, वह बर्बाद हो गया। वे दोनों विकल्प बुरे थे। अगर किसी ने पुराना अनुशासन मान लिया तो वह बिल्कुल ईडियाटिक हो गया, जड़ हो गया। उसकी बुद्धि खो गई। और‍ जिसने बुद्धि को बचाने की कोशिश की, उसे नियम तोड़ने पड़े। वह बर्बाद हो गया, वह अपराधी हो गया, वह प्रॉब्लम बन गया, वह समस्या बन गया। दोनों विकास बुरे सिद्ध हुए। जिसने नियम माना वह खराब हुआ; क्योंकि नियम ने उसको जड़ बना दिया। गुलाम बना दिया। और जिसने नियम तोड़ा, वह स्वच्छंद हो गया। नियम से अच्छापन नहीं आया।

साभार : संबोधि के क्षण
सौजन्य : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन
Title: Re: ओशो वाणी - नया भारत, क्रांति शुरू हो गई है: ओशो
Post by: Osho on December 09, 2009, 07:18:56 PM
अतीत के इतिहास में क्रांतियाँ होती थीं और समाप्त हो जाती थीं। लेकिन आज हम सतत क्रांति में जी रहे हैं। अब क्रांति कभी समाप्त नहीं होगी। पहले क्रांति एक घटना थी, अब क्रांति जीवन है। पहले क्रांति शुरू होती थी और समाप्त होती थी। अब क्रांति शुरू हो गयी और समाप्त नहीं होगी। अब आने वाले भविष्य में मनुष्य को सतत क्रांति और परिर्वन में ही रहना होगा। यह एक इतना बड़ा नया तथ्‍य है, जिसे स्वीकार करने में समय लगना स्वाभाविक है।

यदि हम सौ वर्ष पहले की दुनिया को देखें, तो कोई दस हजार वर्ष के लंबे इतिहास में आदमी एक जैसा था, वैसा ही था। समाज के निय वहीं थे, जीवन के मूल्य वहीं थे, नीति और धर्म का आधार वहीं था। दस हजार वर्षों में मनुष्य की जिंदगी के आधारों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इस सदी में आकर सारे आधार हिल गए हैं और सारी भूमि हिल गई है। जैसे एक ज्वालामुखी फूट पड़ा हो मनुष्य ने नीचे अरौ सब परिवर्तन हम समाप्त कर देंगे। यह परिवर्तन जारी रहेगा और रोज ज्यादा होता चला जायेगा।

अब तक हमने जिस मनुष्य को निर्मित किया था वह एक स्थायी, सुस्थिर समाज का नागरिक था। अब जिस मनुष्य को हमें निर्मित करना है, वह सतत क्रांति का नागरिक हो सके, इसका ध्यान रखना जरूरी है। भविष्य के मनुष्य की रूपरेखा, या नए मनुष्य के संबंध में सोचते समय पहली बात यह सोच लेनी जरूरी है कि परिर्वतन के जगत में जहाँ रोज सब बदल जायेगा- हम कैसे नीति विकसित करें, हम कैसा आचरण विकसित करें, मनुष्य को फिर से पुनर्विचार करना जरूरी हो गया है। महावीर ने, बुद्ध ने, मनु ने, कृष्ण ने और क्राइस्ट ने हमें मनुष्य की जो रूपरेखा दी थी, वह रूपरेखा आज आउट-ऑफ-डेट हो गयी है, समय के बाहर हो गयी है। उसी रूपरेखा को अगर लेकर हम चलते हैं तो अब जिंदगी ढंग की नहीं हो सकती।

इसलिए पहली बात जो मैं कहना चाहता हूँ वह यह, कि अब तक के सारे आदर्श और सारे मूल्य जिस भांति जिस ढाँचे में विकसित किये गये थे, वे भविष्य के मनुष्य के काम के नहीं रह गये हैं। अब तक हमनें जिस मनुष्य को बनाने की कोशिश की थी वह भय के ऊपर खड़ा था। नर्क का भय, स्वर्ग का प्रलोभन था। और भय और प्रलोभन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

