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Author Topic: कार्य कारण भेद अभेद; कर्म एक फल अनेक  (Read 11621 times)

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Offline sai ji ka narad muni

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  • दाता एक साईं भिखारी सारी दुनिया
I was studying about ' Schizoid personality disorder ' and was shocked to see that the traits of this mental disorder are so similar to the qualities of a yogi...
And the psychologist (during my internship in clinical psychology) said that i m kinda  schizoid as i shows no interest in talking with them ( about things that are totally useless) and because my interest is only in Sai(nd not the things that interest her).

This inspired me to write something on it,I've observed many things around us which seems to be same but the reason are on the extremes, entirely different...
I wrote this few months back, now rewriting it with my new experiences im sharing it with u , my sisters n brothers;

1)
दीनता

आज महामन्द्लेश्वर अवधेशानंद गिरी जी महाराज  ने मेरी सबसे favorite character माँ मदालसा के चरित्र को सुनाते हुए बताया की माँ ने कहा की मै भिखमंगे पैदा नही करुंगी जो दुनिया में सबसे प्रेम, मीठे वचन , मुस्कान, सहानुभूति की भीक मांगते रहे, मै ऐसी भिखमंगी औलादे पैदा नही करुँगी जो रोय, मै रुलाने वालो को चुप कराने वाली सन्तान पैदा करूंगी।

अत: दीन एक भिखारी रुपी संसारी भी बना रहता हैं और एक भक्त भी परन्तु भेद बहुत ही बड़ा हैं ये की भक्त केवल अपने अराध्य के सामने ही दीन रहता हैं दीनता में बहुत ही रस हैं जब यह भक्ति में हो। सूरदास और भक्तराज हनुमान की भक्ति में दीनता भाव मिलता हैं। यह भक्ति में तब तो बहुत ही  आवश्यक हैं अगर ऐश्वर्य भाव से भक्ति कर रहे हो

आजकल बहुत लोग खिसयानी बिल्ली खम्बा नोचे ,ऐसी बिल्ली जैसे status लगाये रहते हैं (like: nobody loves me, u will always regret leaving me n bla bla bla  yes unfortunately there are many ppl like this in my whatsapp list , whom i nvr contact ) वे संसार के आगे status रुपी भीख का कटोरा फैलाय रहते हैं । हास्यप्रद। अत्यन्त हास्यप्रद।।।।

2)
स्वार्थ

स्वार्थी बनजाओ तो बहुत बढिया,(बल्कि मेने कही यह भी पढा की सबसे बड़ा परोपकार ही आत्म साक्षात्कार कर लेना हैं क्यू की तब ही आप बाकी लोगो का सच्चा कल्याण जान पाते हैं)
स्व = आत्मा जो आत्मा के अर्थ में लगा हैं ऐसा सच्चा स्वार्थी बनो , न की ऐसा जो देह को अपना मान नकली क्वालिटी का स्वार्थी हैं, जिससे न अपना कल्याण न ही दूसरो का।।।
3)

मौन

जिस मौन के कारण मुझे schizoid बोल दिया गया अब चलो उसकी कहानी देखे
शास्त्रों में अनेक स्थानों पर कामी और हरी कथा से विमुख पुरुषो का संग त्याज्य बताया गया हैं अब जब  विषयी लोगो के पास भी नही जाना चाहिए तो बात करना तो दूर, जो फ़ालतू की बात में अपनी वाक शक्ति लगा देते हैं पर राम नाम लेते वक्त मुह बंद हो जाता ह एकनाथ महाराज नाथ भागवत में कहते हैं की ऐसे लोगो के मुह की दुर्गन्ध श्री कृष्ण से भी नही सही जाती।
अत: ऐसे लोगो का संग पाकर बोलना सर्वथ: शास्त्र आज्ञा के विरुद्ध हैं, अत: मौन ही मान्य हैं ।
परन्तु कुछ लोग मौन भजन कीर्तन में लगाते हैं  जैसा की अभी कहा गया , इसिलिय कारण अत्यंत भिन्न और उनके फल भी।
शेष कल.......
जिस कर्म से भगवद प्रेम और भक्ति बढ़े वही सार्थक उद्योग हैं।
ॐ साईं राम

