पांचवें गुरु अर्जुन देव जी ने सेवा और त्याग की शिक्षा देकर मानवता की सेवा की। उनकी अमर वाणी सुखमनी साहिब में संकलित है।
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पचम पातशाह श्री गुरु अर्जुन देव जी ने 17 वैशाख संवत 1620 विक्रमी (इस वर्ष 2 मई) को गोइंदवाल साहिब में पिता चौथे पातशाह श्री गुरु रामदास जी एवं माता बीबी भानी जी के घर तीसरे पुत्र के रूप में जन्म लिया था। उनके नाना तीसरे पातशाह श्री गुरु अमरदास जी अर्जुन देव जी की गुरुबाणी में गहरी रुचि और श्रद्धा को देखते हुए उन्हें दोहता-बाणी का बोहिथा (यानी नाती - वाणी का जहाज) कहा करते थे। तीसरे पातशाह के ज्योति जोत समाने के बाद वर्ष 1574 में अर्जुन देव जी गुरु पिता के पास अमृतसर आ गए और उनका हाथ बंटाने लगे। उनकी भक्ति, सेवा, त्याग-भावना और श्रेष्ठ व्यक्तित्व को देखते हुए चौथे पातशाह श्री गुरु राम दास जी ने वर्ष 1581 में ज्योति जोत समाने से पूर्व दोनों बड़े पुत्रों को अयोग्य मानते हुए अर्जुन देव जी को गुरुगद्दी सौंप दी। गुरु चौथे पातशाह ने यह वचन कहा- सरब सरारहि गुरता भार। अजर जरहिगो, नहि हंकार।। अर्थात यही भार उठाने योग्य है, क्योंकि इसमें अहंकार नहीं.. माता बीबी भानी जी ने कहा-पुत्र! यह कभी मत भूलना कि गुरु नानक देव जी ने गुरुगद्दी दास को दी, पुत्रों को नहीं।
गुरु अंगद देव जी और गुरु अमर दास जी ने भी सेवा की महानता को देखा। आप भी उन्हीं की तरह बड़े काम करना.. यह न भूलना कि गुरु साहिबान सेवक की सेवा पर ही रीझते रहे हैं। इस प्रकार पंचम पातशाह ने 16 सितंबर, 1581 को गुरु पिता से गुरुगद्दी प्राप्त की। उस समय उनकी उम्र मात्र 18 वर्ष 4 माह थी। गुरु जी का पूरा जीवन लोगों की भलाई करने में व्यतीत हुआ। उस समय बादशाह अकबर ने भी उनके कार्र्यो की प्रशंसा की थी। गुरुदेव शांत स्वभाव और गंभीर व्यक्तित्व वाले थे। उनके जीवन का उद्देश्य मानव कल्याण था। वे हमेशा लोगों की सेवा करने और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दिया करते थे। उनके कारण सिख धर्म लोकप्रिय होने लगा। यह बात जहांगीर को नागवार गुजरी। उसने अर्जुन देव जी को यातनाएं दीं। गुरुदेव ने यातनाओं को भी सहज भाव से लिया और मन में कोई बैरभाव नहीं आने दिया। गुरु अर्जुन देव जी ने अपनी वाणियों के माध्यम से दुखी मानवता को शांति का संदेश दिया। सुखमनी साहिब उनकी अमर-वाणी का संकलन है।
सुखमनी साहिब में चौबीस अष्टपदी हैं। इसमें साधना, नाम-सुमिरन, सेवा और त्याग, मानसिक दुख-सुख एवं मुक्ति की अवस्थाओं पर वाणी के रूप में पद दिए गए हैं।
वाहेगुरु जी का खालसा
वाहेगुरु जी की फ़तेह !!
गुरु अरजन देव जी ने गलत बातों से समझौता न कर बलिदान को गले लगाया। उनसे ही सिख धर्म में बलिदान की परंपरा शुरू हुई। आज उनका बलिदान दिवस है....
