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Author Topic: श्री दासगणु महाराज कि रचना - गुरूपाठ के भजन (हिन्दी)  (Read 2985 times)

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Offline trmadhavan

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श्री दासगणु महाराज कि मराठी रचना
गुरुपाठांचे अभंग
हिन्दी अनुवाद

गुरुपाठ के भजन

अनुवादक
श्रीमती नम्रता बागडे – श्री टीआर. माधवन

श्री राम नवमी
02/04/2020
हैदराबाद-500048
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प्रारंभिक

श्री दासगणू महाराज ने बाबा के आशीर्वाद से 1903 में गुरुपाठ के 25 अभंगों की रचना की है। इसके पीछे का उद्देश्य साईं भक्तों की पूजा करते समय इसे हरिपाठ की तरह प्रयोग करना है। जब बाबा जीवित थे, तो मारुति मंदिर, विठ्ठल मंदिर, द्वारकामाई और चावड़ी अभंग को शिर्डी में साईं भक्त गाते थे यह कहा जाता था।
आज कई शहरों में बाबा के मंदिर हैं। साथ ही, कई भक्त बाबा की पालकी लेकर शिरडी घूमते हैं। पालकी के सामने श्रीसच्चरित का पाठ करने पूर्व सुबह और शाम को ये अभंग भक्तों को गायन के लिए बहुत उपयोगी है। आशा है कि सभी भक्त इससे लाभान्वित होंगे।
ऊँ श्री साईराम।
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विनंती!

ऊँ साईराम!
मैं नम्रता बागडे एवं टीआर माधवनजी ने मिलकर श्री दासगणु महाराज कि मुल मराठी रचना गुरूपाठ अभंग ओवियोँ को हिन्दी में अनुवाद किया है। श्री साई के भक्तों से खासकर जो मराठी भाषी और जिन्होंने श्री दासगणु महाराज के गुरूपाठ अभंग को पढ़ा हो, उनसे निवेदन हैं कि इन हिन्दी पंक्तियों में मुल मराठी ओवियोँ के अनुसार कहीं-शब्दों या पंक्तियों में बदलाव करना हो तो मेसेज करें या कमेन्ट बाक्स पर जरूर लिखें ।
धन्यवाद, ऊँ साईराम।
 श्रीमती नम्रता बागडे - श्री टीआर माधवन
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रुप जिसके सगुण निर्गुण। ऐसा नारायण पुजनिय पहले।।
सगुण सेवत निर्गुण आए हाथ। निर्गुण प्राप्ति पहले नही।।
पहले बालक सीखे क ख बाराखडी। फिर शब्द जोड़े तब ज्ञान होय।।
गणु कहे वैसी सगुणोपासना। बाराखडी समझो अध्यात्म की।। 1

वो जो बाराखडी पढाए जो गुरु। भवाब्धी का तारू वही समझो ।।
गुरुसेवा ही है प्रथम शिडी। बहुत कठिन है उसे सम्भालना ।।
सदगुरु कृपा जब प्राप्त होय। सेवा सहज पूर्ण हो जाए।।
गणु कहे जब प्रसन्न हो सविता। प्रभा की कमी कभी न होए।। 2

सदगुरु की सेवा बहुतोंने की। इसकी साक्ष् है पुराणों में।।
पूर्णब्रह्म राम जाकी का कांत। आया शरण वसिष्ठ के।।
रुक्मिणी वल्लभ जिस के सांदीपनी। धन्यवाद आप का गुरुदेव गुणी।।
गणु कहे गुरु बिन नर। उसे जानो खर दो पैरों का ।। 3

निष्ठावान भाव वोही देता फल। अभक्ती का मल नष्ट हो जाए।।
चहाड-दोमुंहा ऐसा नारद मुनी। उसे भी तारा प्रह्लाद ने।।
गोपीचंद ने गुरु को समझा। आगे वो हो गया पुजनीय।।
गणु कहे सोने को भाव तभी आए। जगमें जब उसकी कसोटी होए।। 4


दया, क्षमा, शांति रहे जिस के पास। तैसे ज्ञान देखे संपूर्ण वो।।
जिसके सिर पर हो प्रभु का हात। उसे ही सदगुरु बनाओ जी।।
बाह्य ढोंग को भूलना न कभी। पतंगा की निपूण न चले दीपक से कभी।।
गणु कहे जैसे हसं पानी से। ढूंढ के पीता दूध जैसे।। 5

हीरा और गारा एक ही खदान में। तैसे बद्ध-मुक्त संसार में।।
हीरे को बिनता पारखी। कुक्कुट पैरों से मिलाएं उसे।।
मुमुक्षु परखे चार्वाक मुर्ग। कुक्कुट को भाए कुडा दाना।।
गणु कहे जो है भाग्यवान।  उसीका हित हो गूरू के पाँव।। 6