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Offline sai ji ka narad muni

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4) वस्त्रहीनता

यह विषय थोडा गम्भीर हैं,
अन्य युगों में अवधूत योगी महापुरुष जो विदेह स्थिति को प्राप्त कर चुके होने के कारण देहाभिमान से सर्वथा मुक्त थे, उन्हें इन लौकिक अचार का भान भी नही रहता था जैसे हमारे प्रिय शुकदेव मुनि परमहंस। वस्त्रहीनता आत्यंत वैराग्य और देहाभिमान शून्य होने का सूचक था, परन्तु आज के समय में स्त्रिया इसको अपना अधिकार बताकर तरह तरह के कुतर्क देती हैं, वे अत्यंत घोर देहाभिमानी होने के कारण, ऐसा करती हैं। वास्तव में स्त्रियों के लिय शास्त्रों में सन्यास की आज्ञा नही हैं परन्तु पुरुष को अगर शादी के मंडप में भी वैराग्य उदित हो तो तत्काल सन्यास की आज्ञा हैं, यह मै नही कह रही ऐसा नाथ भागवत में वर्णन है, ऐसा शायद इसिलिय क्यू की स्त्री सुरक्षित नही हैं घर से बाहर साथ ही नारी के स्वेच्छाचारी ( अपनी मर्जी से अकेले या बिना परिवार के रहना, आदि) भी अत्यंत निषेध बताया गया हैं शास्त्रों में।
वास्तव में जिसमे चरित्र और पवित्रता हैं उसे देह प्रदर्शन की इच्छा ही नही होगी। ये तो आप खुद ही सोचिये बाबा हमारे चरित्र से प्रसन्न होंगे या देह को मै मानकर चरित्र हीन होने में???
बहुत से युवा और अधेड उम्र के लोग जो साईं बाबा की पूजा करते हैं , पर कामवासना में भी उलझे रहते हैं , बाबा द्वारा कुछ सौभाग्यशाली मनुष्यों को ही विवेक प्राप्त होता हैं। जहा GF BF की आशा हैं उस हृदय में वह भक्ति नही हैं, क्यू की भक्ति के पुत्र ज्ञान और वैराग्य उत्पन्न होना निश्चित ही हैं जब भक्ति हृदय में प्रकट हो।
विश्यलोलुप्ता से कई गुना श्रेष्ठ पावन चरित्र की गरिमा हैं जिससे हमे साईं को पाने में आसानी रहेगी।

5)
मृत्यु की इच्छा


एक depression के मरीज को दुनिया में सुख और अपने जीवन में दुःख ही नजर आता हैं किसी किसी को धोखा पाकर क्षणिक वैराग्य भी हो जाता हैं, इसे लिखते एक बहुत सुंदर पंक्ति याद आति हैं

बार बार मार खाके, हे गोविन्द राधे
रोटी दिखादे कुत्ता पूँछ को हिलादे - bhakti shatak by kripalu maharaj

उस कुत्ते जेसी हालत ही हैं हमारी जो संसार में क्लेश पाकर भी इसी में लगे रहते हैं और परमानन्दमयि साईं की शरण नही जाते।

परन्तु एक आर्त भक्त भी शरीर त्यागना चाहता हैं, जिससे भगवद विरह सहन नही होता, और जिसे इस नौटंकी भरे जगत में भी कोई दिलचस्पी नही।
रमण रेती वाले महाराज तो हर चीज़ को नाटक ही कहते हैं चाहे शादी हो किसी की या अर्थी।



वास्तव में यह जगत श्री हरी से  ही प्रकट हुआ हैं, अत्यंत विरोधी तत्वों से मिलकर ये जगत बना हैं।
इसमें भेद नही हैं और अभेद भी नही हैं
वेदों कइ रहस्यमय वाणी भेद बताती हुई दिखती हैं परन्तु वह लोकाचार के लिय ही हैं।
यह सब श्री हरी की माया हैं जो अभेद में भेद कअ बोध कराती हैं।
साईं की का ये ऐश्वर्य विस्मित कर देने वाला हैं



