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Main Section => Inter Faith Interactions => Kabir Vani => Topic started by: rajiv uppal on February 08, 2008, 10:32:30 AM

Title: कबीर: एक समाजसुधारक कवि
Post by: rajiv uppal on February 08, 2008, 10:32:30 AM
भगत कबीर को हमने सन्त कबीर के रुप में जाना है, सन्त भी कविता करने वाले, समाज की विषमताओं पर व्यंग्य करने वाले। कबीर जैसे सन्त मध्यकाल की विषम व अंधकारमय समय में अपने ज्ञान का आलोक लेकर आए थे। कबीर का काल विधर्मी शासकों का काल था, जिनके पास बात-बात पर निर्दोष जनता का खून बहाने और कर लगाने के सिवा कोई काम न था, जिससे वे स्वयं खुल कर ऐयाशी भरा जीवन बिता सकें। मुगलों का हिन्दुओं पर तो प्रकोप था ही, उस पर हिन्दु धर्म के ठेकेदार कर्मकाण्ड को बढावा देकर अपना उल्लू सीधा कर रहे थे। बेचारी जनता मुगल शासकों के प्रकोप व धार्मिक अन्धविश्वासों के बीच पिसी जा रही थी। ब्राह्मण और सामन्त लोगों का अपना वर्ग था, जो चाटुकारिता से मुगलों से तो बना कर रखते थे और निम्न वर्ग का धर्म व शासन के नाम पर शोषण करते थे। ऐसे में कबीर ने इस ब्राह्मणवादी प्रवृत्ति व धार्मिक कट्टरता के उन्मूलन का बीडा उठाया था।

हांलाकि उनसे पहले रामानन्द आदि द्वारा भी यह प्रयास किये गए पर कबीर के प्रयास अधिक सफल रहे।

यद्यपि समाजसुधार या भाषणबाजी की प्रवृत्ति फक्कड क़वि कबीर में नहीं थी, किन्तु वे समाज की गंदगियों को साफ करना अवश्य चाहते थे। बस यही प्रवृत्ति उनको सुधारकों की श्रेणी में ला खडा करती है। कहने का अर्थ यह है कि समाजसुधारक बनने की आकांक्षा के बिना ही अपने निरगुन राम के दीवाने कबीर को स्वत: ही सुधारक का गरिमामय पद उनकी इस प्रवृत्ति के चलते प्राप्त हुआ। वास्तव में तो वे मानव मात्र के दु:ख से पीडित हो उसकी सहायता मात्र के लिये उठे थे। जनता के द:ुख और उसकी वेदना से फूट कर ही उनके काव्य की अजस्त्र धारा बही थी। मिथ्याडम्बरों के प्रति प्रतिक्रिया कबीर का जन्मजात गुण था। वे हर तथ्य को आत्मा व विवेक की कसौटी पर परखते थे। डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि, ''सहज सत्य को सहज ढंग से वर्णन करने में कबीर अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं जानते।''

कबीर की पावन वाणी आज के समाज और उसकी विषमताओं के परिप्रेक्ष्य में उतनी ही खरी व तोजोमय तथा उपयोगी है जितनी कि तब थी। आज भी धर्म के नाम पर वैमनस्य और आडम्बर हमारे समाज को निन्दनीय बना रहे हैं। कबीर वाणी तब तक सामयिक व उपयोगी रहेगी जब तक ये आडम्बर तथा मन के भोगविषयक आकर्षण बने रहेंगे। धर्मों व समाज के वर्गों का भेदभाव बना रहेगा तब तक कबीर की ओजस्व पूर्ण वाणी हमें सत्य का दर्शन कराती रहेगी। कबीर का समाज सुधारक रूप युगों तक अपनी भूमिका निभायेगा।

समाज की अप्रिय रीति को देखकर उस पर उन्होंने इतने तीखे प्रहार किये कि धार्मिक आडम्बरों और ढोंग और पण्डों, मौलवियों के दिखावों की धज्जियां उड ग़यीं। कबीर की वाणी में तीखा और अचूक व्यंग्य मिलता है, जो कि विशुध्द बौध्दिकता की कसौटी पर खरा उतरा हो। आज भी हिन्दी में उनके तीखे व्यंग्यों की तुलना में हिन्दी में कोई लेखक नहीं। तर्क का सहारा लेने वाले तर्कवादियों को उन्होंने मूर्ख व मोटी बुध्दि वाला कहा है। क्योंकि जीवन की हर बात तर्क से सिध्द नहीं होती।

'' कहैं कबीर तरक जिनि साधै, तिनकी मति है मोटी।''

उनके इन तीखे प्रहारों में विद्रोह, हीनता तथा वैमनस्य का भाव नहीं है। उनकी कटु उक्तियों में भी द्वेष या आत्मश्लाघा नहीं है। किन्तु एक आत्मविश्वास है स्वयं की आत्मा को तमाम विषमताओं के बीच शुध्द रखने का। यहा/ वे सुर नर मुनि की आत्मिक शुध्दता को चुनौती देते प्रतीत होते हैं।

'' सो चादर सुर नर मुनि ओढि, ओढि क़ै मैली कीनी चदरिया।
दास कबीर जतन से ओढि, ज्यों कि त्यों धर दीनी चदरिया।''

समाज में फैले धार्मिक अंधविश्वासों के चलते उन्होंने अपनी आलोचना में हिन्दु या मुसलमान नहीं देखा सबके मिथ्याचारों पर कटाक्ष किये। ब्राह्मणों ने जन्म के आधार पर ही चाहे आचरण कितना निम्न क्यों न हो अपनी श्रेष्ठता समाज पर थोप रखी थी। वे कहते थे कि एक बिन्दु से निर्मित पंचतत्व युक्त यह मानव देह और सबका निर्माता एक ही ब्रह्मा रूपी कुम्हार तो फिर जन्म के आधार पर यह भेद क्यों?