क्षमाशांतीयुक्त भवाब्धी का जहाज। ऐसा है सद्गुरु राज शिर्डी में ।।
नाम जिसे शोभे बाबा साईं। अनाथों की माई उसे समझो।।
अनाथ सनाथ का भेद न वहाँ। सूर्यप्रकाश में चयन कैसा।।
मेरा गुरुराज जान्हवी का जल। गणु करें अर्पण भाल चरणी।।7

काया उँची किया धारण। समझाने खून (निशानी) भक्तजन।।
उच्च ज्ञान जो अध्यात्म सुन्दर। वो ही सेवा सबकी कल्याणार्थ।।
पर न छोडो नम्रता बौनी । न आए बडा होना बचपन बिना।।
गणु कहे वर्ण सावला। सद्गुरु की लीला बहुत बडी।। 8

सदगुरु ने जल को बनाया तेल। दीपक जलाए लक्षावधी।।
दीपक रखा तकिये के पास। एक तक्ते पर सोये गुरुमूर्ति।।
उनके उस कृति का यही है अर्थ। कभी ना सोये अन्धेरे में।।
गणु कहे हैं माया का अंधेरा। सद्गुरु की लीला बहुत बडी।। 9

ब्रम्हा विष्णु शिवरुप बाबा साई। भाव दुजा कोई नही मानना।।
सदगुरू के पाँवों की जो धूल। वो ही गंगाजल शुद्ध मानो।।
अमृत जैसे मुख के बोल। उसे गीता मान सेवन करो।।
गणु कहे बाबा शुद्ध बसंत। भक्तों कोयला तुम बन जाओ।।10

परमात्मा की आस जिसे लग जाए। वो देखे चरण सबसे पहले।।
ऐहिक सुख को दूर कर। भक्ति की राह ढुंढा कर।।
द्वेष के सरोंडे दे देना फेंक। साईरूप देखो संसार में।।
गणु कहे तुम उनके भक्त। सुंदर दिखोगे संसार में।। 11

शिर्डी क्षेत्र नही समिति बजा़र। वहाँ दुकानदार परमार्थ का।।
ऐहिक सुख खेलने की गुडिया। सभी को फेंक दिया गूरुजी ने।।
क्यों कि उसमें कोई नहीं अर्थ। फँसेंगे व्यर्थ बच्चे मेरे।।
गणु कहे जोड़ विचित्र हो जाते। तभी भौंरा रुची लेते।।12

कर्म भक्ती ज्ञान बाजार का माल। मन को जो भाए वोहि लेना।।
तीनो की किंमत एक ही है जाणो। फल तीनों का एक ही है।।
भावरुपी द्रव्य चाहिए जिसे। दुजा न कोई सदगुरु बिना ।।
गणु कहे जिस के भाव नाणें। वो ही आए इस बाज़ार में।। 13

नाश्ते हेतु मार्ग खरीदे फल। फिर जाना पंढरपूर सुख से।।
बाबा ने की कृपा तुकोबा पर । तो ही फल मिला पंढरी में।।
थापी से गो-याने मारके नाम्या को। भगवान के सामने कच्चा दिखाया।।
गणु कहे फिर खेचर माँ की। पुजा की नाम्या ने कल्याणार्थ ।। 14

निवृत्ति ज्ञानेश ईश्वरी अवतार। पर गहिनी को किया गुरुवर।।
गुरु कृपा बिना किसी को भी। ना मिलें विठ्ठल चक्रपाणी।।
मनमें आस अगर हो पंढरी की। मजबूती से पकड़ो डोर सद्गुरु की।।
गणु कहे उसे न भव का भय। जिसके चित्त में हो पाँव सदगुरु के।। 15

शुकसनकादि नारद अंबरीश। निवृत्ति मेहता नाम तुका।।
दास तुलसी चोखा जयदेव सांवता। पंत नाथ मेहता कबीर वो।।
बोध प्राप्त हुआ पवार विसोबा खेचर। गोरोबा कुम्हार कर्मदास।।
गणु कहे वहीं करोड़ों में साई। आओ उसके चरणों में लीन हो जाए।। 16

हालांकि वो संतों की मूर्ति खो गई। आओ साई रुप में देखते हैं।।
त्रिभूवन में जितने भी है संत। सबको साईनाथ मे देख आनंद लें।।
भेदभाव न करे मेरे संतों का। संत शेषशायी प्रत्यक्ष प्रमाण है।।
गणुदास है संतों में अंकित। मिलती कृपा पंढरीनाथ से।। 17

भक्तिरुप गंगा हो जिनके पास। मेरा साई है खडा वहाँ।।
हस्त संकेतों से समझाएं जनको। आओ घुमो मत जंगलों में।।
मुझे पहचानो हूँ मैं कहाँ का। आया किस लिए शिर्डी को॥
पंढरी क्षेत्र का मैं हूँ दिशा दर्शी। गणु की पलटियां साई शक्ती से।। 18