जय साईं राम
जिस कर्म से भगवद प्रेम और भक्ति बढ़े वही सार्थक उद्योग हैं।
ॐ साईं राम

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ROFL
« Reply #2 on: March 19, 2016, 05:29:09 AM »
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  • Inhe kehte h sabhya purush

    जिस कर्म से भगवद प्रेम और भक्ति बढ़े वही सार्थक उद्योग हैं।
    ॐ साईं राम

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    कार्य कारण भेद अभेद; कर्म एक फल अनेक ki list bnane lgenge to bht lambi list bn jaayegi  ...
    Im sharing a story now
    This happened few weeks back
    When i was out for family dinner at a restaurant. After having the meals, my nephew innocently said (he's five) "mai jab se paida hua hu khaye hi ja raha hu khaye hi ja raha hu, mera pait bhara hi nahi..."
    I was amazed to hear those words from him ,
    It reminded me of Eknath maharaj's words that 'sadhu aur baalak/bachhe dono prasann rhte hain'
    Parantu baalak apni mugdhta k kaaran prasann rhta hai aur
    Saadhu gyaan k kaaran...
    & the main reason behind my amazement was actually this -' few days back I've been listening to seven day pravachans on sadhna channel , (8 -10 AM) katha vachak was vyasanand ji maharaj , This was the first (and last yet ) pravachan that i have listened to, from him...And just after that, he became my favorite katha vachak...
    One day, He had said this thing :-

    Hm jab se paida hue hai khaaye hi jaa rahe hai,kitna sara anaaj hm aajtak khaakar kooda kar chuke hai fir bhi pait nahi bharta,  is duniya m sbse ganda insaan hi hai qki veh divya se divya bhog khaakar bhi use vishtha (faeces) m badal deta hai.... isiliy is duniya m sbse ganda insaan hi hai...
    THEN HE TOLD A STORY THAT I'M TELLING YOU IN MY WORDS
     Ek baar ek guru ne apne do shishyo se duniya ki sbse gandi chiz le jaane ko kaha...
    Tab veh sbhi dukaano par jata aur sbse gandi chiz maangta tab use sab bhaga dete vahaan se ki hmaari dunkaan pr kya gandgi milti dikh rahi h tumhe!!!
    Aise fir vo ek raste se jaa rha tha vaha bhut badboo aarahi thi vaha se sb log muh dhakkar aur jaldi jaldi nikal rahe the .... vaha usne jaakar dekha to gandgi  (विष्ठा) padi thi उसने सोचा की यह लगती हैं सबसे गन्दी चीज़ tab vo use haath se uthaane lga to vishtha m se avaaj aayi
    ' tu mujhe kaha lekar jaa rha hai?'
    Shishy bola
    'Guru k paas unhone bola sbse gandi chiz laao'
    Vishtha boli ' phle m halwaai ki dukaan par thi  (jalebi bnkar) ab yha hu ...

    Well leave this story here now.
    What i understand by this is that this human body needs our attention , And if its continuos desires fail to generate वैराग्य in us, then we are so unfortunate.
    In sai satcharitra its said
    'His object may be that people should live happily in this world, but they should be ever cautious and gain the object of their life, viz. self-realization. We get human body as a result of merits in past births and it is worth-while that with its aid, we should attain devotion and liberation in this life. So we should never be lazy, but always be on the alert to gain our end and aim of life.'

