Join Sai Baba Announcement List


DOWNLOAD SAMARPAN - Nov 2018





Author Topic: विरह का अंग~~~  (Read 2647 times)

0 Members and 1 Guest are viewing this topic.

Offline tana

  • Member
  • Posts: 7074
  • Blessings 139
  • ~सांई~~ੴ~~सांई~
    • Sai Baba
विरह का अंग~~~
« on: March 19, 2008, 01:40:49 AM »
  • Publish
  • ॐ सांई राम~~~

    विरह का अंग~~~

    अंदेसड़ा न भाजिसी, संदेसौ कहियां ।
    कै हरि आयां भाजिसी, कै हरि ही पास गयां ॥1॥

    भावार्थ - संदेसा भेजते-भेजते मेरा अंदेशा जाने का नहीं, अन्तर की कसक दूर होने की नहीं, यह कि प्रियतम मिलेगा या नहीं, और कब मिलेगा; हाँ यह अंदेशा दूर हो सकता है दो तरह से - या तो हरि स्वयं आजायं, या मैं किसी तरह हरि के पास पहुँच जाऊँ

    यहु तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं ।
    लेखणिं करूं करंक की, लिखि-लिखि राम पठाउं ॥2॥

    भावार्थ - इस तन को जलाकर स्याही बना लूँगी, और जो कंकाल रह जायगा, उसकी लेखनी तैयार कर लूँगी । उससे प्रेम की पाती लिख-लिखकर अपने प्यारे राम को भेजती रहूँगी । ऐसे होंगे वे मेरे संदेसे ।

    बिरह-भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ ।
    राम-बियोग ना जिबै जिवै तो बौरा होइ ॥3॥

    भावार्थ - बिरह का यह भुजंग अंतर में बस रहा है, डसता ही रहता है सदा, कोई भी मंत्र काम नहीं देता । राम का वियोगी जीवित नहीं रहता , और जीवित रह भी जाय तो वह बावला हो जाता है ।

    सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त ।
    और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त ॥4॥

    भावार्थ - शरीर यह रबाब सरोद बन गया है -एक-एक नस तांत हो गयी है । और बजानेवाला कौन है इसका ? वही विरह, इसे या तो वह साईं सुनता है, या फिर बिरह में डूबा हुआ; यह चित्त ।

    अंषड़ियां झाईं पड़ीं, पंथ निहारि-निहारि ।
    जीभड़िंयाँ छाला पड़्या, राम पुकारि-पुकारि ॥5॥

    भावार्थ - बाट जोहते-जोहते आंखों में झाईं पड़ गई हैं, राम को पुकारते-पुकारते जीभ में छाले पड़ गये हैं। [ पुकार यह आर्त्त न होकर विरह के कारण तप्त हो गयी है..और इसीलिए जीभ पर छाले पड़ गये हैं ।]

    इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीव ।
    लोही सींची तेल ज्यूं, कब मुख देखौं पीव ॥6॥

    भावार्थ - इस तन का दीया बना लूं, जिसमें प्राणों की बत्ती हो ! और,तेल की जगह तिल-तिल बलता रहे रक्त का एक-एक कण । कितना अच्छा कि उस दीये में प्रियतम का मुखड़ा कभी दिखायी दे जाय ।

    `कबीर' हँसणां दूरि करि, करि रोवण सौं चित्त ।
    बिन रोयां क्यूं पाइए, प्रेम पियारा मित्त ॥7॥

    भावार्थ - कबीर कहते हैं - वह प्यारा मित्र बिन रोये कैसे किसीको मिल सकता है ? [रोने-रोने में अन्तर है । दुनिया को किसी चीज के लिए रोना, जो नहीं मिलती या मिलने पर खो जाती है, और राम के विरह का रोना, जो सुखदायक होता है।]

    जौ रोऊँ तौ बल घटै, हँसौं तो राम रिसाइ ।
    मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ ॥8॥