मनुष्य बुरा न करे, इसलिए नर्क के भय से हमने पीड़ित किया था और मनुष्य अच्छा कर सके, इसलिए स्वर्ग के प्रलोभन दिए थे। लेकिन आज अचानक इस सदी में आकर स्वर्ग और नर्क दोनों ही विलीन हो गये। उनके साथ ही वह नैतिकता भी विलीन हुई जा रही है जो भय और प्रलोभन पर खड़ी थी। आज जो अनैतिकता का सारे जगत में विस्फोट हुआ है, उसका कोई और कारण नहीं है। पुरानी नीति के आधार गिर गये हैं।


NDमैंने सुना है, एक चर्च के स्कूल में एक पादरी बच्चों को नीति की शिक्षा देने आता था। उसने बच्चों को नैतिक साहस के संबंध में छोटी-सी कहानी कहीं, मारल करेज के लिए। उसने बच्चों को समझाने के लिए कहा कि नैतिक साहस मनुष्य के जीवन में बड़ी जरूरी चीज है। वह कहानी बड़ी पुरानी थी।

उसने उन बच्चों से कहा कि मैं तुम्हें एक छोटी-सी-कहानी से समझाऊँ- तीस बच्चे किसी पर्वत पर घूमने के लिए गए। वे दिनभर में थक गये हैं। रात सोने के समय सर्द रात है, ठंड लग रही है, बिस्तर तैयार है। उन्तीस बच्चे सो गये, लेकिन एक बच्चा अपनी रात्रि की अंतिम प्रार्थना करने के लिए अंधेरे कोने में ठंड से सिकुड़ा हुआ बैठा है। तो उस पादरी ने बच्चों को कहा कि वह जो एक है, उसमें बड़ा नैतिक साहस है उन्तीस के विरोध में जाने का। जबकि ठंड बिस्तर में बुला रही हैं और दिनभर की थाकान है। और जब उन्तीस लोग सो गये हैं, तब भी एक बच्चा अपनी रात्रि की अंतिम प्रार्थना पूरा किये बिना नहीं सोता है, उसमें बड़ा नैतिक साहस है।

वह (पादरी) सात दिन बाद वापस आया। उसने बच्चों से पूछा, मैंने नैतिक साहस की तुम्हें कहानी सुनायी थी। मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ, तुम समझ सके मेरी बात? क्या तुम भी मुझे कोई घटना सुनाओगे जो नैतिक साहस को बताती हो? एक बच्चा खड़ा हुआ। यह बच्चा बीसवीं सदी के पहले कभी खड़ा नहीं हो सकता था। एक बच्चे ने खड़े होकर कहा कि हमने भी एक कहानी सोची है और आपकी बात से उसमें नैतिक साहस ज्यादा है। उस चर्च के पादरी ने कहा, 'मैं सुनना चाहूँगा।'

उस बच्चे ने कहा, 'आप जैसे तीस पादरी पहाड़ी पर गये हुए थे घूमने, भ्रमण करने। वे दिनभर थके-मांदे वापस लौटे। रात सर्द है, ठंडी है। बिस्तर उन्हें पुकार रहे हैं, लेकिन उन्तीस पादरी प्रार्थना करने बैठ गए हैं, और एक पादरी सोने चला गया है। और उस एक पादरी में बहुत नैतिक साहस है, उन्तीस पादरियों के विरोध में जाने का।'

यह बीसवीं सदी से पहले किसी बच्चे ने न सोचा होगा। और यह बात सच है। जब उन्तीस लोग प्रार्थना कर रहे हों और उनकी आँखे यह कह रही हों कि जो प्रार्थना नहीं करेगा वह नर्क भेज दिया जायेगा, और उनके सारे व्यक्तित्व का सुझाव यह कह रहा हो, उनके गैस्चर, उनकी मुद्राएँ यह कह रही हों कि नर्क में सड़ोगे, तब एक आदमी का प्रार्थना छोड़कर नींद के लिए बिस्तर पर चले जाना बहुत हिम्मत की बात है।