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सिखों के पांचवे गुरु अरजन देव जी की शहादत सिख इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। गुरु जी के बलिदान ने उस विलक्षण शहीदी परंपरा को जन्म दिया, जो गुरु तेग बहादुर जी और चार पुत्रों से होती हुई आत्मबलिदानी सिंहों तक चलती रही।
अरजन देव जी ने अमृतसर साहिब में ‘हरिमंदर साहिब’ की स्थापना करके सिखों को एक केंद्रीय आध्यात्मिक स्थान दिया। ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ का संपादन करके उसे मानवता के अद्भुत मार्गदर्शक के रूप में स्थापित किया। गुरुजी की अद्वितीय प्रबंधन क्षमता ने सिख धर्म को आर्थिक दृष्टि से समृद्ध और प्रभावशाली संगठन बना दिया। कहा जाता है कि सिखों की यह उन्नति कुछ लोगों को रास नहीं आ रही थी। उनमें एक था-प्रिथीचंद, जो गुरु जी का बड़ा भाई था। उसे इस बात की नाराजगी थी कि पिता चौथे गुरु श्री रामदास जी ने बड़ा पुत्र होने के बावजूद उसे गुरु नहीं बनाया, इसलिए ईष्र्यावश वह हर समय गुरु जी का अहित करने का प्रयास करता। प्रिथीचंद लाहौर के नवाब को हर समय अरजन देव जी के विरुद्ध भड़कता रहता। दूसरी ओर लाहौर का दीवान चंदू गुरु हरिगोबिंद साहिब से अपनी बेटी का रिश्ता टूट जाने के कारण गुरु जी का द्रोही बन बैठा। चंदू ने भी गुरु जी के विरुद्ध अफवाहें फैलानी शुरू कर दीं। ऐसे माहौल में अक्टूबर, 1605 में नूरुद्दीन जहांगीर अकबर की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य के तख्त पर बैठा। अपनी आत्मकथा ‘तुजक-ए-जहांगीरी’ में उसने सिख गुरुओं के बारे बड़े अपशब्दों का प्रयोग किया। गुरु साहिब के विरोधी पहले अकबर की धर्म निरपेक्ष प्रवृत्ति के कारण कुछ नहीं कर पाते थे, लेकिन जहांगीर के बादशाह बनते ही वे सक्रिय हो गए। वे जहांगीर को गुरुजी के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए उकसाने लगे।
उधर, जहांगीर के छोटे पुत्र शहजादा खुसरो ने अपने पिता के खिलाफ बगावत कर दी, जिस पर जहांगीर ने खुसरो को गिरफ्तार करने का हुक्म दिया। खुसरो भयभीत होकर पंजाब की ओर भागा। जहांगीर ने खुद पीछा किया। खुसरो तरनतारन गुरु साहब के पास पहुंचा। गुरु घर में मेहमान का स्वागत सम्मान किया गया और सिख परंपरा के अनुसार आशीर्वाद दिया गया। इस पर जहांगीर ने उलटे-सीधे आरोप लगाकर गुरु जी को गिरफ्तार करने का हुक्म दे दिया। शांतिप्रिय गुरु जी स्वयं लाहौर पहुंचे। गुरु जी पर खुसरो की मदद करने और बादशाह से बगावत करने का दोष लगाया गया। गुरु जी भविष्य के बारे में जानते थे, इसलिए पहले ही बाल हरिगोबिंद साहिब को गुरुगद्दी सौंपकर शहादत को गले लगाने चल दिए।
जहांगीर ने गुरु जी को यातना देकर मारने का हुक्म दे दिया और लाहौर के हाकम मुर्तजा खान के हवाले कर दिया। उसने यह काम चंदू को सौंप दिया, ताकि वह अपनी घरेलू दुश्मनी निकाल सके। चंदू ने गुरु जी को असह यातनाएं दीं, लेकिन गुरु जी निरंतर ‘तेरा कीआ मीठा लागै’ और ‘तेरे भाणो विच अम्रित वसै’ का जाप करते रहे। पांच दिन तक लगातार यातनाएं देने के बाद ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष चतुर्थी, संवत 1663 (12 जून, 1606) को गुरु जी के अर्ध मूर्छित शरीर को रावी नदी में बहा दिया गया।
वाहेगुरु जी का खालसा
वाहेगुरु जी की फ़तेह !!