जय सांई राम।।।
रमज़ान में निहित है 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना
रमज़ान के महीने में रोज़े रखने के साथ और भी कई बातें होती हैं, जिन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है, जैसे .फतरा और ज़कात। .फतरा एक तरह का दान है जो हर मुसलमान अपनी और अपने आश्रितों की ओर से ईद की नमाज से पहले गरीबों के लिए अदा करता है। इसीलिए ईद को ईद-उल-.फतर भी कहते हैं, यानी ऐसा त्योहार जिसमें दूसरों को देकर खुशी हासिल हो।
ज़कात दान की जाने वाली वह रकम है, जिसे अपनी दौलत से निकाला जाता है। ज़कात हर पैसे वाले और अमीर पर वाजिब है। ज़कात का औसत रुपये में ढाई पैसे होता है, यानी अगर आप एक रुपया कमाते हैं तो उसमें ढाई पैसा दान के लिए जरूर निकालें।
फतरा और ज़कात अनाथ, मालूम और गरीबों के लिए होती है, जिससे वे लोग भी अपनी खुशियों का आनन्द ले सकें तथा अपना जीवन सुखी बना सकें। .फतरे और ज़कात की अदायगी के बगैर रमज़ान अधूरा माना जाता है। ये शासन की ओर से लगाए जाने वाले करों में शामिल नहीं माने जाते, इन्हें अपने व्यक्तिगत पैसों में से अलग से अदा किया जाता है।
अगर आपने अपनी तनख्वाह में से दो परसेंट का सेस गरीब बच्चों की पढ़ाई के लिए या सुनामी पीड़ितों के लिए दिया है, तो उसे ज़कात या .फतरा नहीं माना जाता। सबसे बड़ी और खूबसूरत बात यह है कि इस्लाम में ज़कात देने में मजहब कभी आड़े नहीं आता, ज़कात मुस्लिम अथवा गैर मुस्लिम किसी भी जरूरतमंद को दिया जा सकता है।
इस्लाम में कहा गया है कि सबसे पहले अपने पड़ोस में देखो कि कौन जरूरतमंद है, फिर मोहल्ले में, फिर रिश्तेदारों में, फिर अपने शहर में, उसके बाद किसी और की जरूरतों को पूरा करने की कोशिश करो।
इस्लाम में पांच फर्ज बताए गए हैं, इनमें से एक फर्ज रमज़ान भी है। रमज़ान हर बालिग पर फर्ज है और जितनी खू़बियां इस महीने में बताई गई हैं उतनी किसी और दिन अथवा महीने की नहीं, इसलिए रमजान को बरकत और मग.फरत का महीना कहा जाता है।
रमज़ान दिलों को मिलाने का काम करता है। यह दूसरों के दुखों और जरूरतों को समझने में मदद करता है, साथ ही उन्हें दूर करने के उपाय भी बताता है। रमज़ान दिलों में गुंजाइश पैदा करता है और यह समझाता है कि हम सिर्फ खुद के लिए ही नहीं, बल्कि दूसरों के लिए भी जीना सीखें अर्थात पूरे विश्व को अपना समझें। रमज़ान 'वसुधैव कुटुम्बकम' का एक बहुत ही बढ़िया उदाहरण प्रस्तुत करता है।
रमज़ान में रोज़े रखने के भी कुछ नियम तय हैं। सहर यानी सूर्योदय से लेकर म़गरिब यानी सूर्यास्त तक व्रत का पालन किया जाता है जिसमें प्रतिदिन की नमाज़ों के साथ- साथ तरावियों का भी पढ़ना जरूरी माना जाता है। रात की नमाज के बाद की जाने वाली विशेष इबादत के रूप में तरावियों का पढ़ना माहे रमज़ान की इबादत का एक महत्वपूर्ण अंग है।
इस्लाम में कहा गया है कि रमजान का महीना बड़ा बरकत वाला है। इस महीने अल्लाह अपने बंदों पर से सख्तियां उठा लेता है साथ ही रिज्क में भी बढ़ोतरी कर देता है। अल्लाह कहता है कि रोज़े रखो और जानो कि भूख- प्यास क्या होती है, इससे तुम्हें उन लोगों की तकलीफ का भी अहसास होगा जो गरीबी और मजबूरी में भूख- प्यास झेल रहे हैं। भूखे- प्यासे लोगों के लिए अपने हिस्से में से खाना पानी निकालो और उन तक पहुंचाओ।
माहे रमजान की एक विशेषता यह भी बताई जाती है कि इस महीने किए जाने वाले नेक कामों का पुण्य बढ़ जाता है। रमजान में की जाने वाली एक नेकी सत्तर नेकियों के बराबर मानी जाती है इसलिए मुसलमान इस महीने अधिक से अधिक पुण्य कमाने की कोशिश करते हैं। इसीलिए भी दान- दक्षिणा का काम पूरे जोर- शोर से किया जाता है। सभी अपनी- अपनी हैसियत के अनुसार भलाई, नेकी और समाज सेवा में जुटते हैं। रमजान नेकी और भलाई की राह दिखाने वाला महीना है। साथ ही अपने गुनाहों से तौबा करने का भी महीना है। यह अपने जीवन की तमाम बुराइयों और कमियों तथा नफस (इन्द्रियों) पर विजय पाने का भी महीना है।
अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई
ॐ सांई राम।।।“