'' जो तू बाम्हन, बाम्हनी जाया।
आन बाट व्है क्यों नहीं आया।।''

एक पद में तो उन्होंने पण्डितों के प्रपंच से खुलकर पूछा है उनमें शूद्रों से भला कौनसी श्रेष्ठता है?

''काहे को कीजै पाण्डे छोति बिचारा।
छोतहि ते उपजा संसारा।।
हमारै कैसे लहू, तुम्हारे कैसे दूध।
तुम्ह कैसे ब्राह्मण पांडे हम कैसे सूद।।
छोति छोति करत तुम्हही जाय।
तौं ग्रभवास काहे को आए।।''

ब्राह्मण तथा शूद्र की ही नहीं, हिन्दु तथा मुसलमानों के बीच भी वैमनस्य व भेदभाव की खाई को पाटने का पावन प्रयास किया। दोनों धर्मों के लोग तब भी एक दूसरे पर कीचड उछालते थे और अपने अंधविश्वासों की ओर देखते तक न थे। कबीर ने दोनों धर्मों की कुप्रथाओं की ओर ध्यान खींच कर दोनों धर्मों के बीच सामन्जस्य करवाने की शुरुआत की थी। दोनों जातियों के दोषों को समान रूप से उजागर किया।

'' ना जाने तेरा साहिब कैसा है।
मसजिद भीतर मुल्ला पुकारै, क्या साहिब तेरा बहिरा है?
चिंउटी के पग नेवर बाजे, सो भी साहिब सुनता है।
पंडित होय के आसन मारै लम्बी माला जपता है।
अन्दर तेरे कपट कतरनी, सो भी साहब लखता है।''

दोनों मतों के दोष प्रकट करने में कबीर ने पूर्ण निष्पक्षता से काम लिया है। यदि उन्होंने हिन्दुओं की पत्थर पूजा पर कटाक्ष किया है _

'' हम भी पाहन पूजते होते बन के रोज।
सतगुरु की किरपा भयी, डारया सिर थै बोझ।।''

तो दूसरी ओर मुसलमानों की अजान आदि पर भी व्यंग्य किया है।

'' कंकड पाथर जोड क़े मसजिद ली चिनाय।
चढ क़र मुल्ला बांग दे क्या बहिरा हुआ खुदाय।।''

जातीय विभेद को दूर करने के अलावा कबीर ने सामाजिक आचरण में व्याप्त भ्रष्तता को भी इंगित किया। कबीर की वाणी ने समाज के लिये बडा उपकार किया। उन्होंने सात्विक आचरण पर जोर दिया। कबीर के युग में वासना का प्रचंड स्वरूप फैला था। कबीर ने उसका डट कर सामना किया, और सात्विक वृत्तियों को बढावा दिया। हालांकि इसके लिये उन्होंने स्त्री की भरसक निन्दा की, पर वहां स्त्री का माँ, बहन व सहचरी रूप नहीं बल्कि काम्य स्वरूप की निन्दा की है।

'' कामणि काली नागणी, तिन्यू लोक मंझारि
रामसनेही ऊबरे, विषयी खाये झारि।।''

मन को नियंत्रित रखने पर कबीर ने बहुत बल दिया है। कबीर जानते थे कि समस्त इन्द्रियों का संचालक आकर्षणों में रमने वाला यह मन ही है यदि इसे वश में कर लिया तो फिर सब कुछ जीत लिया।

'' कबीर मारुं मन कूं, टूक टूक व्है जाई।
विष की झारी बोई करि, लुणत महा पछताई।''

दर्शन व धर्म के क्षेत्र में कबीर का कार्य बहुत महान है। कबीर के समय में प्रचलित नानाधर्मों और उनके बाहरी आडम्बरों में से किसी को भी अछूता नहीं छोडा कबीर ने। उन्होंने समस्त धर्मों के आडम्बरों का परदा खोल समस्त साधनाओं और सर्वधर्म का सार लेकर जनता को धर्म का अनोखा व सहज रूप दिखाया जो सर्वग्राह्य व सर्वसुखकारी था। जैन, वैष्णव धर्म जिससे कि स्वयं कबीर प्रभावित थे, के दोषों को भी कबीर ने नहीं छोडा।

'' बैस्नों भय तो क्या भया, बूझा नहीं विवेक।
छापा तिलक बनाई कर, दग्ध्या लोक अनेक।।''

पूजा, तीर्थ, व्रत आदि का भी कबीर ने खुल कर विरोध किया।

''पूजा, सेवा, नेम, व्रत गुडियन का सा खेल।
जब लग पिउ परसै, तब लग संसय मेल।।''

योगियों की हठसाधना में भी कबीर ने कुछ शब्दों की अर्थ भ्रान्ति को दूर किया है।

'' सहज सहज सब ही कहैं, सहज न चीन्हे कोय।
जो कबीर विषया तजै, सहज कहीजै सोय।।''

वास्तव में कबीर ने मध्यकाल में अपने इन अमृत वचनों से भटकती जनता का उपकार किया था। यही नहीं कबीर वाणी आज के इस विषय व काम प्रभावी युग में भी उतनी ही सामयिक व उपयोगी है जितनी कि तब थी। आज भी भौतिकतावाद के अन्धकार तथा विभिन्न धर्मों जातियों के भेद से हम कहां मुक्त हो सके हैं, ऐसे में कबीर के ये अमृत वचन आज भी मानव के लिये प्रकाश का मार्ग आलोकित करती हैं।