    भावार्थ - अगर रोता हूँ तो बल घट जाता है, विरह तब कैसे सहन होगा ? और हँसता हूं तो मेरे राम रिसा जायंगे । तो न रोते बनता है और न हँसते। मन-ही-मन बिसूरना ही अच्छा, जिससे सबकुछ खौखला हो जाय, जैसे काठ घुन लग जाने से ।

    हांसी खेलौं हरि मिलै, कोण सहै षरसान ।
    काम क्रोध त्रिष्णां तजै, तोहि मिलै भगवान ॥9॥

    भावार्थ - हँसी-खेल में ही हरि से मिलन हो जाय,तो कौन व्यथा की शान पर चढ़ना चाहेगा भगवान तो तभी मिलते हैं, जबकि काम, क्रोध और तृष्णा को त्याग दिया जाय ।

    पूत पियारौ पिता कौं, गौंहनि लागो धाइ ।
    लोभ-मिठाई हाथि दे, आपण गयो भुलाइ ॥10॥

    भावार्थ - पिता का प्यारा पुत्र दौड़कर उसके पीछे लग गया । हाथ में लोभ की मिठाई देदी पिता ने । उस मिठाई में ही रम गया उसका मन । अपने-आपको वह भूल गया, पिता का साथ छूट गया ।


    परबति परबति मैं फिर्‌या, नैन गँवाये रोइ ।
    सो बूटी पाऊँ नहीं, जातैं जीवनि होइ ॥11॥

    भावार्थ - एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर मैं घूमता रहा, भटकता फिरा, रो-रोकर आँखे भी गवां दीं । वह संजीवन बूटी कहीं नहीं मिल रही, जिससे कि जीवन यह जीवन बन जाय, व्यर्थता बदल जाय सार्थकता में ।

    सुखिया सब संसार है, खावै और सौवे ।
    दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रौवे ॥12॥

    भावार्थ - सारा ही संसार सुखी दीख रहा है, अपने आपमें मस्त है वह, खूब खाता है और खूब सोता है ।दुखिया तो यह कबीरदास है, जो आठों पहर जागता है और रोता ही रहता है । [धन्य है ऐसा जागना, ओर ऐसा रोना !किस काम का,इसके आगे खूब खाना और खूब सोना!]


    जा कारणि में ढूँढ़ती, सनमुख मिलिया आइ ।
    धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ ॥13॥

    भावार्थ - जीवात्मा कहती है - जिस कारण मैं उसे इतने दिनों से ढूँढ़ रही थी, वह सहज ही मिल गया, सामने ही तो था । पर उसके पैरों को कैसे पकड़ू ? मैं तो मैली हूँ, और मेरा प्रियतम कितना उजला ! सो, संकोच हो रहा है ।

    जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि हैं मैं नाहिं ।
    सब अंधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माहिं ॥14॥

    भावार्थ - जबतक यह मानता था कि `मैं हूं', तबतक मेरे सामने हरि नहीं थे । और अब हरि आ प्रगटे, तो मैं नहीं रहा । अँधेरा और उजेला एकसाथ, एक ही समय, कैसे रह सकते हैं ? फिर वह दीपक तो अन्तर में ही था ।


    देवल माहैं देहुरी, तिल जे है बिसतार ।
    माहैं पाती माहिं जल, माहैं पूजणहार ॥15॥

    भावार्थ - मन्दिर के अन्दर ही देहरी है एक, विस्तार में तिल के मानिन्द । वहीं पर पत्ते और फूल चढ़ाने को रखे हैं, और पूजनेवाला भी तो वहीं पर हैं । [अन्तरात्मा में ही मंदिर है, वहीं पर देवता है, वहीं पूजा की सामग्री है और पुजारी भी वहीं मौजूद है ।]

    जय सांई राम~~~
    "लोका समस्ता सुखिनो भवन्तुः
    ॐ शन्तिः शन्तिः शन्तिः"

    " Loka Samasta Sukino Bhavantu
    Aum ShantiH ShantiH ShantiH"~~~

    May all the worlds be happy. May all the beings be happy.
    May none suffer from grief or sorrow. May peace be to all~~~

     


    Facebook Comments