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Main Section => Inter Faith Interactions => Guru Ki Vani - गुरू की वाणी => Topic started by: rajiv uppal on January 08, 2008, 08:52:30 AM

Title: क्रांतिकारी युग-पुरुष थे गुरु गोविंदसिंहजी
Post by: rajiv uppal on January 08, 2008, 08:52:30 AM
जब-जब धर्म का ह्रास होता है, तब-तब सत्य एवं न्याय का विघटन भी होता है तथा अत्याचार, अन्याय, हिंसा और आतंक के कारण मानवता खतरे में होती है। उस समय भगवान दुष्टों का नाश एवं सत्य, न्याय और धर्म की रक्षा करने के लिए इस भूतल पर अवतरित होते हैं। गुरु गोविंदसिंहजी ने भी इस तथ्य का प्रतिपादन करते हुए कहा है, 'जब-जब होत अरिस्ट अपारा। तब-तब देह धरत अवतारा।'

दशम गुरु गोविंदसिंहजी स्वयं एक ऐसे ही महापुरुष थे, जो उस युग की आतंकवादी शक्तियों का नाश करने तथा धर्म एवं न्याय की प्रतिष्ठा के लिए सन्‌ 1666 में पटना शहर में माता गुजरी की कोख से पिता गुरु तेगबहादुरजी के यहाँ अवतरित हुए। इसी उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था, 'मुझे परमेश्वर ने दुष्टों का नाश करने और धर्म की स्थापना करने के लिए भेजा है।'

गुरु गोविंदसिंहजी क्रांतिकारी युग-पुरुष थे। वे एक स्वतंत्र अध्यात्म चिन्तक, भारतीय परंपराओं के संवर्द्धक, निष्ठावान धर्म-प्रवर्तक, सामाजिक समता और सामाजिक न्याय के संस्थापक, मानवतावादी लोक नायक और एक शूरवीर राष्ट्र नायक थे। वे सत्य, न्याय, सदाचार, निर्भीकता, दृढ़ता, त्याग एवं साहस की प्रतिमूर्ति थे।

उन्होंने सदैव मत-मतांतरों एवं संप्रदायों के धार्मिक अंधविश्वासों, आडंबरयुक्त धर्माचार्यों, पाखंडपूर्ण कर्मकांडों, अहंकारयुक्त साधना-पद्धतियों और रूढ़ियों का विरोध किया तथा त्याग, संतसेवा एवं हरिनाम स्मरण का उपदेश दिया। साथ ही वे सत्य और न्याय की रक्षा के लिए तथा दीनों एवं असहायों की प्रतिपालना के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे।

गुरु गोविंदसिंहजी ने भारतीय अध्यात्म परंपरा को नया आयाम दिया और उसमें साहस का समावेश करके अपने धर्म, अपनी जाति, अपने देश, अपनी स्वतंत्रता और अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए खड्ग को धारण करने का आह्वान किया।

इसी क्रम में खालसा पंथ की स्थापना (1699) देश के चौमुखी उत्थान की व्यापक कल्पना थी। बाबा बुड्ढ़ा ने गुरु हरगोविंद को 'मीरी' और 'पीरी' दो तलवारें पहनाई थीं। एक आध्यात्मिकता की प्रतीक थी, तो दूसरी सांसारिकता की। परदादा गुरु अर्जुनदेव की शहादत, दादागुरु हरगोविंद द्वारा किए गए युद्ध, पिता गुरु तेगबहादुर की शहीदी, दो पुत्रों का चमकौर के युद्ध में शहीद होना, दो पुत्रों को जिंदा दीवार में चुनवा दिया जाना, वीरता व बलिदान की विलक्षण मिसालें हैं।

गुरु गोविंदसिंह इस सारे घटनाक्रम में भी अडिग रहकर संघर्षरत रहे, यह कोई सामान्य बात नहीं है। यह उनके महान कर्मयोगी होने का प्रमाण है। देश की अस्मिता, भारतीय विरासत और जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए, समाज को नए सिरे से तैयार करने के लिए उन्होंने खालसा के सृजन का मार्ग अपनाया। गुरु गोविंदसिंहजी ने जिस प्रकार मानवतावादी दृष्टि का प्रतिपादन और प्रवर्तन किया, वह आज के युग में भी हमारा मार्गदर्शन कर रही है। आध्यात्मिक स्तर पर वे सभी प्राणियों को परमात्मा का रूप मानते थे। 'अकाल उस्तति' में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जैसे एक अग्नि से करोड़ों अग्नि स्फुर्ल्लिंग उत्पन्न होकर अलग-अलग खिलते हैं, लेकिन सब अग्नि रूप हैं, उसी प्रकार सब जीवों की भी स्थिति है। उन्होंने सभी को मानव रूप में मानकर उनकी एकता में विश्वास प्रकट करते हुए कहा है कि 'हिन्दू तुरक कोऊ सफजी इमाम शाफी। मानस की जात सबै ऐकै पहचानबो।'

गुरु गोविंदसिंह मूलतः धर्मगुरु थे, लेकिन सत्य और न्याय की रक्षा के लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए उन्हें शस्त्र धारण करना पड़े। औरंगजेब को लिखे गए अपने 'अजफरनामा' में उन्होंने इसे स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा था, 'चूंकार अज हमा हीलते दर गुजशत, हलाले अस्त बुरदन ब समशीर ऐ दस्त।' अर्थात जब सत्य और न्याय की रक्षा के लिए अन्य सभी साधन विफल हो जाएँ तो तलवार को धारण करना सर्वथा उचित है। उनकी यह वाणी सिख इतिहास की अमर निधि है, जो आज भी हमें प्रेरणा देती है।

