बूँद...जो बन गई मोती
यह सही है कि न उसके हाथ-पैरों में दम है, न सुनने की क्षमता... दृष्टि भी धुँधला गई है... फिर भी वह काम पर आती ही है।
आती है वह... हाँफ जाती है... आएगी... आँगन में बैठेगी... सुस्ताएगी, फिर खजूर की झाड़ू लेकर घंटे भर आँगन बुहारेगी। तब तक वह उसके लिए गरमा-गरम गिलास भर चाय और रात की दो रोटी ले आती है... कभी ताजा नाश्ता भी।
बरसों से रोज का यही क्रम... वक्त पर उसका आना... नाम का काम करना और उनका हर वार-त्योहार पकवान-बख्शीश के अलावा पगार भी देना हाट वाले दिन। पगार...? सिर्फ पैंतीस रुपए हफ्ता। क्या मायने रखते हैं पैंतीस रुपए... फिर भी लोगों को उसका आना और इनका उसे न छुड़ाना अखरता है?
कैसे छुड़ा दें वे आजीबाई को। उनके संकट के समय उसने जो साथ दिया था... कैसे भूल जाएँ? उन्हें तो रिश्तेदारों-मित्रों ने भनक तक नहीं लगने दी थी। परवारे ही सारी व्यवस्था... दौड़-भाग और योजना बन गई थी। उन्होंने भी कभी कल्पना ही नहीं की थी कि ‘जेम’ माने, कहलाने जाने वाले उनके पति हृदय में ऐसा दर्द छुपाए दुनियादारी में व्यस्त हैं।
देश का सबसे नामी चिकित्सा संस्थान... पैसा पानी की तरह बहा रहा था, इसी उम्मीद पर कि और कमा लेंगे। वे तो प्रभु पर सबकुछ छोड़ सुध-बुध खो चुकी थीं। उस वक्त इसी आजीबाई ने दुआ भरा हाथ उनके सिर पर रख पूरे घर की व्यवस्था एक माँ की तरह सँभाली थी। पूरा दिन बरामदे में बैठी रहती थी।
हाट वाला दिन आया... तो उन्हें आजीबाई का खयाल आया। हफ्ते के पैंतीस रुपए देने लगीं तो आजीबाई घूमकर बैठ गई-‘नहीं दुलहिन... मैं क्या नहीं देख रही खर्चा... अब तो पगार भैया के हाथों से ही लूँगी।’
कितनी बड़ी बात... अटूट विश्वास... आशा जगा दी थी... अद्भुत आशीर्वाद ने। पैंतीस रुपए... वे चाहती हैं जीवन भर हफ्ते की पगार देती रहें। कैसे भूल जाएँ? वे तो अपने सागर से बूँद भर उसकी झोली में डाल रही हैं, मगर आजीबाई ने उनके संकट की घड़ी में अपनी एक बूँद से सागर को भरने का प्रयास किया था। वह बूँद... बूँद नहीं रही... उनके लिए मोती बन चुकी है।