    "Special Value of the Human BodyAs we all know, four things are common to all the creatures, viz. food, sleep, fear and sexual union. In the case of man, he is endowed with a special faculty, viz. knowledge, with the help of which he can attain God-vision, which is impossible in any other birth. It is for this reasons that Gods envy man's fortune and aspire to be born as men on earth, so as to get their final deliverance.Some say, that there is nothing worse than the human body, which is full of filth, mucus, phlegm and dirt, and which is subject to decay, disease and death. This is no doubt true to a certain extent; but inspite of these drawbacks and defects, the special value of the human body is - that man has got the capacity to acquire knowledge: it is only due to the human knowledge that one can think of the perishable and transitory nature of the body itself, and of the world and get a disgust for the sense-enjoyments and can discriminate between the unreal and the real, and thus attain God-vision. So, if we reject or neglect the body because it is filthy, we lose the chance of God-vision, and if we fondle it, and run after sense - enjoyments, because it is precious, we go to hell. The proper course, therefore, for us to pursue is the following; that the body should neither be neglected nor fondled, but should be properly cared for, just as a traveler on horse-back takes care of his pony on the way till he reaches his destinationand returns home. Thus the body should ever be used or engaged to attain God-vision or self-realization, which is the supreme end of life.It is said that though God created various sorts of creatures he was not satisfied, for none of them was able to know and appreciateHis work. So he had to create a special being - Man, and endow him with a special faculty, viz.Knowledge and when He saw that man was able to appreciate His Leela - marvellous workand intelligence. He was highly pleased and satisfied. (Vide, Bhagawat 11-9-28). So really itis good luck to get a human body, better luck to get birth in a Brahmin family, and best one, to get an opportunity of having recourse to SaiBaba's Feet and surrendering to Him.Man's EndeavourRealizing how precious the human life is, and knowing that Death is certain and may snatch us at any time, we should be ever alert to achieve the object of our life, we should not make the least delay but make every possible haste to gain our object, just as a widower is most anxious to get himself married to a new bride, or just as a king leaves no stone unturned to seek his lost son. So with all earnestness and speed, we should strive to attain our end, i.e., self-realization. Casting aside sloth and laziness, warding off drowsiness, we should day and night meditateon the Self. If we fail to do this, we reduce ourselves to the level of beasts.How to Proceed?The most effective and speedy way to gain our object is to approach a worthy Saint or Sage - Sadguru, who has himself attained God-vision. What cannot be achieved by hearing religious lectures and study of religious works, is easily obtained in the company of such worthy souls. Just as the sun alone gives light, which all the stars put together cannot do, so the Sad-Guru alone imparts spiritual wisdom which all the sacred books and sermons cannot infuse. His movements and simple talks give us 'silent' advice. The virtues of forgiveness, calmness, disinterestedness, charity, benevolence, control of mind and body, egolessness etc. are observed by the disciples as they are being practiced in such pure and holy company. This enlightens their minds and liftsthem up spiritually. Sai Baba was such a Sage or Sad-Guru. Though He acted as a Fakir (mendicant), He was always engrossed in the Self. He always loved all beings in whom He saw God or Divinity. By pleasures He was not elated. He was not depressed by misfortunes. A king and a pauper were the same to Him. He, whose glance would turn a beggar into a king, used to beg His food from door to door in Shirdi"
     


    कुछ कथा वाचक जब बोलते हैं लगता हैं जैसे बड़े बड़े ज्ञान अथवा भगवद प्रेम के ब्रहामास्त्र छोड़े हो
    Quote
    Listing my favorite KATHA VACHAKS ; कथा वाचक http://forum.spiritualindia.org/sai-baba-spiritual-discussion-room/listing-my-favorite-katha-vachaks/
    Few of the brahmaastras I'm giving here

    ● जड़ भरत रहूग्न से कहते हैं
    " जिसे गृह्स्थोचित यज्ञादि कर्मो से प्राप्त होनेवाला स्वर्गादि सुख स्वप्न के समान हेय नही जान पड़ता , उसे तत्वज्ञान कराने में साक्षात् उपनिषद वाक्य भी समर्थ नही हैं"

    ● जिसे परमात्मा पर भरोसा हैं उसे मांगने की जरूरत नही

    ● जिससे मेरी भक्ति हो, वही धर्म हैं

    ●"DUNIYA MAI RAHEGA TOH MERA BHAKT RHEGA,
    NAHI TO YE DUNIYA HI NAHI RAHEGI"
    - LORD KRISHNA

    ● पापी नहीं, पश्चातापी का उद्धार करने का ठेका लिया है भगवान् ने


    ● कर्ण की तुलना अर्जुन से कभी नही हो सकती,
    कहा श्री कृष्ण का कृपा पात्र अर्जुन और कहाँ दुष्टों का संगी चंडाल चौकड़ी कर्ण ( अर्जुन वास्तव में नर ऋषि का रूप हैं और कर्ण पिछले जन्म में एक असुर था परन्तु मूर्ख लोग कर्ण को धर्म पर चलने वाला योद्धा बताते हैं, कर्ण ने दुर्योधन से कोई वफा नही निभाई)
    कौरवो का hEro केवल अर्जुन ही हैं

    ● जब लगे की मुझपर कोई अन्कुश नही हैं तब समझ लेना की पतन शुरू हो गया हैं, पवित्रता चली गई हैं।
    (And these days people boast of their freedom trying to show how free they are in choosing partn......)

    ● गुरु शिष्य के कल्याण के लिय बन्धन में भी आ जाते हैं ( रहुगन और जड़ भरत का प्रसंग)

    ● अधम प्राणी मुझतक पहुँचने का प्रयास नहीं करता_हरी

    ●पुण्यवानो के लिय मृत्यु वरदान हैं
    पापियों के लिय मृत्यु श्राप हैं
    (THIS SEEMS REALLY STUPID TO ME HOW PEOPLE TALK ABOUT DEATH!! LIKE ITS A CURSE BUT GIRI BAAPU ANSWERS IN ONE LINE)

    ●कार्य कर उसमे रस लेते हो तो बंधन प्राप्त होता हैं

    ● तुका झाला पांडुरंग

    ● राग भी इतना बुरा नहीं हैं जितना रागी पुरुषो का संग

    ● केवल कौतुहल वश भी अगर विषय अपनाय तो परिणाम तप का नाश हैं , वह झन्झट में फसा देगा। ( I WUD RECOMMEND TO READ THIS ONE
    AGAIN AS ITS VERY IMP. FOR US, WE HAVE NO ATTACHMENTS TO ANYTHING BUT BEWARE OF OVERCONFIDENCE, DON'T LET VISHAY ENTER AT ANY COST)

    « Last Edit: April 30, 2016, 04:16:55 AM by sai ji ka narad muni »
    जिस कर्म से भगवद प्रेम और भक्ति बढ़े वही सार्थक उद्योग हैं।
    ॐ साईं राम

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    कैसा हैं भगवान्?
    « Reply #4 on: July 28, 2016, 02:07:54 PM »
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  • कैसे हैं भगवान
    कैसा हैं मेरा हरी
    कैसा हैं तेरा हरी
    हम रोज बाबा के इतने अनुभव पाकर भी उनसे कितने अनभिज्ञ हैं कभी चिंतन करो तो लगता हैं की उनकी लीलाए कितनी अगाध और महिमा अपार हैं।
    कभी लगता हैं बड़ा moody हैं भगवान जब खुद का मन हो तब दया करते हैं नही हो तो हम कितना भी बोले कुछ फर्क नही।
    कभी लगता हैं बड़े भोले हैं
    तो कभी बड़े करुणामयी
    तो कभी बड़े उदासीन लगते हैं
    सच तो यही हैं की हरी अत्यंत उदासीन हैं (उनकी उदासीनता के किस्से भी क्या सुनाऊ मै !!! आप स्वयं ही दुनिया में देख सकते हैं)
    अगर आप की भी आदत हैं बाबा से कहने की कि बाबा न्याय करो मेरे साथ
    तो सम्भल जाईये
    क्यू?
    क्यू की बाबा न्याय करने लगे तो पता नही क्या होगा हमारा। हमारे न जाने कैसे कैसे पिछले कर्म हैं। भगवन साईं बाबा अपने शरणागतो के पक्षधर हैं
    कभी सोचा साईं भक्तो का काम कभी बिना queue में लगे हो जाता या कोई और ऐसा काम जो बाकी के साथ नही होता तो फिर ये न्याय कहाँ इसिलिय we are privileged  ;D otherwise hari is very उदासीन अत: न्याय नही दया मांगे।
    Agar vo pure din pyaar krte hai kbhi gusaa dikhane k liy hmare koi galat kaam karne par pyaar nhi b dikhaate to tb b koi ye kaha keh skta h ki vo is kaaran se krupa karte h.mujhe lgta h unki kripa ahaituki hi hoti h.
    Jai sai ram
    जिस कर्म से भगवद प्रेम और भक्ति बढ़े वही सार्थक उद्योग हैं।
    ॐ साईं राम

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    ANANTAKOTI BRAHMANDANAYAKA RAJAOHIRAJ YOGIRAJ PARABRHAMA
    SHRI SATCHIDANANDA SATGURU SAINATH MAHARAJ KIJAI


    पत्ता देदो
    पत्ता तो मै खुद ही नही खाता
    फूल अर्पित करदो
    फूल से कही ज्यादा नाजुक और सुंदर तो आप स्वयं हैं
    जल  देदो
    जल देकर तो हम अपने अतिथि को भी नही भेजते भोजन तो कराते ही हैं
    फल देदो
    फल से कही अधिक सुमधुर तो आपकी ये मुस्कान ही हैं नाथ...

    पत्रम पुष्पम फलम तोयम यो मे भक्त्या प्रयच्छाति।
    तदहम भकत्युपहृतमश्नामि प्रायतात्मन:॥

    Ye hai hmare sai ki karuna, isiliy unhone tarkhadji ka pedha , bengan ka bharta aur kacharya, sweekaar kiya , mosibai ki seva sweekar ki, megha pr prasann hokar unhe shivling diya... na jaane kitne hi bhkto ko maaf kiya, jb bhkt glti krke rote maafi ki bhik maangte h paap krm na sahe jaane pr tb sai kshmadaan dete hai us karuna ka kya koi karan pta lga skta h... yhi unka madhur swaroop h.yeh hi aur yeh bhi jaha kehne m sankoch  nhi yeh sri bhgwaan ka stawan hai.vey virodhi tatvo k adhishthaan hai.unse hi sbhi virodhi tatv bne h.bhakti hi sarvopari h..jaha bhakti ki baat na ho veh dharm bhi adharm hai.
    Ye shlok bhagwaan ka prem aur karuna darshata h humare dwara arpit ki hui vastu k prati parantu ise hm bahana na maan le ki unhe aur kuch kya chadhana aisa ek katha vachak keh rhe the par mujhe lga jab yeh shlok bhakto k liy hi kaha gya h to yeh bahane vali baat bolne ki kya jarurat q ki bhakt ka to sb kuch uske hari ko arpit hota hai , haa katha vachko ko sbko dhyaan m rkhkr katha kehni hoti h yeh bhi thik hai.
    Ye to soch ki baat h ki koi kanjusi k liy is shlok ka apne hit m arth lagaye . Jo hota h sahi hota hai,(this statement was very irritating in first two years after sai came into my life and a sai brother said that to me but now with time I've realized its so true, ) sb kabhi na kabhi to shayad tatvgyaan pa hi le aur hari ko bhaje aur hari ko paa le. Vo alag h ki kise kitna samay lagega hari ko paane m.bhakti h kya??
    Bhakti is presence of immense love for the Lord. The devotee develops an intense longing to see God, meet Him, and be with Him. Whatever one does, the mind remains attached to God and the thoughts flow towards Him, like rivers flowing towards the ocean. Such love in the heart cleanses it of all impurities. With a pure heart, one begins to see God in all living beings and in all things. As the thoughts become sublime, the devotee experiences the unlimited Divine Bliss of God and becomes fully satisfied
    The path of Bhakti can be followed by every human being, irrespective of caste, creed, religion, colour, gender or age. This cannot be applied in whole to the other two paths. At the same time, it must be borne in mind that Karm and jñana are true paths but their application is extremely difficult in KALI-YUG.
    To attain God-realization, Bhakti is essential in every path. The karm yogi does Bhakti along with Karm, or worldly duties. The Jñanayogi and Aṣhṭāṅg yogi progress by their particular sadhana path. However, in the end, they too need to do Bhakti, to attract the Grace of God, and reach the final destination. The scriptures state very categorically, that without Bhakti, no one can attain God.

    Bhakti hmare liy isliy bhi saral h ki pyar krna humara swaroop h hm pyar chahte h aur pyar krna chahte hai, parantu duniya m dhokha khakar bhi
    Hum honge kamyab ek din vala attitude nahi chhodte aur lge rhte h ek k bad ek insaan ko target bnaane m, hmare yuva bhai behen pyaar k naam par apna sheel kho dete h, ab to buddhe b isi queue m h.ma apne bete m puri trh aasakt rhti h beta criminal b ho tb bhi moh nhi chhutta, pyaar to sbki jarurat h hi parantu

    " बार बार मार खाके, हे गोविन्द राधे रोटी दिखादे कुत्ता पूँछ को हिलादे "

    Ye hi haal rehta hai. Bhagwaan se bhi response mile tab hi pyaar m aanand h, one sided love krna kon chahega. Sai ko pyar krne m sbse achhi baat h ki no scope for misunderstanding and miscommunication. he knows about every single thought and feelings of ours. There's no mantra to get his krupa as far as i know there's nothing that can guarantee his love, yes there are ways to adopt to make a possibility for his kripa. (Parikari devi says surrendering to him is the only way to get his kripa but i feel concept of surrendering is itself possible for blessed ones only isn't it)But it's not important to talk about that here because i think most blessed bhakts are reading this

    whatever action is performed with bhakti or exclusive loving devotion to Him, He accepts with the utmost appreciative and affectionate love. - nimbaditya
    साधक को शंका हो सकती है कि संसार में तो बड़े-बड़े साधन रखने वाले भक्त हैं जो क्षण भर में अनेकानेक पदार्थ, छप्पन व्यंजन, धन-धान्य समर्पित करने को तत्पर हैं। ऐसे में मुझ अकिंचन के रूखे-सूखे का अर्पण प्रभु स्वीकार करेंगे अथवा नहीं! यह कदापि भी चिंता का विषय नहीं है। गीता (9/26) में भगवत् वचन स्पष्ट है;
    पत्रम पुष्पम फलम तोयम यो मे भक्त्या प्रयच्छाति।
    तदहम भकत्युपहृतमश्नामि प्रायतात्मन:॥ (गीता 9/26)
    अर्थात पत्ता हो, फूल हो, फल हो या जल; भक्त जो भी सर्वश्रेष्ठ बन पड़े, उससे बेहिचक भगवान का भोग लगाए। भगवान उस निष्कपट अकिंचन के प्रेम पूर्वक अर्पित किए भोग को खाएँगे ही। भक्त इस में कदापि संशय नहीं होना चाहिए।
    श्री कृष्ण की प्रतिज्ञा है कि मैं अत्यंत सुलभ हूँ।
    If one offers to Me with devotion a leaf, a flower, fruit or some water, I will accept that offering from My purehearted devotee.
    "To clear this misconception Lord Krishna states me bhaktya prayacchati meaning if one offers to Him with devotion. As it is only possible that His devotees have devotion for Him it is natural that He only accepts offerings from His devotees. The Varaha Purana states that: Offerings from those who are not His devotees by unrighteous means does not lead to positive results. Exclusively by bhakti or loving devotion for His satisfaction does the Supreme Lord become pleased. The Mahabharata has stated that: One who is in communion with the Supreme Lord through bhakti is revered by all. "-Sri Madhwacharya

    “God is ready to do anything and everything for a truly surrendered devotee.”
    -Jagadguru Shri Kripaluji Maharaj-

    now here's saijikanaradmuni version of this saying now
    - God is ready to do anything and everything for the one he wants to bless, without any reason or call it unconditionally , he will shower his love and blessings for he is compassionate (for selective jeev)
    were we surrendered to him when he changed our lives??? THEN WHY WE UNDERESTIMATE HIS unconditional LOVE BY SAYING
    " SURRENDER TO SAI THEN HE'LL TAKE CARE" ETC...
    Yes when it comes to us, all we need to do is that, but ultimately our गति rests on his shoulder.
    What does it really mean to be surrendered to God?

    The scriptures say that to be surrendered to God means to renounce all deception and artificiality and become like an innocent child in front of Him. Your mind must be attached to God alone. You must believe that “God alone is my everything” and accept Him as your very own from the core of your heart.(jkp)
    its all upto him how he takes our pooja and sadhan.
    if someone is serious about concepts like surrendering, detatchment etc i suggest reading jkp teachings.... no sansari grihasth person can stand his words, people would change the channel or make faces,  ;D
    जिस कर्म से भगवद प्रेम और भक्ति बढ़े वही सार्थक उद्योग हैं।
    ॐ साईं राम

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