आज मानवता स्वार्थ, संदेह, संघर्ष, हिंसा, आतंक, अन्याय और अत्याचार की जिन चुनौतियों से जूझ रही है, उनमें गुरु गोविंदसिंह का जीवन-दर्शन हमारा मार्गदर्शन कर सकता है।
Title: वीरता व बलिदान के प्रतीक गुरु
Post by: rajiv uppal on February 07, 2008, 08:54:32 AM
धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। इतिहास में ऐसी वीरता और बलिदान कम ही देखने को मिलता है। इसके बावजूद इतिहासकारों ने इस महान शख्सियत को वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हकदार हैं। इतिहासकार लिखते हैं कि गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार उठाई। जिस बालक ने स्वयं अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया हो, क्या संभव है कि वह स्वयं लडने के लिए प्रेरित होगा?

गुरु गोविन्द सिंह को किसी से वैर नहीं था, उनके सामने तो पहाडी राजाओं की ईष्र्या पहाड जैसी ऊंची थी, तो दूसरी ओर औरंगजेबकी धार्मिक कट्टरता की आंधी लोगों के अस्तित्व को लीलरही थी। ऐसे समय में गुरु गोविन्द सिंह ने समाज को एक नया दर्शन दिया-आध्यात्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए तलवार धारण करना। जफरनामा में स्वयं गुरु गोविन्द सिंह लिखते हैं- जब सारे साधन निष्फल हो जायें, तब तलवार ग्रहण करना न्यायोचित है। धर्म एवं समाज की रक्षा हेतु ही गुरु गोविन्द सिंह ने 1699ई.में खालसा पंथ की स्थापना की। खालसा यानिखालिस (शुद्ध), जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। उन्होंने सभी जातियों के वर्ग-विभेद को समाप्त कर न सिर्फ समानता स्थापित की बल्कि उनमें आत्म-सम्मान और प्रतिष्ठा की भावना भी पैदा की। उन्होंने स्पष्ट मत व्यक्त किया-मानस की जात सभैएक है।

गुरु नानक देव जी ने जहां विनम्रता और समर्पण पर जोर दिया था, वहीं गुरु गोविन्द सिंह ने आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता का संदेश दिया। समानता के आधार पर स्थापित खालसा पंथ में वे सिख थे, जिन्होंने किसी युद्ध कला का कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं लिया था। सिखों में यदि कुछ था तो समाज एवं धर्म के लिए स्वयं को बलिदान करने का जज्बा।

गुरु गोविन्द सिंह का एक और उदाहरण उनके व्यक्तित्व को अनूठा साबित करता है-पांच प्यारे बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा देकर स्वयं उनके शिष्य बन जाते हैं और कहते हैं-जहां पांच सिख इकट्ठे होंगे, वहीं मैं निवास करूंगा। खालसा मेरोरूप है खास, खालसा में हो करो निवास। सेनानायक के रूप में पहाडी राजाओं एवं मुगलों से कई बार संघर्ष किया। युद्ध के मैदान में उनकी उपस्थिति मात्र से सैनिकों में उत्साह एवं स्फूर्ति पैदा हो जाती थी। चण्डी चरित में लिखा सवैया शूरवीरों का मंत्र बन गया था-देह शिवा वर मोहिएहैभुभकरमनतेकबहूंन टरौ,न डरो अरि सो जब जाइलरोनिसचैकर अपनी जीत करो।

जहां शिवाजी राजशक्ति के शानदार प्रतीक हैं, वहीं गुरु गोविन्द सिंह एक संत और सिपाही के रूप में दिखाई देते हैं। क्योंकि गुरु गोविन्द सिंह को न तो सत्ता चाहिए और न ही सत्ता सुख। उनका विषय तो शान्ति एवं समाज कल्याण था। अपने माता-पिता, पुत्रों और हजारों सिखों के प्राणों की आहुति देने के बाद भी वह औरंगजेबको फारसी में लिखे अपने पत्र जफरनामा में लिखते हैं- औररंगजेब तुझे प्रभु को पहचानना चाहिए तथा प्रजा को दु:खी नहीं करना चाहिए। कुरान की कसम खाकर तूने कहा था कि मैं सुलह रखूंगा, लडाई नहीं करूंगा, यह कसम तुम्हारे सिर पर भार है। तू अब उसे पूरा कर। गुरु गोविंद सिंह एक आध्यात्मिक गुरु के अतिरिक्त एक महान विद्वान भी थे। उन्होंने पाउन्टासाहिब के अपने दरबार में 52कवियों को नियुक्त किया था। जफरनामा एवं विचित्र नाटक गुरु गोविन्द सिंह की महत्वपूर्ण कृतियां हैं। वह स्वयं सैनिक एवं संत थे। इसी भावनाओं का पोषण उन्होंने अपने सिखों में भी किया। सिखों के बीच गुरु गद्दी को लेकर कोई विवाद न हो इसके लिए उन्होंने गुरुग्रन्थ साहिब को गुरु का दर्जा दिया। इसका श्रेय भी प्रभु को देते हुए कहते हैं-आज्ञा भई अकाल की तभी चलाइयोपंथ, सब सिक्खनको हुकम है गुरू मानियहुग्रंथ।

गुरुनानक की दसवीं जोत गुरु गोविंद सिंह अपने जीवन का सारा श्रेय प्रभु को देते हुए कहते है-मैं हूं परम पुरखको दासा, देखन आयोजगत तमाशा। ऐसी शख्सियत को शत-शत नमन।