लेकिन यह हिम्मत आज की जा सकती है, क्योंकि नर्क और स्वर्ग हवाई कल्पनाओं से ज्यादा नहीं रह गये हैं। लेकिन आज से कुछ सदियों पूर्व वे बड़ी सच्चाइयाँ थीं। और आदमी उन्हीं से भयभीत होकर जी रहा था। तो हमने आदमी को कहा था कि झूठ बोलोगे तो नर्क में पड़ोगे, सत्य बोलोगे तो स्वर्ग में सुख मिलेगा। हमने बहुत प्रलोभन दिये थे। आदमी डरा हुआ था। तो वह नीति को मानकर जी रहा था। लेकिन आज सारे भय गिर गये हैं। आदमी निर्भय हुआ है। इस निर्भय आदमी पर पुरानी नी‍ति लागू नहीं हो सकती। पुरानी नीति भी पुराने आदमी के साथ मर गयी है, मर रही है, मर जायेगी।

लेकिन क्या मनुष्य को अनीति में छोड़ देना है? क्या मनुष्य के अभय और निर्भय होने का अर्थ यह होगा कि वह अनैतिक हो? अगर यह होगा तो समाज निरंतर गहरे खतरों में पड़ जायेगा। क्योंकि नैतिक होने का एक ही अर्थ है कि मैं दूसरे व्यक्ति की भी चिंता करता हूँ, मैं अकेला नहीं हूँ। मैं अकेला नहीं हूँ! मैं इस पृथ्वी पर साथियों के साथ हूँ। कोई भी अकेला नहीं है। हमारे चारों तरफ पड़ोसियों का बड़ा जाल है और मैं पड़ोसी के लिए भी दायित्वपूर्ण हूँ। मैं उसके लिए भी विचार करता हूँ। उसे दुख न पहुँचे, इस भांति जीता हूँ। नैतिकता का आधार इतना है, लेकिन अब तक हमने भय के आधार पर इस बात को संभाले रखा था। कानून का भय था, पुलिस वाला खड़ा है चौराहे पर। आदालत में मजिस्ट्रेट बैठा है। ऊपर भगवान बैठा है। वह सुप्रीम कांस्टेबल का काम करता रहा है अब तक। बड़े से बड़ा पुलिस का हवलदार था। वह ऊपर से बैठकर नियंत्रण कर रहा है, लोगों को नर्क भेज रहा है, स्वर्ग भेज रहा है। लेकिन वह सब विदा हो गया है।

बीसवीं सदी की खोज ने बताया कि भगवान भी हमने अपने भय से निर्मित कर लिया था और उस भगवान का तो हमें कोई भी पता नहीं है, जो है। और जिस भगवान को हमने निर्मित कर लिया था, वह हमारे भय का ही आधार था। वह भगवान भी धीरे-धीरे फैड-आउट हो गया है। वह भी विलीन हो गया है। उसके साथ उसके नर्क-स्वर्ग भी विलीन हो गये हैं। उसके पुरोहित-पंडे, वे भी सब विलीन हो गये हैं। आदमी एकदम वैक्यूम में, खाली जगह खड़ा हो गया है। अब हम उसे डराकर नैतिक नहीं बना सकते।

....पुराना आदमी नैतिक था बुद्धि खोकर। और बुद्धि को खोकर नैतिक होना अनैतिक होने से भी बदतर है। पुराना आदमी नैतिक था व्यक्तित्व खोकर। और व्यक्तित्व को खोकर नैतिक होना अनैतिक होने से भी बुरा है। पुराने आदमी के पास कोई व्यक्तित्व, कोई इंडीवीजुअलिटी न थी, यह भी ध्यान में रख लेना जरूरी है। पुराना आदमी समूह का एक अंग था, व्यक्ति नहीं। गाँव में एक आदमी था, वह समूह का एक अंग था, उसके पास कोई व्यक्तित्व न था। वह अलग से कुछ भी न था। वह भंगी था, ब्राह्मण था, चमार था, बनिया था, एक समूह का हिस्सा था और समूह के ऊपर जिंदा था। वह समूह के खिलाफ इंचभर चलता तो कुएँ पर पानी पीना बंद था, हुक्का बंद था, भोजन बंद था, विवाह बंद था। वह जिंदा नहीं रह सकता था।....


