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Main Section => Inter Faith Interactions => Kabir Vani => Topic started by: rajiv uppal on February 08, 2008, 10:34:21 AM

Title: कबीर की भक्ति
Post by: rajiv uppal on February 08, 2008, 10:34:21 AM
कबीर के काल में जब आम जनमानस नाना प्रचलित धर्म साधनाओं के फेर में पड असमंजस में था, तब कबीर ने अपनी भक्ति का ऐसा आधार जनता को दिया कि वह निर्गुण निराकार राम के रस में भावविव्हल हो उठी। कबीर हर धर्म की अच्छाईयों से प्रभावित हुए और हर धर्म की बुराइयों पर उन्होंने प्रहार किये और उन्हें जनचेतना के द्वारा दूर करने का प्रयास किया।

कबीर की भक्ति पर वैष्णव विचारधारा का आंशिक प्रभाव पडा, कबीर पर सिध्द और नाथ पंथी योगियों का भी प्रभाव पडा, कबीर पर सूफी मत का भी काफी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। यही नहीं कबीर पर वैदिक साहित्य का प्रभाव ही नहीं पडा वरन् उन्हें वैदिक साहित्य का अच्छा खासा ज्ञान भी था। उनके लिये तो आचार्य क्षितिमोहन सेन ने यह कहा है कि, '' कबीर की आध्यात्मिक क्षुधा और आकांक्षा विश्वग्रासी है। वह कुछ भी नहीं छोडना चाहती, इसलिये वह ग्रहणशील है; वर्जनशील नहीं, इसलिये उन्होंने हिन्दु, मुसलमान, सूफी, वैष्णव, योगी प्रभृति सब साधनाओं को जोर से पकड रखा है।''

कबीर साहित्य के मर्मज्ञ श्री गोविन्द त्रिगुणायत का लिखते हैं, '' वस्तुत: कबीर ने मधुमक्खी के समान अपने समय में विद्यमान समस्त धर्म साधनाओं और निजी के योग से अपनी भक्ति का ऐसा छत्ता तैयार किया है जिसका मधु अमृतोपम है, जिसका पान कर भारतीय जन मानस कृत कृत्य हो उठा है। यह मधु अक्षुण्ण है, युगों से भारतीय इसकी मधुरिमा का रसास्वादन कर रहे हैं।''

कबीर ने अपनी भक्ति में जिस निर्गुण आराध्य का वर्णन किया है वह उपनिषदों की अद्वैती भावना के प्रभाव से प्रभावित है। कबीर की ब्रह्मभावना अधिकांश अद्वैती है किन्तु कहीं अद्वैत से भिन्न भी है। इसलिये कबीर किसी सिध्दान्त के अनुयायी नहीं न ही प्रस्थापक हैं। उनका ब्रह्म उनके अनुभवों की देन है। कबीर पहले साधक हैं फिर कवि। वे अपनी भक्ति साधना में जिस जिस रूप में अपने ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं उसी रूप में उसे वर्णित करते जाते हैं। वे  निज ब्रह्म विचार और  आतम साधना में विश्वास करते हैं। यही कारण है कि कबीर का ब्रह्म कभी किसी रूप में कभी किसी रूप में हमारे सामने आता है। यह तर्क और किसी दार्शनिक सिध्दान्त से बहुत ऊपर है, बस अनुभवों और अनुभूतियों का विषय है।

कबीर कहते हैं _

'' कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूंढे बन माहिं।
ऐसे घट घट राम हैं, दुनिया देखे नाहिं।।''

वे ईश्वर की अद्वैत सत्ता को स्वीकार करते हैं। वास्तव में उनका प्रभु रोम रोम और सृष्टि के कण कण में बसा है। वह मन में होते हुए भी दूर दिखाई देता है, किन्तु जब प्रियतम पास ही हो तो उसे संदेश भेजने की क्या आवश्यकता? इसलिये कबीर कहते हैं _

'' प्रियतम को पतिया लिखूं, कहीं जो होय बिदेस।
तन में, मन में, नैन में, ताकौ कहा संदेस ''

वास्तव में प्रिय के साथ इस संदेश व्यवहार को वे दिखावा मात्र मानते हैं, कृत्रिमता मानते हैं। जब ईश्वर रूपी प्रिय की सत्ता हर स्थान पर विद्यमान हो तो इस दिखावे की आवश्यकता क्या है?

'' कागद लिखै सो कागदी, कि व्यवहारी जीव।
आतम दृष्टि कहा लिखै, जित देखे तित पीव।।''

कबीर ने अपने प्रिय की उपस्थिति उसी प्रकार सर्वत्र मानी है जिस प्रकार अद्वैत भावना के पोषक प्रतिबिम्बवाद में। वे भी ईश्वर की सर्वव्यापकता को गहराई से अनुभव किया करते थे।

'' ज्यूं जल में प्रतिबिम्ब, त्यूं सकल रामहि जानीजै।''

इन दोहों में प्रकाशित उनकी अद्वैत भावना के साथ यह स्वत: ही स्पष्ट हो जाता है कि उनका ब्रह्म निर्गुण निराकार है।

'' जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, इहिं तथ कथ्यौ ज्ञानी।।''

'' जाके मुंह माथा नहीं, न ही रूप सुरूप।
पुहुप बास ते पातरा ऐसा तत्व अनूप।।''

कबीर की निर्गुण भक्ति में साकार ब्रह्म के जो तत्व आ गये हैं, वे कोरे तीव्र भक्ति भावना के द्योतक नहीं हैं, अपितु जन मन में साकार स्वरूप की जो उपासना प्रचलित थी उसका विरोध करते हुए भी कबीर कहीं न कहीं उसके प्रभाव से बच नहीं सके हैं। वास्तव में लोकप्रचलित परम्परा कहीं न कहीं प्रतिबिम्बित हो ही जाती है। कबीर की भक्ति सरस और विलक्षण है, जिसे आप किसी सीमा में नहीं बांध सकते। कबीर ने भक्ति को मुक्ति का एकमात्र साधन माना है।

'' भक्ति नसैनी मुक्ति की।''

''क्या जप क्या तप क्या संजम क्या व्रत और क्या अस्नान
जब लगी जुगत न जानिये, भाव भक्ति भगवान।।''

सर्वस्व समर्पण के साथ साथ अपने अस्तित्व को साध्य में लीन करने की उत्कृष्ट भावना कबीर में परिलक्षित होती है। यही कारण है कि वे ईश्वर के गुलाम बनने में भी नहीं हिचकते।

'' मैं गुलाम मोहि बेचि गुंसाईं।
तन मन धन मेरा राम जी के तांई।।''

ईश्वर सामीप्य की भावना तो उनसे यह तक कहलवा लेती है _

'' कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ।
गले राम की जेवडी ज़ित खैंचे तित जाऊँ।।

विरह भी कबीर की भक्ति का एक अंग है।

'' मन परतीति न प्रेम रस, ना इस तन में ढंग।
क्या जाणौ उस पीव सूं कैसी रहसि संग।।''

कबीर काव्य की यह तडप अद्भुत है। ऐसे अलौकिक प्रिय को जब आत्मा नहीं पाती तो उसके वियोग में विचलित रहती है। जब से गुरु ने उस परमात्मा का ज्ञान करवाया है, भक्त तभी से उसके लिये व्याकुल है।

''गूंगा हुआ बावला,बहरा हुआ कान।
पाँऊ थें पंगुल भया, सतगुरु मारा बान।।''

कबीर के भक्ति व्याकुल मन ने विरह का जो वर्णन किया है वह इतना मार्मिक तथा स्वाभाविक है कि लगता है कबीर का पौरुषत्व यहाँ समाप्त हो गया है और उनकी आत्मा ने स्त्री रूप में प्रियतम के लिये यह शब्द कहे हैं।

''बिरहनी उभी पंथ सिरि, पंथी बूझै धाई।
एक सबद कह पीव का कबर मिलेंगे आई।।''

जब भक्त का मन विरह से दग्ध हो उठता और प्रिय के वियोग में टूक टूक हुआ जाता है तब वह विवश हो ईश्वर से यह कह बैठता है।

''कै बिरहणी कूं मीच दै, कै आपा दिखलाए ।
आठ पहर का दाझणा, मो पै सहा न जाए।।''

वास्तव में यह प्रेम का चरमोत्कर्ष है, जो प्रभु प्रियतम के अभाव में भी आत्मा परमात्मा, भक्त भगवान के अटूट प्रेम की उद्धोषणा कर रहा है।

कबीर की भक्ति में निष्काम भाव है कि यदि उन्हें प्रभु प्राप्त भी हो जाएं तो उनसे वे किसी कामना सिध्दि की बात नहीं सोचते। उनकी एकमात्र कामना है _

'' नैनन की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय।
पलकन की चिक डारिकै, पिय को लेऊं रिझाय।।''

भक्ति में कामना के घोर विरोधी थे कबीर _

'' जब लगि भगति सकामता तब लगि निष्फल सेव ''

इसलिये अन्त समय में भी कबीर ने प्रभु में ध्यान लगाने की बात कही है।

'' कबीर निरभै राम जपि, जब लग दीवै बाती।
तेल घटया बाती बुझी, सोवेगा दिन राति।।''

कबीर की भक्ति में पुस्तकीय ज्ञान का कोई महत्व नहीं था। उनका विश्वास था कि ईश्वर में लगायी अटूट लय ही मुक्ति के लिये काफी है। भक्त के लिये तो बस इतना काफी है कि वह विषय वासनाओं से मुक्त हो ईश्वरीय प्रेम को प्राप्त करे।

'' पोथि पढ पढ ज़ग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढे सो पंडित होय।।''

'' कबीर पढिवा दूर कर, पोथी देय बहाय।
बावन आखर सोध कर, रमैं ममैं चित्त लाय।।''

कबीर की भक्ति में कोई भेदभाव नहीं। भक्ति के द्वार सबके लिये खुले हैं। सबकी रचना उन्हीं पंच तत्वों से हुई है और सबका रचयिता वही पिता परमात्मा है।

'' जाति पांति पूछै नहिं कोई।
हरि को भजै सो हरि का होई।।''

कबीर के अनुसार भक्ति मार्ग पर तो एकमात्र मार्गदर्शक गुरु ही हैं। गुरु के बिना भक्ति मार्ग कौन प्रशस्त करेगा?

'' सतगुरु की महिमा अनत, अनत किया उपकार।
लोचन अनत उघाडिया, अनत दिखावन हार।।''

उस पर साधु संगति, जिसकी महिमा का भी कोई बखान नहीं। इसे कबीर ने स्वर्ग से अधिक महत्व दिया है।

'' राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय।
जो सुख साधु संग में, सो बैकुंठ न होय।।''

कबीर की भक्ति अद्भुत है, बहुत समर्पित जो कि गंगा के समान पवित्र है, जिसके कई कई पावन घाटों पर जाने कितनी भटकते मन रूपी हिरणों को विश्रान्ति मिलती है।
Title: Re: कबीर की भक्ति
Post by: pankajg on July 21, 2011, 06:02:25 AM
great,very nice