मुझे पुछे बिना पंढरी के रास्ते। जाओगे तो काँटे चूबेंगे ही।।
पंढरी का रास्ता बडा ही कठिन। बडे-बडे पहाड है रास्ते में।।
उसके शस्त्र है मेरे पास। वैसा हृषीकेशी पहचान का।।
गणु कहे जनम जनम नहीं टूटते। साई के हृदय में परमेश्वर।। 19

इसलिए यह अवसर फुकट मत गवाँओ। वरना पीछे से पस्ताओगे।।
दंभ की गठलीयाँ एक बाजू रखो। विकल्प छोड़ना घातक जो।।
क्रोध की होली ज्ञान से करो। वासना को मारो अभ्यास से।।
गणु कहे ऐसा व्रत का जो करें पालन। उसे सम्भालता साई मेरा।। 20

करो मत नाश इस आयुष्य का। जन्म मानव का फिर से नहीं।
हरेक जन्म में कन्या बच्चे घर। मैथुन आहार और निद्रा।।
नरजन्म नही ऐसे कृत्य के लिए। मनमें पक्की गाँठ बाँध लो।।
जुड़ना चाहे तो जुड़े इस जन्म में ईश्वर से। नरजन्म थोर गणु कहे।। 21

लोभ मोह माया छोड़ सभी को। धरो चरण सदगुरु के।।
गुरु चरणों में है सबकुछ। गुरु बिना नही सार्थकता।।
गुरु कामधेनू गुरु कल्पतरू। चिंता नष्ट करें चिंतामणि।।
गूरु भक्ति में जो हो एक निष्ठ। त्रिलोक में वो श्रेष्ठ गणु कहे।। 22

गुरु चरण में भाव विठूसे अबोला। ऐसे मानव को मोक्ष नही मिलता।।
कददू हाथ में पर गलेमें पत्थर। बांधे तो अंत में धाते होय।।
गुरुरुप देह आत्मा पांडुरंग। किया तो रंग आए एकही जगह।।
एक को छोडे तो एक न ये हात। दोनों की योग्यता एक जैसी।।
गुरु और देव इसमें किया भेद। दुःख की गठडी लगेगी हात।।
गणु कहे इसलिए रहो सतर्क। गुरु परमेश्वर एक रूप।।23

साईबाबा और सदगुरु वामन। यह दोनों नही भिन्न एक ही है।।
भाव साधकों रखो दोनों में। पर विठाबाई को ध्यान धरो।।
साई-वामन की करना पूजा। रखना सम्मान भूपती का।।
परमार्थ मेँ भक्ती व्यवहार में नीती। संसार में विरक्ति गणु कहे।। 24

गुरुपाठ के ये भजन पच्चीस। जाप करने से होए नाश पातक का।।
गुरु के गान से मिलता मोक्ष। नही मरता निरथर्क दंभ से।।
साईमहाराज का पकडके हात। पार करो भवाब्धी डुबो मत।।
साई की इच्छा से होता है सबकुछ। गणु के पास बोलना नही।। 25

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प्रार्थनाष्टक

कितना भी लूं जन्म कोटी कोटी। क्षमा शांति का तो नही मिलता लेख पोटी।।
ऐसा मोह समा गया चित्त में। मुझे उससे छुडाना साईनाथ।। 1

शिव के भय से काम जो भागा। हमें लग रहा छलने वो आया यहाँ।।
पिनाकी के जैसे हो समर्थ। मुझे इससे छुडाना साईनाथा।।2

लोभ मुझे नचाए जगे जगे। इस कारण मन स्थिर नही होत।।
तेरे पाँव उसमें सत् से आते। मुझे इससे छुडाना साईनाथा।। 3

भव का प्रेम मुझे बहुत लगे। जैसे गधे को केर मीठा लगे।।
डुब गया जल्दी देदो अपना हात। मुझे इससे छुडाना साईनाथा।। 4

क्षमा शांति के उदाहरण दे जन को। जैसे बच्चों को माँ सिखाए।।
नीती की घुटी पिलाओ हे समर्था। नमस्कार मेरा तुझको साईनाथा।। 5

सदा सर्वदा चित्त को आनंदी रखे। कभी वासना के बंधन में न बंधे।।
जग में हमारे तू माँ-बाप-त्राता। नमस्कार मेरा तुम्हें साईनाथा।। 6

किस मेँ है हित मुझे समझेना। समझे मन को वैसे वो चले ना।।
ऐसा हुआ त्रस्त मैं समर्था। नमस्कार मेरा तुम्हें साईनाथा।। 7

तुम्हें योग्य लगे वो तुम करना। शिशु अपने बाप को कैसे सिखाए।।
गणू की ही करो मन में हमेशा चिंता। नमस्कार मेरा तुम्हें साईनाथा।। 8

ऊँ साई नाथाय नमः।।

 


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