....हिंदुस्तान से एक आदमी जर्मनी लौटा- काउंट कैसरलिन, तो उसने अपनी डायरी में लिखा कि हिंदुस्तान में जाकर मुझे पहली दफा पता चला कि स्वास्थ्य एक अनैतिकता है, बीमार होना नैतिकता है। और हिंदुस्तान में जाकर मुझे पता चला कि अस्वच्छ रहना, गंदगी से रहना अध्यात्म है। स्वच्छ रहना और ताजे रहना, साफ-सुधरे रहना भौतिकवाद है, मैटीरियलिज्म है।

नहीं, यह सब हमें बदल देना पड़ेगा। एक नयी नी‍ति- स्वस्थ, सुखी आदमी को, मुस्कराते आदमी को स्वीकार करेगी। हमें बुद्ध और महावीर की नयी मूर्तियाँ ढालनी होंगी, जिनमें वे खिलखिलाकर हंस रहे हों। अब उदास महावीर और उदास बुद्ध नहीं चल सकते हैं। ईसाई तो कहते हैं कि जीसस कभी हँसे ही नहीं क्योंकि हँसने जैसी छोटी-ओछी चीज जीसस कर सकते थे! उनकी किताबें कहती हैं, 'जीसस नैवर लाफ्ड'- हँसे ही नहीं कभी जिंदगी में। तो उन्होंने जीसस को जैसा बनाया..देखा होगा सूली पर लटके हुए। अगर वे न भी लटकाते तो ईसाई उनको लटता देते, क्योंकि गंभीर आदमी को सूली पर लटका होना चाहिए। लेकिन अब हम जीसस को हँसाकर रहेंगे। हमें जीसस की नयी तस्वीरें बनानी पड़ेंगी, जिसमें वे हँस रहा हों, फूल के बगीचे में खड़े हों।

नये आदमी को सुखी और स्वस्थ्य और आनंदित- इस पृथ्वी पर, स्वर्ग में नहीं, इस पृथ्‍वी पर सुख और स्वास्‍थ्य को स्वीकार करना पड़ेगा तो हम एक विधायक नीति के आधार रख सकते हैं। मुझे कोई कारण नहीं दिखायी पड़ता कि ये आधार क्यों नहीं रखे जा सकते हैं। मैं आपसे इतनी ही प्रार्थना करूँगा, इन दिशाओं में सोचें। बड़ा सवाल है, जिंदगी के सामने बड़ी समस्या है कि नयी नीति को कैसे जन्म दें। इन दिशाओं में सोचें। शायद हम सब सोचें तो हम कुछ रास्ते खोज लें।

मैं कोई उपदेश देनेवाला नहीं हूँ कि आपको उपदेश दूँ और आप ग्रहण कर लें। वह मामला छोड़ें, वह गुरु-शिष्य का संबंध गया। अब कोई उपदेश देगा, कोई ग्रहण करेगा, यह सवाल नहीं है। हम सब इकट्ठे होकर सोच सकें, हम सब मित्र की तरह साथ सोच सकें, और नये मनुष्य की रूपरेखा निर्मित कर सकें, इस दिशा में मैंने कुछ बातें कहीं। मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुग्रहीत हूँ और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूँ, मेरे प्रणाम स्वीकार करें!


साभार : स्वर्ण पाखी था जो कभी और अब है भिखारी जगत का (भारत के जलते प्रश्न)
सौजन्य : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन