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Main Section => Inter Faith Interactions => Guru Ki Vani - गुरू की वाणी => Topic started by: PiyaSoni on January 17, 2013, 11:39:57 PM

Title: मानवीय मूल्यों के रक्षक - गुरु गोबिंद सिंह जी (प्रकाश पर्व )
Post by: PiyaSoni on January 17, 2013, 11:39:57 PM
'सूरा सो पहचानिए जो लड़े दीन के हेत'

(http://l.yimg.com/ki/epaper/jagran/20130116/04/LDHg-1.-gobind-singh-poster-345_1358292098.jpg_m.-gobind-singh-poster-345.jpg)

सिख संप्रदाय की स्थापना का उद्देश्य मुख्य रूप से हिन्दुओं की रक्षा करना था. इस संप्रदाय ने भारत को कई अहम मौकों पर मुगलों और अंग्रेजों से बचाया है. सिखों के दस गुरु माने गए हैं जिनमें से आखिरी गुरु थे गुरु गोबिंद सिंह. खालसा पंथ के संस्थापक दशम गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी को एक महान स्वतंत्रता सेनानी और कवि माना जाता है. गुरु गोबिंद सिंह जी को त्याग और वीरता की मूर्ति भी माना जाता है.

“सवा लाख से एक लड़ाऊँ चिड़ियों सों मैं बाज तड़ऊँ तबे गोबिंदसिंह नाम कहाऊँ”
गुरु गोविंद साहब को सिखों का अहम गुरु माना जाता है. उनकी सबसे बड़ी विशेषता उनकी बहादुरी थी. उनके लिए यह शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं “सवा लाख से एक लड़ाऊँ.”

गुरु गोबिंद साहिब

श्री गुरु गो‍बिंद सिंह जी सिखों के दसवें गुरू हैं. इनका जन्म पौष सुदी 7वीं सन 1666 को पटना में माता गुजरी जी तथा पिता श्री गुरु तेगबहादुर जी के घर हुआ. उस समय गुरु तेगबहादुर जी बंगाल में थे. उन्हीं के वचनानुसार बालक का नाम गोविंद राय रखा गया और सन 1699 को बैसाखी वाले दिन गुरुजी पंज प्यारों से अमृत छक कर गोविंद राय से गुरु गोविंद सिंह जी बन गए. इनका बचपन बिहार के पटना में ही बीता. जब 1675 में श्री गुरु तेगबहादुर जी दिल्ली में शहीद हुए तब गुरु गोबिंद साहब जी गुरु गद्दी पर विराजमान हुए.

खालसा की स्थापना

गुरु गोबिंद सिंह जी ने ही 1699 ई. में खालसा पंथ की स्थापना की. ख़ालसा यानि ख़ालिस (शुद्ध) जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो. पांच प्यारे बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा देकर स्वयं उनके शिष्य बन जाते हैं और कहते हैं-जहां पाँच सिख इकट्ठे होंगे, वहीं मैं निवास करूंगा. उन्होंने सभी जातियों के भेद-भाव को समाप्त करके समानता स्थापित की और उनमें आत्म-सम्मान की भावना भी पैदा की. गोविन्द सिंह जी ने एक नया नारा दिया था – वाहे गुरु जी का ख़ालसा, वाहे गुरु जी की फतेह. दमदमा साहिब में आपने अपनी याद शक्ति और ब्रह्मबल से श्री गुरुग्रंथ साहिब का उच्चारण किया और लिखारी (लेखक) भाई मनी सिंह जी ने गुरुबाणी को लिखा.

पांच ककार

युद्ध की प्रत्येक स्थिति में सदा तैयार रहने के लिए उन्होंने सिखों के लिए पांच ककार अनिवार्य घोषित किए, जिन्हें आज भी प्रत्येक सिख धारण करना अपना गौरव समझता है:-

(1) केश: जिसे सभी गुरु और ऋषि-मुनि धारण करते आए थे.
(2) कंघा: केशों को साफ करने के लिए.
(3) कच्छा: स्फूर्ति के लिए.
(4) कड़ा: नियम और संयम में रहने की चेतावनी देने के लिए.
(5) कृपाण: आत्मरक्षा के लिए.

वीरता और धैर्यशीलता की मिसाल

गुरु गोबिंद सिंह ने अपनी जिंदगी में वह सब देखा था जिसे देखने के बाद शायद एक आम मनुष्य अपने मार्ग से भटक या डगमगा जाए लेकिन उनके साथ ऐसा नहीं हुआ. परदादा गुरु अर्जुनदेव की शहादत, दादागुरु हरगोविंद द्वारा किए गए युद्ध, पिता गुरु तेगबहादुर की शहीदी, दो पुत्रों का चमकौर के युद्ध में शहीद होना, दो पुत्रों को जिंदा दीवार में चुनवा दिया जाना वीरता व बलिदान की विलक्षण मिसालें हैं. इस सारे घटनाक्रम में भी अड़िग रहकर गुरु गोविंद सिंह संघर्षरत रहे, यह कोई सामान्य बात नहीं है.

गुरु गोविन्द सिंह ने अपना अंतिम समय निकट जानकर अपने सभी सिखों को एकत्रित किया और उन्हें मर्यादित तथा शुभ आचरण करने, देश से प्रेम करने और सदा दीन-दुखियों की सहायता करने की सीख दी. इसके बाद यह भी कहा कि अब उनके बाद कोई देहधारी गुरु नहीं होगा और ‘गुरुग्रन्थ साहिब‘ ही आगे गुरु के रूप में उनका मार्ग दर्शन करेंगे. गुरु गोविंदसिंह की मृत्यु 7 अक्टूबर सन् 1708 ई. में नांदेड़, महाराष्ट्र में हुई थी.

आज के समय गुरु गोबिंद सिंह का जीवन हमारे लिए बेहद प्रासंगिक है. आज उनकी शिक्षाएं हमारे जीवन को एक आदर्श मार्ग पर ले जाने में अति सहायक साबित हो सकती हैं.


वाहेगुरु जी का खालसा वाहेगुरु जी की फ़तेह !!